दुर्लभ दुनिया संगीत की: सिर्फ एहसास है यह, रूह से महसूस करो...

बेंगलुरु की भीड़भाड़ से थोड़ा अलग यह परिसर एक ऐसी सांगीतिक धरोहर है जहां हिन्दुस्तानी संगीत की लंबी यात्रा शब्द-दृश्य-श्रव्य माध्यम में मौजूद है।

फोटो - नागेन्द्र
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नागेन्द्र

बेंगलुरु में जहां बच्चों की रिहाईश है उसके आसपास ही ब्रिगेड मिलेनियम रोड से गुजरते हुए अक्सर एक बोर्ड बल्कि प्रदर्शनीनुमा प्रवेश द्वार जैसा डिजाइन दिखाई देता। हम हर बार यह सोचकर आगे बढ़ जाते कि कोई सांगीतिक आयोजन होगा या कोई इंस्टीट्यूट। ठहरकर देखने का कभी मन नहीं हुआ। लेकिन पिछली यात्रा में एक दिन जब घर में काम करने वाली सहायकों के सामने बात चली तो कुछ सुझाव मिले। कई बार की यात्रा के बाद उन्हें हमारे स्वाद का, रुचियों का कुछ-कुछ अंदाज तो हो ही गया था, सो उन्होंने मैसूर रोड पर ‘जनपद लोक’ देखने की सलाह ही नहीं दी, तारीफ में बहुत कुछ बताया। घर के बहुत पास के उस संगीत ठिकाने की भी चर्चा आई कि इसे देखना चाहिए। उन्होंने कहीं इसकी तारीफ सुन रखी थी। मेरे युवा रिश्तेदार ने भी तस्दीक की और देखने की सिफारिश भी। यतीन मैरिन इंजीनियर हैं, प्रायः जहाज पर ही रहते हैं लेकिन पानी के बीच की रूखी जिंदगी ने उन्हें जीवन के रस से दूर नहीं किया है। खैर, फिर तय हुआ और हम सब वह ठिकाना देखने गए। हाल के दिनों का यह हमारा बड़ा हासिल रहा है। 

फोटो - नागेन्द्र
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बेंगलुरु के भीड़भाड़ से थोड़ा अलग जेपी नगर सातवें फेज में ब्रिगेड रोड पर है यह ठिकाना। ब्रिगेड मिलेनियम का हिस्सा। ‘जेपी नगर’ के बारे में पता चला कि यह तो अपने लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नाम पर है और इसका नामकरण रामकृष्ण हेगड़े ने किया था जब वह कर्नाटक के मुख्यमंत्री थे। संयोग ही है कि जेपी नगर में कला-संस्कृति के कई महत्वपूर्ण ठिकाने, प्रेक्षागृह मौजूद हैं जिनमें से कई को देखने का अवसर पिछली यात्राओं में मिला। ‘रंग शंकरा’ प्रेक्षागृह भी जेपी नगर में ही है जहां महाभारत के एक प्रसंग पर आधारित नाटक देखने का अलग ही अनुभव रहा। कन्नड़ में होने के बावजूद इसकी संप्रेषणीयता इतनी तीव्र थी कि भाषाई अनुशासन कहीं आड़े नहीं आया। यह प्रेक्षागृह प्रख्यात नाट्यकर्मी अरुंधती नाग ने अपने पति और कन्नड़ फिल्मों के चर्चित अभिनेता शंकर नाग की स्मृति में स्थापित और समर्पित किया है। शंकर नाग को हम आरके नारायण की लघुकथाओं पर आधारित चर्चित धारावाहिक ‘मालगुडी डेज’ और कई फिल्मों में देख चुके हैं। श्याम बेनेगल के वह चहेते अभिनेताओं में थे।

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खैर, संगीत ठिकाने की बात करते हैं। ‘इंडियन म्यूजिक एक्सपीरियंस म्यूजियम’ नाम का यह परिसर अद्भुत कलात्मक रुचियों के साथ हिन्दुस्तानी संगीत का पूरा दौर अपने में समेटे हुए है। यह एक ऐसी अद्भुत सांगीतिक धरोहर है जहां हिन्दुस्तानी संगीत की लंबी यात्रा शब्द-दृश्य-श्रव्य माध्यम में मौजूद है। आपको थोड़ी भी रुचि है तो यहां पूरा एक दिन भी आनंद लेने के लिए कम है। 

