बिहार विधानसभा चुनाव: नदियों की 'मौत' का सिर्फ एक ही कारण नहीं है, फिर भी यह चुनावी मुद्दा नहीं है!

बीते दो दशकों के दौरान बिहार में 4,425 पुल बने हैं। इन सबका मलबा नदियों में गिरा दिया गया। अवैध रेत खनन के अलावा नदियों से पानी के खत्म हो जाने की वजह यह भी है।

फोटो: Getty Images
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पंकज चतुर्वेदी

गोपालगंज में जब लोग छठ के लिए नदियों की तरफ जा रहे थे, तो बरसात में तबाही मचाने वाली घोघारी, धमई और स्याही नदियों में पानी ही नहीं था। स्याही नदी का अधिकांश हिस्सा खेत में बदल गया है। बक्सर की काव नदी के हालात भी कुछ ऐसे ही हैं। समस्तीपुर में कोई 60 किलोमीटर बहने वाली जमुआरी नदी की चौड़ाई करीब 60 साल पहले 150 मीटर थी। गाद के चलते पहले इसकी धारा मद्धम हुई थी और जब इसके उद्गम स्थल पर स्लूइस गेट लगा दिया गया, तो वह भी गाद से जाम हो गया। इस तरह अब इसमें पानी  हफ्ते भर नहीं दिखता क्योंकि उसकी गहराई ही नहीं हैं।

इन तीन जगहों की चर्चा की वजह कुछ खास है। छठ से पहले 24 अक्तूबर को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जब समस्तीपुर में वोट की याचना करते हुए लोगों को छठ की शुभकामनाएं दे रहे थे, तब उन्हें किसी ने बताने की जरूरत नहीं समझी कि नीतीश कुमार की एनडीए सरकार ने जमुआरी नदी का क्या हाल बना दिया है। केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह उससे एक दिन बाद 25 अक्तूबर को बक्सर में थे, तब काव की स्थिति के बारे में उन्हें पता ही नहीं था। शाह ने करीब छह माह पहले मार्च में ही गोपालगंज में चुनाव अभियान शुरू किया था, तब भी घोघारी, धमई और स्याही नदियों के बारे में उन्हें कुछ नहीं पता था।


मोदी, शाह को इसलिए यह पता होना चाहिए कि ये छोटी नदियां ही नहीं, नेपाल से आने वाले पानी की वजह से बाढ़ की विभाषिका पैदा करने वाली कोसी, गंडक, गंगा आदि करीब आधा दर्जन बड़ी नदियों की भी दुर्दशा दो कारणों से हैः एक, इनमें गाद इतना भर चुका है कि इसमें पानी ठहरता ही नहीं; दो, इनसे वैध से अधिक अवैध रेत खनन इतना हो चुका है और हो रहा है कि भविष्य के लिए भी कोई उम्मीद नहीं बचती।

बिहार राज्य खनन निगम लिमिटेड द्वारा 2025 में प्रकाशित पर्यावरणीय ऑडिट रिपोर्ट में कहा गया है कि नदियों में जहां पानी होना चाहिए, वहां गाद भर गई है और फिर, ये पानी सहेजने के स्थान से अधिक बालू निकालने की खान हो गई हैं। 

2024 में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने भी सोन और गंगा नदी घाटों में अवैध रेत खनन की जांच के निर्देश दिए थे। इस पर राज्य सरकार ने इसकी जांच ओसीओ-एनवीरों मैनेजमेंट सोल्यूशन और कॉगनिजेन्स रिसर्च इंडिया प्राइवेट लिमिटेड से कराई थी। इसके लिए ड्रोन सर्वेक्षण और भू-स्थानिक तकनीक का उपयोग किया गया। रिपोर्ट में बताया गया कि अधिकतर जगहों पर रेत का अत्यधिक दोहन नदी तल (रिवर बेड) को नीचे धकेल रहा है। इस कारण जलस्तर में कमी और सूखे की स्थिति पैदा हो गई है।

पहले की अन्य रिपोर्ट की तरह यह भी लाल बस्ते में बंधी रह गई। 2021 की सीएजी रिपोर्ट की मीडिया में खूब चर्चा रही, पर उन पर भी सरकार ने आंख, कान मूंदे रखी। यह रिपोर्ट दिसंबर 2022 में विधानसभा में पेश भी की गई थी। इस रिपोर्ट में बताया गया था कि 18 जिलों में नदियों से एम्बुलेंस, कार, ऑटो रिक्शे, मोटरबाइक से बालू ढोए गए।

इनके लिए 2,43,811 ईचालान बने और इन वाहनों से ही 10.89 लाख मीट्रिक टन मौरंग ढो लिया गया। इस रिपोर्ट में कहा गया कि 'उपलब्ध सैटेलाइट इमेजों के अनुसार, पटना के 24 में से 20, भोजपुर के 36 में से 28 और रोहतास के 26 में से 16 घाटों में खनन होता पाया गया।' बिहार के एकाउंटेन्ट जनरल (ऑडिट) रामावतार शर्मा ने 18 दिसंबर 2022 को पटना में प्रेस कॉन्फ्रेंस में यह तक कहा कि 'हमने जिन घाटों का अध्ययन किया, सभी में अवैध खनन पाया। हर साल यह अवैध खनन बढ़ता जा रहा है। बिना पर्यावरणीय अनुमतियां ही खनन किया जा रहा है। मौरंग ढोने के लिए अवास्तविक किस्म के वाहनों का उपयोग किया जा रहा है।' 


