बरेली: फिज़ा में तारी उदासी और ज़हनों में तैरते सवाल

शहर के अमन में खलल डालकर सियासत करने वालों के सिवा आख़िर किसको फ़ायदा हुआ। 2-2दिन तक इंटरनेट बंद होने से बाहर की दुनिया को लगा कि बरेली में जाने क्या हो गया, कारोबार का नुकसान हुआ सो अलग। वह समाजी ताना-बाना जिस पर शहर इतराता आया, उस पर तो ज़रब आया ही न!

बरेली में बीते दिनों हुए बवाल के बाद यूं तो अब शांति है, लेकिन फिज़ा में तैरती उदासी और ज़हनों में उमड़ते सवाल महसूस होते हैं (फोटो : प्रभात सिंह)
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प्रभात सिंह

बरेली शहर के एक हिस्से में हुए उपद्रव के बाद अब पंद्रह दिन गुज़र गए हैं, मगर शहरियों के दिलो-दिमाग़ पर उसकी छाया बनी हुई है। ज़िंदगी हमेशा की तरह चलती हुई मालूम देती है, स्कूल, दफ़्तर, दुकान, बाज़ार सब अपने ढर्रे पर हैं, मगर वह रौनक़ नज़र नहीं आती, जो इस शहर का किरदार है। फ़ज़ा में ख़ास तरह की उदासी तारी है, और ज़ेहन में तमाम तरह के सवाल, जिनके जवाब ढूँढ पाना आसान नहीं। कई जगह सड़कों पर पुलिस के बैरियर खड़े हैं, और कुछ इलाक़ों में जगह-जगह पुलिस का डेरा है, सायरन वाली मोटरों की गश्त है, और रात की ख़ामोश में बूटों की ठक-ठक सुनाई देती है। नतीजा यह कि लोगों की आपसी बातचीत भी सरगोशियों तक सिमट गई है। रही-सही कसर किसी ख़ास शख़्स की तलाश में पुलिस के रात-बिरात के छापों ने पूरी कर दी है। 

इस्लामिया इंटर कॉलेज के गेट पर ताला है, इसी कॉलेज के मैदान पर धरने का बुलावा दिया गया था (फोटो - प्रभात सिंह)
इस्लामिया इंटर कॉलेज के गेट पर ताला है, इसी कॉलेज के मैदान पर धरने का बुलावा दिया गया था (फोटो - प्रभात सिंह)

इत्तिहाद-ए-मिल्लत कौंसिल के प्रमुख मौलाना तौक़ीर रज़ा ने 26 सितंबर को जिस इस्लामिया इंटर कॉलेज के मैदान पर लोगों को जुटने का बुलावा दिया था, उसके फाटक पर अब ताला है। उस रोज़ भीड़ और पुलिस के बीच हुए टकराव के बाद से अब तक 91 लोग गिरफ़्तार किए गए हैं। इनमें से 85 लोग जेल भेज दिए गए, छह लोग थाने से ज़मानत पर छूटे। दबी ज़बान में कुछ बेगुनाहों की गिरफ़्तारी के क़िस्से भी कहे-सुने जा रहे हैं—फलाँ मस्जिद के इमाम खाना लेने के लिए जा रहे थे, फलाँ लड़का भोजपुरा की फ़ैक्ट्री में अपने काम से लौटकर आया था, नमाज़ के लिए निकला और पुलिस ने पकड़ लिया। इस्लामिया गेट के सामने बिहारीपुर चौकी के बाहर सड़क पर बैरियर हैं और आसपास कई जगह कुर्सियाँ डालकर बैठे पुलिस वाले अमूमन अपने मोबाइल में व्यस्त दिखते हैं। चौकी के पास ही पान का खोखा चलाने वाले रफ़ीक़ बारह दिनों के बाद लौटे हैं। वजह पूछने पर बताते हैं,‘चार स्टंट डले हैं...हंगामे से बहुत हैबत होती है।’