परिसर में प्रवेश करते ही सुर-साज की ऐसी दुनिया है जिसमें डूब जाने का मन करता है। टिकट खिड़की से पहले खूबसूरती से डिजाइन किए गए ‘साउंड गार्डेन’ में आप बिना टिकट लिए खासा वक्त बिता सकते हैं और इसके लिए आपको कोई टोकने नहीं आता। यहां दस से ज्यादा संगीत वाद्य (म्यूजिक इंस्टालेशन) सुमधुर ध्वनियों और कंपन का आस्वाद लेने को आमंत्रित करते हैं। बच्चों और युवाओं को तो यह खूब आकर्षित करता है। पत्थरों और धातुओं में भी संगीत होता है- यहां देखा, सुना, सीखा और महसूस किया जा सकता है। बेंगलुरु के खुशनुमा मौसम में यह एक ऐसा ठिकाना है जहां की खुली हवा में घुला संगीत किसी को भी बांध लेता है। यही वह मकाम है जो आपको आगे की मंजिल के लिए मानसिक तौर पर तैयार कर देता है। यहां इधर-उधर बिखरे वाद्यों पर कोई भी अपना हाथ साफ कर सकता है, सो हम भी कुछ बेतरतीब धुनें निकालने से खुद को रोक नहीं पाए। यह सब भारतीय संगीत के उस अनुभव संसार में प्रवेश करने के पहले की वार्मअप एक्सरसाइज जैसा है। 

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बताते हैं कि पचास हजार वर्ग फुट क्षेत्र में फैला यह परिसर भारत का पहला और अब तक का अकेला ऐसा परिसर (इंटरएक्टिव संगीत संग्रहालय) है जहां संगीत से सीधी मुठभेड़ की जा सकती है। यह हमने देखा और महसूस भी किया। एक छत के नीचे भारतीय संगीत के सारे सुर और साज, उनसे जुड़ा इतिहास और वर्तमान अगर एक साथ देखने-महसूस करने को मिल जाए तो क्या ही कहना। यहां शास्त्रीय से लेकर लोक संगीत और क्षेत्रीय से लेकर बॉलीवुड की दुनिया भी भी है, रॉक म्यूजिक से लेकर कठपुतलियों की दुनिया और लोक संगीत भी। बस, आपको तय करना है कि क्या चाहिए। यहां पुरातन राजकुमारी, कुंदनलाल सहगल से लेकर मन्ना डे, एसडी बर्मन और बिस्मिल्लाह खान, पंडित रविशंकर, भीमसेन जोशी तक से मिलना हो जाता है।

नौ कला दीर्घाओं में फैला यह संगीत संसार लोक, पॉप, दक्षिण, बॉलीवुड और समकालीन संगीत की विभिन्न शैलियों और दौर के दर्शन कराता है। अत्यंत कलात्मक और सुरचिपूर्ण तरीके से निर्मित दीर्घाएं कंप्यूटरीकृत ऑडिओ विजुअल टच स्क्रीन के जरिये हर दौर के संगीत और गीत की दुनिया में न सिर्फ ले जाते हैं, उसकी कहानियां सुनाते हैं। आप इनसे उसका इतिहास-भूगोल सब पता कर सकते हैं। यहां आने के लिए आपका संगीत प्रेमी होना जरूरी नहीं, जरूरी सिर्फ इतना है कि आपको जीवन के रस में रुचि हो और उस रस में डूबना आता हो। यह सब नहीं भी होगा तब भी आप यहां से लौटते हुए उस रस को अपने अंदर देर तक हिलोरे लेता पाएंगे। 

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संग्रहालय के अस्तित्व में आने की कहानी भी रोचक है। 2019 में यह अस्तित्व में आया जिसका श्रेय बहुत कुछ इसकी निदेशक मानसी प्रसाद को जाता है। सूचना तकनीक में स्नातक, आईआईएम बेंगलुरू की स्नातक मानसी संगीत अध्येता भी हैं और कलाकार भी। देश-विदेश में शोज करते हुए उन्हें लगा कि लोग वाह-वाह तो करते हैं, भारत और भारतीय संगीत के बारे में जानते बहुत कम हैं। और यही सोच इस संग्रहालय का प्रस्थान बिंदु बन गया।  