नदियों की 'मौत' का सिर्फ यही कारण नहीं है। बीते दो दशकों के दौरान बिहार में नदियों पर कोई 1,874 पुल बने हैं। ग्रामीण कार्य विभाग को 4,415 पुलों के निर्माण की स्वीकृति मिली जिनमें से अब तक 2,551 पुल पूरे हो चुके हैं। नदी पार करने में सुविधा के खयाल से बनने वाले इन पुलों के लिए नदियों में खड़े किए गए हजारों खंभों और निर्माण तथा खुदाई से निकले मलवे को नदी में ही फेंक दिया गया। इससे भी नदियों की गहराई जाती रही और इनमें अब अच्छे  मानसून को समेट लेने की क्षमता बची ही नहीं।

यह बिहार और झारखंड के लिए जीवन-मरण का सवाल है- इन्हीं दो बड़े कारणों से जो पानी साल भर यहां के जीवन का आधार हो सकता है, वह अभी शरद ऋतु में ही लुप्त हो गया है। इन वजहों से ही बिहार की उफनती नदियों के पानी की बड़ी मात्रा गंगा के रास्ते बंगाल की खाड़ी में जाकर बेकार हो रही है।

यही हाल उत्तर और दक्षिण बिहार की सभी नदियों का है जिनका मिलन गंगा नदी में होता है। जल संसाधन विभाग का आंकड़ा है कि हर दिन पांच से दस लाख क्यूसेक पानी गंगा होते हुए बंगाल की खाड़ी में जा रहा है। इसके चलते एकबारगी तो गंगा का जल स्तर बढ़ता है लेकिन कुछ ही समय में यह नीचे आ जाता है। बाढ़ के प्रलय की भी वजह यही है।

अगर बरसात वास्तव में औसत से छह फीसदी ज्यादा हो जाती है, तो हमारी नदियों में इतनी जगह नहीं है कि वह उफान को सहेज पाए। नतीजतन, बाढ़ और तबाही के मंजर दिखते हैं। गाद के चलते पहले नदी की धारा मंथर होती है, फिर सूखे बहाव क्षेत्र को कचरा घर बना दिया जाता है और फिर कोई खेती करता है, तो कोई बस्ती बसा लेता है। पहले नदियों के साथ आने वाली गाद नदी के कछार क्षेत्र में फैल जाती थी और वह खेतों के लिए उर्वरा का काम करती थी। अब तटबंध नदी के नैसर्गिक प्रवाह  को बाधित कर रहे हैं और इससे नदी की गहराई में कीचड़ जमा हो गया है। इसी के चलते बरसात से आया पानी इसमें टिकता नहीं।


ऐसा भी नहीं है कि मोदी के नेतृत्व वाली सरकार को नदियों के इस हाल का अंदाजा नहीं है। सन 2016 में केन्द्र सरकार द्वारा गठित चितले कमेटी ने साफ कहा था कि नदी में बढ़ती गाद का एकमात्र निराकरण यही है कि नदी के पानी को फैलने का पर्याप्त स्थान मिले; गाद को बहने का रास्ता मिलना चाहिए; तटबंध और नदी के बहाव क्षेत्र में अतिक्रमण न हो और अत्यधिक गाद वाली नदियों के संगम क्षेत्र से नियमित गाद निकालने का काम हो। ये सिफारिशें भी ठंडे बस्ते में बंद हैं।

बिहार में तो उथली हो रही नदी में गंगा सहित 29 नदियों का दर्द है कि नदियों के तेज बहाव के साथ आए मलवे से भूमि कटाव भी हो रहा है और कई जगह नदी के बीच टापू बन गए हैं। अकेले फरक्का से होकर गंगा नदी पर हर साल 73.6 करोड़ टन गाद आती है जिसमें से 32.8 करोड़ टन गाद इस बराज में  ठहर जाती है। झारखंड के साहिबगंज में गंगा अपने पारंपरिक घाट से पांच किलोमीटर दूर चली गई है। 19वीं सदी में बिहार में जिसमें आज का झारखंड भी समाहित था, 6,000 से अधिक नदियां बहती थीं। इनकी संख्या आज सिमटकर 600 रह गई है। नदियों के दोनों किनारों पर बाढ़ से बचने के लिए हजारों किलोमीटर के पक्के तटबंध हैं।


यह समस्या इसलिए भी चौगुनी गति से बढ़ रही है क्योंकि बिहार में कूड़े का प्रबंधन कोई जन सरोकार का मुद्दा नहीं है। राज्य के चप्पे-चप्पे में बिछी जल निधियों के जाल को उथला करने का काम यह कूड़ा कर रहा है। अधिकांश स्थानीय निकायों के अपने बजट बहुत कम हैं और तकनीकी ज्ञान उससे भी कम हैं, तो वे सबसे सस्ता तरीका छोटी नदियों में कूड़े को बहा देना ही समझते हैं।

यह तो समझ में आता है कि बीजेरी की मजबूरी है कि नीतीश के कंधे पर सवार होकर ही वह चुनावी वैतरणी पार कर सकती है। लेकिन 'न खाऊंगा, न खाने दूंगा' का दावा करने वाले मोदी को यह सब भ्रष्टाचार और कुशासन नहीं दिखता और सुशासन बाबू का तमगा लटकाए नीतीश नदियों की जीवन रेखा मिटाने में जुटे हैं।