फोटो : प्रभात सिंह
फोटो : प्रभात सिंह

अमूमन बहुत भीड़-भाड़ वाली बिहारीपुर ढाल की सड़क पर मंगलवार को कम लोग ही थे। आला हज़रत की दरगाह को जाने वाले रास्ते के बाहर, पंडित राधेश्याम कथावाचक के पुश्तैनी घर की गली के नुक्कड़ पर और बाहर जैन मंदिर पर कई पुलिस वाले बैठे मिले। कुमार टाकीज़ के आसपास फड़ वाले हमेशा की तरह थे, मगर मोटरों से भरी रहने वाली सिनेमाघर की पार्किंग ख़ाली थी। सिनेमा हॉल के बाहर लॉबी में तीन सोफ़े पड़े थे, जिनमें से एक पर लेटा हुआ सिपाही अपने मोबाइल पर रील देख रहा था।

मलूकपुर में रहने वाले सतीश रोज़ ही बिहारीपुर के रास्ते से दफ़्तर आते-जाते हैं। वह कहते हैं कि सड़कों पर लोग दिखाई ज़रूर देते हैं, मगर उनकी क़ुदरती उमंग नदारद है। बाहर चबूतरों पर अड्डेबाज़ी के लिए जुटने वाले बुज़ुर्ग दिखाई देना बंद हो गए हैं और बहुत ज़रूरी काम न हो तो लोग घरों से बाहर जाने से बचते हैं। वह मानते हैं कि यह पुलिस की मौजूदगी के ख़ौफ़ की वजह से है। चंदू ने अपने बेटे को स्कूल के सिवाय कहीं और जाने पर पाबंदी लगा दी है। उनकी किराने की दुकान है। अभी कुछ रोज़ पहले ही आईएमसी से जुड़े नेता अफ़ज़ाल बेग को खोजती हुई पुलिस रात को दो बजे उनके मोहल्ले में आ गई थी। अफ़ज़ाल तो नहीं मिले मगर मोहल्ले वालों की नींद हराम हो गई।

बरेली में दफ़्तर, दुकान, बाज़ार सब अपने ढर्रे पर हैं, मगर वह रौनक़ नज़र नहीं आती, जो इस शहर का किरदार है। (फोटो - प्रभात सिंह)
बरेली में दफ़्तर, दुकान, बाज़ार सब अपने ढर्रे पर हैं, मगर वह रौनक़ नज़र नहीं आती, जो इस शहर का किरदार है। (फोटो - प्रभात सिंह)

तमाम शहरियों से मुलाक़ात में एक बात जो बार-बार आई वो यह कि शहर के अमन में खलल डालकर सियासत करने वालों के सिवाय आख़िर किसको फ़ायदा हुआ। दो-दो दिन तक इंटरनेट बंद होने से बाहर की दुनिया को लगा कि बरेली में जाने क्या हो गया, कारोबार का नुकसान हुआ सो अलग। वह समाजी ताना-बाना जिस पर शहर इतराता आया, उस पर तो ज़रब आया ही न!

पुराने शहर में सैलानी का मुस्लिम बहुल इलाक़ा इस बार ख़ूब चर्चा में रहा। अफ़सरों के मुताबिक़ बवाल करने वाले और उनके ज़्यादातर मददगार इस इलाक़े के ही हैं। चार अक्टूबर को भारी फ़ोर्स और बुलडोज़र लेकर अफ़सर इस इलाक़े में अतिक्रमण हटाने पहुंच गए। टीवी वालों की मेहरबानी कि ज़रा-सी देर में हल्ला मच गया. बाहर रहने वाले शहर का हाल और अपने दोस्तों-रिश्तेदारों की ख़ैरियत जानने के लिए धड़ाधड़ फ़ोन खटखटाने लगे। 


सैलानी चौराहे के क़रीब किताबों की दुकान चलाने वाले ज़मीर अहमद इलाक़े के माहौल के बारे में पूछा तो झट से बोले, ‘अस्सी साल का हो गया मगर इतना झूठा मीडिया कभी नहीं देखा। आपने भी सुना होगा कि यहां सैकड़ों दुकानें तोड़ दी गईं, अब ख़ुद ही देख लीजिए। मैं कहता हूँ जिसने ख़ता की है, उसे सज़ा ज़रूर दीजिए, सख़्त से सख़्त सज़ा दीजिए मगर पूरी क़ौम को ख़तावार क्यों बनाना? ये जो लोगों को फ़िरक़ों में बाँटने का मंसूबा है, इससे शहर और क़ौम का नुकसान तो होगा ही, देश का भी नुकसान होगा।’ इलाक़े के कई लोग मानते भी हैं कि हाकिमों की मंशा दहशत पैदा करने की थी, और बुलडोजर की कारगुजारी से उन्हें कामयाबी भी मिली।