संग्रहालय की वेबसाइट बताती है कि मानसी की मुलाकात कभी एमआर जयशंकर से हुई थी जो कलाकार के साथ संगीत रसिक भी हैं और इसके संस्थापक। रियल स्टेट कंपनी ब्रिगेड ग्रुप के मालिक भी। मानसी को उनके द्वारा स्थापित एक पुरस्कार मिला और तभी उनसे सवाल किया था कि ‘अगर भारतीय प्रबंधन संस्थान हो सकता है, तो संगीत के लिए ऐसा कोई संस्थान क्यों नहीं?’ और कुछ साल बाद उनके पास जयशंकर का बुलावा आया। उन्होंने स्थान और संसाधनों का ऑफर दिया और एक कल्पना साकार होने लगी। नतीजा इंडियन म्यूजिक एक्सपीरियंस म्यूजियम के रूप में सामने है। संस्थागत रूप से यह लॉस एंजेलिस के ग्रैमी म्यूजियम के साथ भी जुड़ा हुआ है।  

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प्रवेश करते ही हम ‘द स्टार’ गैलरी में पहुंचे तो धीरे-धीरे वह नशा तारी होने लगा जिसकी शुरुआत साउंड गार्डेन से हुई थी। बिस्मिल्लाह खान की शहनाई, एमएस सुब्बुलक्ष्मी का तम्बुरा और पंडित भीमसेन जोशी, पंडित जसराज के साज से लेकर परिधान तक। इस गैलरी में भारतीय संगीत के सौ दिग्गज प्रदर्शित हैं।

शीशे के एक घेरे में उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की शहनाई और उस पर टिकी सफेद टोपी जिस तरह सुरक्षित हैं, उसे देख लगता है कि बनारस में उनके घर में रखी चांदी की वह शहनाई सुरक्षित क्यों नहीं रह पाई जिससे उन्हें अतिशय प्यार था। यह शहनाई और टोपी उनके परिवार से भेंट में मिली है। आगे बढ़ते ही पंडित भीमसेन जोशी के सुर मानस पर गूंजने लगते हैं जहां पहले तो उनके सुमधुर गायन में संगत देने वाले तबला और हारमोनियम मिलते हैं और फिर उनका चांदी का पनडब्बा (पान रखने वाला), बंडी, शॉल और हस्तलिखित नोट। यह सब रोमांचित करने वाला है। हमें तो भीम सेन जोशी सामने गाते हुए दिखने लगते हैं जैसा उन्हें दिल्ली में कभी देखा था। पंडित जसराज का चिर परिचित परिधान सिल्क का कुर्ता-बंडी और नागरा, और उनका साज ‘स्वर मंडल’ भी यहां सुरक्षित है जो उनकी पहचान था। तो एमएस सुब्बूलक्ष्मी का तंबूरा और साड़ी के साथ पंडित रविशंकर का सितार भी। कुमार गंधर्व की गायकी की याद दिलाता एक छोटा सा केस, साथ में और भी बहुत कुछ।  

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चाबी से बजने वाला 19वीं शताब्दी की शुरुआत का वह फोनोग्राफ (1903) और रिकार्डिंग स्टूडियो में बैठे किशोर कुमार की जीवंत फोटो सीधे उस दौर में पहुंचाने को काफी है। फोटो तो और भी तमाम हैं जिनके सामने खड़े हो फोटो खिंचाकर आप उस दौर के साथ खुद को नत्थी कर लेने के लोभ से बच नहीं पाते।

1920 की गैलरी में रेडियो, मद्रास प्रेसीडेंसी रेडियो क्लब, रेडियो सीलोन की बातें और ऑल इंडिया रेडियो के अस्तित्व में आने की कहानी से शुरू होकर टेलिविजन-सेटलाइट बूम तक की यात्रा, दस्तावेज के तौर पर दीवारों पर पढ़ी जा सकती है। उस दौर के तरह-तरह के रेडियो सेट से लेकर टेलीफोन, प्राचीन स्पीकर से लेकर शुरुआती दौर के हर आकार-प्रकार वाले टेलिविजन सेट, रेडियो स्टेशन/स्टूडियो के यंत्र, भांति-भांति के माइक्रोफोन अलग ही रूपक गढ़ते हुए नास्टैलजिया में पहुंचा देते हैं। 

