नीतीश राज में पढ़ाते नहीं अफसरों की ड्यूटी करते हैं शिक्षक, तो फिर सामान्य सवालों के जवाब कैसे दें टॉपर

बिहार में नीतीश राज के दौर में शिक्षा स्तर जिस तरह गिरा है उससे पूरे देश में बिहार का मजाक बना है। वजह है कि शिक्षकों को अफसरों की ड्यूटी में लगा दिया गया है और बिहार बोर्ड का शिक्षा विभाग से कोई तालमेल नहीं है। ऐसे में अगर सामान्य ज्ञान के भी जवाब नहीं दे पाते हैं टॉपर, तो इसमें अचरज कैसा !

फोटो : सोशल मीडिया
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शिशिर

जिन्हें 10वीं का स्टेट टॉपर घोषित किया, वह छोटी कक्षाओं के सामान्य ज्ञान प्रश्नों का जवाब देने में फेल हो गए, तो बिहार की नीतीश सरकार ने फेल नहीं होने वाले दो फॉर्मूले सामने रखे। पहला, सिमुलतला आवासीय विद्यालय के ही टॉपर्स दो। और दूसरा, टॉपर्स की सूची मीडिया को देने के पहले उनका पर्सनल इंटरव्यू लेकर ऐसे सवालों के जवाब के लिए तैयारी करा दो। इसी तरह परीक्षा में कदाचार की तस्वीरों पर पूरे देश में किरकिरी हुई तो सरकार ने सख्ती की और इससे रिजल्ट गिरा तो सुधार के नाम पर 50 फीसदी नंबर के ऑब्जेक्टिव प्रश्न डाल दिए। ऐसे फॉर्मूलों के कारण विवादों में रहे बिहार बोर्ड में अब एक नई तैयारी चल रही है- प्रतियोगी परीक्षाओं की तरह साल में दो बार मैट्रिक परीक्षा। इस प्रयोग के बारे में शिक्षाविदों से रायशुमारी भी हो चुकी है और इसके फायदे-नुकसान पर प्रस्ताव भी तैयार है, लेकिन बिहार बोर्ड या सरकार के अधिकारी अभी कुछ भी बोलने को तैयार नहीं।

लालू प्रसाद यादव के चरवाहा विद्यालय का मजाक उड़ाने वाले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार मिड डे मील, साइकिल और पोशाक योजना के व्यापक प्रचार-प्रसार के सहारे ड्रॉप आउट घटाने में तो काफी हद तक कामयाब रहे लेकिन मैट्रिक और आगे की पढ़ाई में बड़ा बदलाव नहीं कर सके। यानी, शुरुआती ड्रॉपआउट पर लगी पाबंदी आगे चलकर बेकार हो गई। नीतीश सरकार में बिहार बोर्ड के किसी भी फैसले पर सवाल उठाने तक की आजादी नहीं है। कोई खबर छपी तो उसी अखबार में पूरे पेज का खंडन बाकायदा विज्ञापन के रूप में छापा जाता है। इसलिए, बोर्ड के रवैये पर स्थानीय मीडिया को गहरी चुप्पी साध लेनी पड़ रही है। जबकि हकीकत यह है कि बिहार बोर्ड पिछले कई वर्षों से लगातार प्रयोग ही कर रहा है।


पढ़ाई में सुधार की जिम्मेदारी सरकार ने शिक्षा विभाग पर डाल रखी है और परीक्षा लेना बिहार बोर्ड का काम है। बोर्ड भी शिक्षा विभाग के दायरे में है लेकिन समन्वय दूर-दूर तक नहीं है। नतीजा है कि पढ़ाई का स्तर सुधारे बगैर बोर्ड अच्छे रिजल्ट के लिए हर जोड़-तोड़ कर रहा है। जोड़-तोड़ तो ऐसी कि पिछली बार मैट्रिक की सेंटअप परीक्षा का बना हुआ प्रश्नपत्र बर्बाद हो गया और बोर्ड ने अंतिम समय में पैटर्न बदल दिया। सेंटअप परीक्षा न तो शिक्षा विभाग और न ही बिहार बोर्ड लेता है, यह जिम्मेदारी किसी की नहीं है। ऐसे में माध्यमिक शिक्षक संघ अपने प्रभाव वाले स्कूलों में इसका प्रश्नपत्र देती है और जहां उसका प्रभाव नहीं, वहां प्रधानाचार्य पुस्तक प्रकाशकों के सहारे प्रश्नपत्र लेकर परीक्षा की औपचारिकता पूरी करते हैं।

शिक्षकों की नियुक्ति

परीक्षाओं को लेकर एक तरफ जहां लगातार प्रयोग हो रहे हैं, वहीं शिक्षकों की जरूरत पूरी करने का कोई बड़ा और कारगर प्लान नहीं दिखा। जिला परिषद्, नगर परिषद् और नगर निगम के स्तर पर नियोजित किए जाने वाले शिक्षकों के स्तर पर बार-बार उठते सवालों का कोई जवाब सरकार के पास नहीं है। अब सरकार सिर्फ ऐसे नियोजनों से ही शिक्षकों की कमी पूरी करना चाह रही है। लेकिन हाल यह है कि गणित समेत विज्ञान विषयों के शिक्षक मिल ही नहीं रहे हैं। बिहार में उच्चतर माध्यमिक शिक्षकों के 18 हजार से ज्यादा पद रिक्त हैं तो हाईस्कूलों में 11 हजार से ज्यादा पदखाली हैं। फिलहाल छह हजार अधिक हाईस्कूल शिक्षकों के नियोजन की प्रक्रिया चल रही है।

इसके अलावा 2011 के एसटीईटी में उत्तीर्ण 16 हजार शिक्षकों का नियोजन भी बाकी है। यानी, सबकुछ हो भी जाए तो नियोजित शिक्षकों के खाली पद हजारों की संख्या में रह जाएंगे। गणित समेत विज्ञान विषयों के शिक्षकों की कमी पूरी होने की संभावना दूर-दूर तक नहीं है, क्योंकि नियोजन के औपबंधिक प्रावधानों के कारण अच्छे शिक्षक इससे जुड़ने को तैयार नहीं हैं और सरकार इसके लिए कोई रास्ता निकालती भी नहीं दिख रही है।


पढ़ाने से ज्यादा अन्य काम

नियोजित शिक्षक भी स्कूल छोड़कर बाकी कामों में लगे हुए हैं। नियोजन इकाइयां- जिला परिषद, नगर परिषद और नगर निगम में इन्हें लंबे समय तक प्रतिनियुक्त रखा जा रहा है या ये स्कूल की सैलरी लेकर अफसर विशेष की ड्यूटी बजा रहे हैं। ऐसे शिक्षकों की तादाद इसलिए भी ज्यादा है कि नियोजन प्रक्रिया में कमजोर शैक्षणिक स्तर वाले ज्यादा आ गए। ऐसे शिक्षक स्कूल की कक्षा से ज्यादा किरानी वाले कामों में लगे रहना चाहते हैं क्योंकि यहां रौब भी है और ऊपरी कमाई भी। ऐसे शिक्षकों के कमजोर शैक्षणिक स्तर को लेकर वीडियो भी वायरल होते रहे हैं। नियोजन इकाइयों के अलावा निर्वाचन के काम और मिड डे मील के प्रबंधन के कारण भी कक्षा में पढ़ाने वाले शिक्षक कम नजर आते हैं।

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