बिहार: ढिंढोरा ‘नारी शक्ति’ का, लेकिन टिकट बंटवारे में ‘नारी-मुक्त बीजेपी'

बीजेपी महिलाओं के सम्मान और उत्थान की जो भी बातें करे, उसने बिहार में किसी भी महिला को टिकट न देकर अपना रुख जाहिर कर दिया है।

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अब्दुल कादिर

बिहार में लोकसभा के लिए 17 बीजेपी उम्मीदवारों में एक भी महिला के न होने का आखिर क्या कारण हो सकता है? पिछली बार एक महिला सांसद थीं- रमा देवी जिन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। लिहाजा, बिहार में सांसद उम्मीदवारों के मामले में तो बीजेपी ‘नारी-मुक्त’ हो गई है जबकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र नरेंद्र मोदी ‘नारी शक्ति’ के बारे में खूब बातें कर रहे हैं।

बीजेपी की महिला उम्मीदवारों के साथ मोदी की फोन पर हुई बातचीत को टीवी पर समाचार के रूप में प्रचारित किया गया ताकि पता चले कि वह महिलाओं को कितना महत्व देते हैं। पार्टी और मोदी- दोनों संसद से पारित महिला आरक्षण विधेयक से लेकर ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान और महिलाओं के कथित सम्मान और उत्थान की योजनाओं- ‘महिला सम्मान’, ‘नारी गौरव’, ‘सुकन्या समृद्धि’- की बातें कहते हैं, फिर भी महिलाएं आखिर हाशिये पर क्यों हैं?

बीजेपी का यह रुख राज्य की सामंती व्यवस्था का सूचक है, जहां अब भी पुरुषों को प्राथमिकता दी जाती है। यहां तक कि जेडीयू जिन 16 सीटों पर चुनाव लड़ रहा है, उनमें महिलाओं को दो ही सीटें दी गई हैं।

1998 में पहली बार पेश किए जाने पर महिला आरक्षण विधेयक का विरोध करने वाली आरजेडी के इस लोकसभा चुनाव में 5-6 महिलाओं को मैदान में उतारे जाने की संभावना है। यह 1998 के रुख से एकदम अलग होगा जब पार्टी सांसद सुरेंद्र यादव ने तत्कालीन उप प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी के हाथों से प्रस्तावित विधेयक छीनकर फाड़ दिया था। आरजेडी ने पहले ही जमुई सीट के लिए अर्चना रविदास को पार्टी का चुनाव चिह्न दे दिया है जहां 19 अप्रैल को पहले चरण का मतदान होना है। वहीं बीमा भारती, रोहिणी आचार्य, मीसा भारती, अनीता देवी महतो और पूर्व सांसद और केंद्रीय मंत्री रहीं कांति सिंह की बहू को टिकट मिलने की भी संभावनाएं बनी हुई हैं।

कहां हैं ओबीसी?

बीजेपी की सूची में महिलाओं का न होना अकेली बड़ी चूक नहीं हैं। मैदान में उतारे गए 17 उम्मीदवारों में से 10 ऊंची जाति के पुरुष हैं। इनमें पांच राजपूत हैं जबकि पिछले साल राज्य में हुए जाति सर्वेक्षण के मुताबिक इनकी आबादी सिर्फ 3.45 फीसदी है। आबादी के हिसाब से राजपूतों से ज्यादा ब्राह्मण हैं जिन्हें बक्सर और दरभंगा की दो सीटें दी गई हैं। साफ है, अब भी बिहार में चुनाव की बात आने पर जाति महत्वपूर्ण हो जाती है। इस बार राज्य में 59 फीसदी बीजेपी उम्मीदवार ऊंची जातियों से हैं, जबकि वे आबादी के सिर्फ 15 फीसदी हैं।

जाहिर है, बीजेपी ने सीटों के बंटवारे में जाति सर्वेक्षण के नतीजों को नजरअंदाज कर दिया है। शायद बीजेपी अन्य जातियों का समर्थन हल्के में ले रही है। पर्यवेक्षकों का मानना है कि हालांकि पूरा राज्य वास्तव में जाति-ग्रस्त है, राजपूत, कोइरी और पासवान अन्य जातियों की तुलना में अधिक जाति-केन्द्रित हैं। उनका मानना है कि यादवों के लिए जाति संबद्धता से ज्यादा पार्टी संबद्धता मायने रखेगी।