1950 के दशक के एलपी और ईपी सीरिज वाले तवे (रिकार्ड्स), रिकार्डिंग इंडस्ट्री और ग्रामोफोन कम्पनियों का इतिहास और उनकी यात्रा यहां दीवारों पर भी मौजूद है, जब चाहे सुने जा सकने वाले ऑडियो माध्यम में भी। 

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फिल्म गैलरी में मूक फिल्मों से लेकर अब तक की यात्रा, श्वेत-श्याम फिल्मों की पिक्चर गैलरी, पृथ्वीराज कपूर की ‘मुगल-ए-आजम’, शंभु मित्रा की ‘जागते रहो’, एमएस सथ्यु-बलराज साहनी की ‘गर्महवा’ से लेकर बेनेगल की ‘अंकुर’ और ‘निशांत’, राजकपूर की ‘बॉबी’ से लेकर ‘सत्यम शिवम् सुंदरम’ और हालिया शाहरुख-काजोल अभिनीत ‘परदेश’, यानी फिल्मों में खामोशी से आवाज आने तक की पूरी कहानी यहां दर्ज है। फिल्मों में लैंडमार्क्स एंड लिजेंड्स, फ्राम साईलेंस टु साउंड, गीतों की दुनिया में ‘द क्रिएटिव डिकेड्स, कलरफुल इयर्स, रि-डिस्कवर्ड, न्यू मिलेनियम, रिचिंग आउट जैसे खंड हैं जिन्हें दशक के आधार पर बांटा गया है। ऐसे छोटे-छोटे स्टूडियो भी हैं जहां बैठकर आप मनमाफिक गाने न सिर्फ सुन सकते हैं बल्कि उन्हें अपनी आवाज में भी दर्ज कर सकते हैं। 

सबसे अच्छा लगता है जब हम ‘ए नेशन ऑफ स्टोरी टेलर्स’ यानी किस्सागोइयों का देश खंड पर जाते हैं और पाते हैं कि सिनेमा के शुरुआती दौर में थिएटर और इसके कलाकारों की भूमिका को किस तरह रेखांकित किया गया है। नौटंकी, संगीत नाटक, पारसी थिएटर, तमिल थिएटर सहित रंगमंच का हर कोना यहां दर्ज है। 

इंस्ट्रूमेंट्स गैलरी में तब से अब तक के सारे वाद्ययंत्र एक साथ मिल जाते हैं। यहां 2,000 साल पूर्व के वाद्ययंत्र ही नहीं, भरतमुनि के नाट्य शास्त्र में वर्णित साज और शब्दावली की झलक भी मिलती है। 

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यहीं अचानक पता चलता है कि हारमोनियम कभी पैरों से भी बजाया जाता था। 1980 का पैरों से बजने वाला यह हारमोनियम यहां संरक्षित है जिसका निर्माण बंबई की कंपनी डीएस रामसिंह एंड ब्रदर्ज ने किया था। म्यूजिकल इंस्ट्रुमेंट बनाने वाले फ्रेंच सेबस्तियन एरार्ड जिनका बनाया पियानो महारानी विक्टोरिया को भी पसंद था, का एक नमूना (1904 मॉडल) भी यहां मौजूद है। 

यह अहसास ही अद्भुत है कि यहां संगीत के तमाम घराने भी अपने इतिहास और विरासत के साथ मौजूद हैं। ‘घरानाज- द फ्लावरिंग डायवर्सिटी’ में शास्त्रीय संगीत के घरानों का इतिहास है तो ध्रुपद का डागर, दरभंगा, बेतिया, मथुरा, तलवंडी, बिशनुपर और खयाल के आगरा, ग्वालियर, जयपुर, किराना, पटियाला घरानों का परिचय उनके दिग्गजों की तस्वीरों और बारीकियों के साथ मिलता है।

