बिहार : यह ‘इंडिया’ ब्लॉक है, यहां कोई भ्रम नहीं
‘संविधान सम्मेलनों’ ने नई तरह की जागरूकता फैलाई है तो इंडिया ब्लॉक के एका प्रदर्शन ने लोगों को चौंकाया भी है।

बिहार के प्रभारी एआईसीसी महासचिव कृष्णा अल्लावरु ने 17 अप्रैल को पटना में कहा कि इंडिया ब्लॉक में एकता भी है और स्पष्टता भी। अल्लावरु तेजस्वी यादव और इंडिया ब्लॉक के अन्य प्रादेशिक नेताओं के साथ मीडिया को संबोधित कर रहे थे, जिसमें बिहार के लिए राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी), कांग्रेस, वामपंथी दल- जिनमें सीपीआई (एमएल), सीपीआई (एम) और सीपीआई के अलावा मुकेश सहनी के नेतृत्व वाली विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) शामिल हैं।
बैठक में तय हुआ कि आरजेडी के तेजस्वी यादव समन्वय समिति का नेतृत्व करेंगे, जो अभियान समिति के साथ ही प्रचार तथा सोशल मीडिया से जुड़े समूहों सहित अन्य सभी समितियों पर नजर रखेगी। कुछ पर्यवेक्षकों ने विपक्षी गठबंधन को संदर्भित करने के लिए ‘इंडिया ब्लॉक’ नाम को जानबूझकर प्राथमिकता दिए जाने पर टिप्पणी की। अगर बिहार में प्रचलित नाम ‘महागठबंधन’ का इस्तेमाल न करने के प्रति नेतागण वाकई सतर्क थे, तो शायद यह बीजेपी के खिलाफ राष्ट्रीय गठबंधन को फ्रेम में रखने के लिए था, हालांकि फोकस तेजस्वी यादव के नेतृत्व में बिहार के लिए एक साझा न्यूनतम कार्यक्रम और समन्वित अभियान रणनीति पर रखा गया था।
अल्लावरु एनडीए पर कटाक्ष करते हुए उसके विभिन्न स्तरों पर फैले भ्रम की ओर इशारा करने से नहीं चूके। उन्होंने हरियाणा के मुख्यमंत्री के सार्वजनिक रूप से दिए गए उस बयान की ओर इशारा किया जिसमें उन्होंने कहा था कि बिहार में एनडीए का चेहरा बीजेपी के सम्राट चौधरी होंगे, जबकि अमित शाह जेडीयू के नीतीश कुमार के चेहरा होने की बात पर जोर देते रहे हैं और प्रधानमंत्री का दावा है कि राज्य में एनडीए का चेहरा वही होंगे।
पत्रकारों के सवाल कि क्या इंडिया ब्लॉक ने अपना ‘सीएम चेहरा’ तय कर लिया है, अल्लावरु ने चुटकी लेते हुए कहा, “कृपया जाकर यही सवाल उनसे पूछिए।”
नए समाज को जोड़ने की पहल
पिछले कुछ महीनों में बिहार में ‘संविधान बचाओ सम्मेलन’ की जैसी धूम रही है, वह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि कांग्रेस राज्य में फिर से अपनी जगह बनाने को उत्सुक है। हालांकि इनमें से प्रत्येक कार्यक्रम को राहुल गांधी ने संबोधित किया, लेकिन खास बात यह भी रही कि हर कार्यक्रम में खास जाति समूहों पर ध्यान केन्द्रित किया गया। यह सिलसिला उस राज्य में ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है, जहां राजनीति की दशा-दिशा जातीय गठजोड़ से ही तय होती हो।
पिछला कार्यक्रम नोनिया और कुम्हार जातियों पर केन्द्रित था। इन आयोजनों का मकसद मुख्य रूप से बीजेपी सरकार द्वारा भारतीय संविधान पर किए जा रहे हमलों पर जनता का ध्यान आकर्षित करना है, लेकिन यह जातीय समूहों के बारे में जागरूकता बढ़ाने का काम भी करते हैं।
उदाहरण के लिए, पिछले सम्मेलन में स्वतंत्रता आंदोलन के दो लगभग भुला दिए गए प्रतीकों- बुधु नोनिया और रामचंद्र विद्यार्थी को याद किया गया और समाज में उनके योगदान की खूब चर्चा हुई। आयोजकों में से एक मंजीत साहू ने कहा कि कांग्रेस का लक्ष्य अत्यंत पिछड़ी जातियों (ईबीसी) और दलितों को एकजुट करना है, जो राज्य की आबादी का लगभग 48 प्रतिशत हिस्सा हैं। साहू ने कहा, “बिहार में अब तक आयोजित तीनों संविधान सम्मेलन ओबीसी, ईबीसी और दलितों के उत्थान पर केन्द्रित रहे हैं। कांग्रेस सिर्फ सामाजिक न्याय की बात नहीं करती, वह इसका पालन भी करती है।”