आरजेडी की रणनीति स्पष्टतः यादवों, कोइरी और कुर्मियों के पुराने जातीय गठबंधन को जिंदा करने की है। इसी के तहत वह कुशवाहा समुदाय को लुभाने की कोशिश कर रही है जो 1930 के दशक में गठित त्रिवेणी संघ के दो अन्य समुदायों- कोइरी और कुर्मियों का प्रतिनिधित्व करता है। ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि लालू यादव इस विरासत को हथियाने के लिए गंभीर प्रयास कर रहे हैं।


शब्दों के जाल में फंसे सम्राट

बिहार बीजेपी अध्यक्ष और उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी अपने बिगड़े बोल के कारण खुद मुश्किल में फंस गए हैं। अपने पिता लालू यादव को रोहिणी आचार्य द्वारा किडनी देने के बदले लालू का उन्हें टिकट देने के आरोप पर लोगों में खासा गुस्सा है। अपने पति के साथ सिंगापुर में रहने वाली मेडिकल स्नातक रोहिणी ने प्रत्यारोपण के बाद काफी सद्भावना और पहचान अर्जित की थी। राजनीतिक गलियारों में अटकलें हैं कि उन्हें सारण निर्वाचन क्षेत्र में मौजूदा सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री राजीव प्रताप रूडी के खिलाफ मैदान में उतारा जा सकता है।

चौधरी की यह टिप्पणी लोगों को रास नहीं आई। इसने उन्हें उस समय की याद दिला दी जब पीएम मोदी ने तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के डीएनए पर सवाल उठाया था। इसमें हैरानी नहीं है कि बीजेपी और जेडीयू दोनों ने चौधरी की टिप्पणी से फौरन खुद को दूर कर लिया क्योंकि उन्हें पता है कि इसका उन्हें राजनीतिक खामियाजा भुगतना पड़ सकता है।

हालांकि ऐसा लगता है कि चौधरी को इसकी कीमत चुकानी पड़ी है। बीजेपी ने उम्मीदवारों के लिए उनकी सिफारिशों को नजरअंदाज कर दिया है। चौधरी वैसे भी विवादों में रहे हैं। उन्होंने कथित तौर पर अपनी उम्र और शैक्षणिक रिकॉर्ड के बारे में झूठे दावे किए और एक बार उन्हें विधान परिषद से अयोग्य घोषित कर दिया गया था।

पारस की परेशानी

हाल की ही बात है जब पूर्व केंद्रीय मंत्री पशुपति कुमार पारस पीएम मोदी के साथ घूम रहे थे। उन्हें पिछली कुछ रैलियों में पीएम के साथ मंच साझा करने का मौका दिया गया जिनमें उनके भतीजे चिराग पासवान मौजूद नहीं थे। राज्य में बीजेपी का चिराग के साथ गठबंधन कर लेना पारस के लिए जरूर एक करारा झटका रहा होगा। पारस रातोंरात राजनीतिक अछूत बन गए हैं। यहां तक कि पार्टी के वे सांसद भी उनका साथ छोड़ते नजर आ रहे हैं जो उनके बड़े भाई राम विलास पासवान के निधन के बाद उनके साथ थे। उनके साथ रहे उनके एक और भतीजे और पार्टी के समस्तीपुर से सांसद प्रिंस राज भी चिराग के पाले में चले गए हैं। रामविलास पासवान की पहली पत्नी के बच्चों को भड़काने की पारस की कोशिशें भी रंग नहीं लाईं।

क्या मंझधार से निकलेंगे मांझी?

बेचारे जीतन राम मांझी। वह अब तक तीन बार चुनाव लड़े और हर बार हारे। उन्होंने पहली बार 1991 में गया संसदीय सीट से कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा लेकिन हार गए। 2014 में उन्होंने जद(यू) से चुनाव लड़ा और तीसरे स्थान पर रहे। 2019 में  उन्होंने महागठबंधन के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा और 1.5 लाख वोटों से हार गए। क्या वह चौथी बार भाग्यशाली होंगे?


आरक्षित सीट से चुनाव लड़ने की हरी झंडी मिलने के बाद जब वह गया पहुंचे, तो भाजपा नेता अखौरी निरंजन ने उन्हें 2022 में उनके उस बयान की याद दिलाई कि भगवान राम कोई भगवान नहीं थे बल्कि तुलसीदास द्वारा बनाया गया एक काल्पनिक चरित्र था। स्पष्ट रूप से शर्मिंदा दिख रहे मांझी ने पूरे जोर से ‘जय श्रीराम’ का नारा लगाया लेकिन यह निरंजन को संतुष्ट करने के लिए काफी नहीं था। यह और बात है कि अपने उसी बयान से पीछे छुड़ाने के लिए वह अयोध्या गए ताकि मीडिया उसे कवर करे और उन्हें चूक को ‘सुधारने’ का मौका मिले।

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