टाइमलाइन ऑफ इंडियन क्लासिकल म्यूजिक वैदिक युग से लेकर मध्यकालीन, भक्ति युग, भरत मुनि का दौर, हिन्दुस्तानी म्यूजिक में दिल्ली सल्तनत, मुगल काल, कलोनियल युग और कर्नाटक संगीत के विजयनगर पीरियड, प्री ट्रिनिटी, ट्रिनिटी और पोस्ट ट्रिनिटी पीरियड से लेकर मौजूदा दौर तक की यात्रा की खिड़की खोलता है जिसे आप ऑडियो-विजुअल फार्म में मनमाफिक देख सुन सकते हैं। तबस्सुम, अमीन सयानी से लेकर आकाशवाणी के अत्यंत लोकप्रिय नाम देवकी नंदन पांडेय भी अपनी आवाज के साथ यहां मिल जाते हैं।  

संघर्ष के तराने वाली वीथिका बताती है कि संगीत राजनीतिक आंदोलनों का हिस्सा किस तरह बन सकते हैं। यहां राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान जनता को एकजुट करने, प्रतिरोध की आवाज बन जाने की ताकत रखने वाले गीत-संगीत का संक्षिप्त इतिहास मौजूद है। सबसे दुर्लभ और सुखद तो ‘वंदे मातरम’ गीत के 35 से ज्यादा संस्करण, एमएस सुब्बुलक्ष्मी को महात्मा गांधी के पत्र की प्रतिकृति और देशभक्ति वाले फिल्मी गीतों के खजाने से गुजरना है। 

रॉक म्यूजिक खंड एक नए युग का आगाज दिखाता है। रूढ़ अर्थों में रॉक की बात तो है ही, इस पर साहित्यिक असर, क्लासिकी परम्परा और मदरटंग रॉक यानी लोक तक की बातें जानना अलग अनुभूति देता है। हाईब्रीड साउंड की व्याख्या भी है तो दिग्गज संगीतकारों के मूल रिकार्डिंग सुनने का अवसर भी। हर दौर और घराने के परिधान, यंत्रों के साथ संगीत की दुनिया का वह सबकुछ जिसे जानने में आपकी रुचि हो सकती है। अब यह आप पर है कि समय हो तो सुनिए-पढ़िए, वरना लिखे हुए पर एक नजर डाल कर आगे बढ़ जाइए। 


यह पूरा परिसर ही कुछ इस तरह संगीतमय है कि प्रवेश से लेकर निकास का रास्ता भी किसी साज पर गुजरने का अहसास देता है। कुल मिलाकर बाहर निकलने के बाद 250 रुपये का टिकट भारी नहीं लगता। 60 से ऊपर वालों के लिए यह 150 रुपये ही है। 

संगीत के इस संसार में घूमते हुए महात्मा गांधी की वह उक्ति बार-बार याद आती है जहां वह कहते हैं: “संगीत ने मुझे शांति दी है। मै एक अवसर को याद कर सकता हूं जब संगीत ने उस वक्त मेरे मन को तत्काल शांत कर दिया था जब मैं किसी बात पर बहुत ज्यादा उत्तेजित हो गया था। संगीत ने इस वक्त मुझे अपने गुस्से पर काबू पाने में मदद की।” गांधी का यह वाक्यांश परिसर में आनायास नहीं उद्धृत है। यह उक्ति उस वक्त और भी ज्यादा जमीन पर उतरती दिखाई दी जब वापसी में परिसर के बाहर किसी का इंतजार कर रहे ऑटो चालक त्यागराजन से बात हुई जिसने बताया कि जब कोई उसके ऑटो से यहां आता है तो उसे बहुत अच्छा लगता है। त्यागराजन ने भी यहां टिकट लेकर देखा है और कई वीथिकाओं में खींची सेल्फी भी उसके पास हैं। त्यागराजन की बात इसलिए भी सही है कि मुझे भी तो इस परिसर से दो-चार होने की पहली सलाह घर में काम करने वाली सहायिकाओं से ही मिली थी। संगीत वाकई क्लास नहीं देखता है। संगीत का अपना भी कोई क्लास नहीं होता, यह तो सबके लिए सर्वग्राही होता है।

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