दलित नेता राजेश राम की राज्य इकाई के अध्यक्ष के रूप में नियुक्ति को इसी पहल का हिस्सा माना जा रहा है। राज्य में कांग्रेस के सभी प्रमुख फ्रंटल संगठनों को नया रूप दिया जा चुका है और अब उनका नेतृत्व दलित और ओबीसी (खासकर यादव) समुदायों के नेताओं के हाथ में है।
ऐतिहासिक रूप से नमक व्यापार से जुड़े बुधु नोनिया की आजादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। लेकिन अपने वीरतापूर्ण अतीत के बावजूद, नोनिया समाज राज्य की सामाजिक सीढ़ी के निचले पायदान पर ही रहा है। आधिकारिक तौर पर उन्हें भले ही ईबीसी (अत्यंत पिछड़ा वर्ग) के रूप में वर्गीकृत किया गया हो, वे आज भी भेदभाव का शिकार हैं और अक्सर उनके साथ ‘अछूत’ जैसा ही व्यवहार किया जाता है। उन्हें मान्यता देने के प्रतीकात्मक संकेत के तौर पर ही सही, कांग्रेस ने हाल ही में नोनिया समुदाय से एक जिला अध्यक्ष की नियुक्त की है।
भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान शहीद रामचंद्र विद्यार्थी को भी सम्मेलन में श्रद्धांजलि दी गई। 9 अगस्त 1942 को देवरिया कोर्ट में तिरंगा फहराने वाले इस नायक को ब्रिटिश सेना ने गोली मार दी थी। पार्टी ने भारत के सबसे बड़े दलित नेताओं में से एक और जवाहरलाल नेहरू कैबिनेट के प्रमुख सदस्य बाबू जगजीवन राम को भी याद किया।
जोड़ने की इस पहल ने अपने नएपन के कारण राजनीतिक पर्यवेक्षकों का ध्यान खींचा है। उनका मानना है कि ऐसी पहल और आंतरिक पुनर्गठन कांग्रेस द्वारा समाज के सबसे उपेक्षित समुदायों की आकांक्षाओं को पहचानने और उनके साथ खड़े होने के गंभीर प्रयासों का संकेत है।
नए-नए दलों और चेहरों की बहार
बीते कुछ दिनों से राज्य में हर कुछ हफ्तों में कोई-न-कोई नई राजनीतिक पार्टी सामने आ रही है। विधानसभा चुनाव जब महज पांच-छह महीने दूर हैं, अचानक आई इस तेजी से पर्यवेक्षक हैरान भी हैं, मुस्कुराते भी हैं। चुनाव करीब देख लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स की पूर्व छात्रा पुष्पम प्रिया चौधरी अपनी ‘प्लुरल्स पार्टी’ के साथ फिर से उभरी हैं। नीतीश कुमार के पूर्व सहयोगी और सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी आर.सी.पी. सिंह ‘आप सबकी आवाज’ नामक पार्टी बनाकर, जबकि पूर्व आईपीएस अधिकारी शिवदीप लांडे ‘हिन्द सेना’ नाम की पार्टी लेकर सामने आए हैं। इस क्षेत्र में उतरने वाली नवीनतम पार्टी ‘भारतीय इंकलाब पार्टी’ है, जिसे अनुसूचित जाति समुदाय द्वारा ‘पान समाज’ के नाम से जाना जाता है। उन्होंने पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में एक बड़ी और प्रभावशाली रैली आयोजित करके सभी को आश्चर्यचकित कर दिया।
सवाल है कि चुनावी मैदान में अचानक उतराई इस भीड़ का आखिर सबब क्या है? क्या देर से मैदान में उतरे यह लोग कोई राजनीतिक शून्य देख रहे हैं, जिसे भरने को दौड़ लगा दी है? या यह राजनीतिक फिजा में महज दबाव और भ्रम पैदा करने तथा सौदेबाजी के हालात बनाने का कोई अवसरवादी उपक्रम है?
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