दशहरे के अगले ही रोज़ यानी तीन अक्टूबर को जुमे की नमाज़ से पहले ही इंटरनेट पर दोबारा पाबंदी लगने से शहर के हाल का अंदाज़ इस बात से लगा सकते हैं कि बहुतेरे लोगों ने अपने बच्चों को स्कूल नहीं जाने दिया। आलगिरीगंज के बड़े कारोबारी रवि अग्रवाल भी इनमें शामिल थे. वह कहते हैं, ‘वैसे तो सब ठीक था मगर डर यही था कि बच्चों की छुट्टी दोपहर के बाद होती है।’    

2010 में शहर जब कर्फ़्यू की जद में आया था, मौलाना तौक़ीर रज़ा पर हालात बिगाड़ने के आरोप उस समय भी लगे थे, बाक़ायदा मुक़दमे दर्ज हुए थे। उन्हें गिरफ़्तार किया गया और दो दिन बाद वह ज़मानत पर छूट गए थे। आईएमसी के ज़रिये सियासी मंज़िल तय करने के उनके मंसूबे किसी से छिपे हुए नहीं हैं। 21 सितम्बर को मौलाना तौक़ीर रज़ा के जुमे की नमाज़ के बाद इकट्ठा होने और कलेक्ट्रेट तक पैदल मार्च करने के ऐलान के साथ ही अफ़सरों की उनके साथ लगातार बैठकें होती रहीं। आईएमसी की ओर से मार्च रद्द करने की घोषणा हुई, फिर भी 26 सितम्बर को बवाल की नौबत आई। मौलाना को पुलिस ने अगले रोज़ गिरफ़्तार कर लिया। इन दोनों ही दिनों में सूबे के मुख्यमंत्री के बयानों को आधार बनाकर अफ़सरों ने अपनी रणनीति बनाई और फिर वह सब हुआ जिसका ख़ामियाज़ा शहरियों ने भोगा।

सन् ’95 में अपने शोध के सिलसिले में बरेली आए स्टीव आई. विल्किन्सन की कैंब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से एक किताब आई, ‘वोट्स एण्ड वायलेंसः इलेक्टोरल कॉम्पिटिशन एण्ड कम्युनल राएट्स इन इंडिया’, और इसमें उन्होंने बरेली के किरदार को और शहरों से अलग माना है। फ़साद की अलग-अलग वजहों का विश्लेषण करते हुए उन्होंने दलील दी है कि अगर सामाजिक-आर्थिक कारण ही फ़साद की जड़ हैं तो फिर बरेली, जौनपुर और इलाहाबाद जैसे शहर सांप्रदायिक दंगों से अछूते कैसे रह जाते हैं जबकि यहाँ भी सामाजिक परिस्थितियाँ कमोबेश वैसी ही हैं, जैसी कि मुरादाबाद, मेरठ, अलीगढ़ और अहमदाबाद में।


स्टीव की दलील को इस हक़ीकत से भी समझ सकते हैं कि शहर के हालिया हंगामे के बीच विंडरमेयर में चल रही रामलीला में दानिश ख़ान विष्णु और राम की भूमिकाएं कर रहे थे।फ़ज़लुर्रहमान उर्फ़ चुन्ना मियाँ के बनवाए लक्ष्मी-नारायण मंदिर में पूजा करने वाले हमेशा की तरह जाते रहे, नया टोला में पंडित दाते राम की बनवाई बुध वाली मस्जिद की एक चाभी रखने उनके वंशज संजय शर्मा अब भी ज़रूरत पड़ने पर तड़के ही जाकर मस्जिद की साफ़-सफ़ाई कर आते हैं।

ऐसा भी नहीं कि फ़िरक़ापरस्ती फैलाने वाली ऐसी कोशिशों का कोई असर नहीं होता. रामलीला में कई सालों से शत्रुघ्न की भूमिका करने वाले शफ़ी का अचानक यह कहकर किनारा कर लेना कि ज़मीर गवाही नहीं देता, इसकी एक नज़ीर भर है. 

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