महाराष्ट्र में बीजेपी की मात से झारखंड हीले, नीतीश हीले, हीले बिहार ला...

महाराष्ट्र में बीजेपी की हार की धमक सैकड़ों किलोमीटर दूर झारखंड और बिहार में सुनआई दे रही है। झारखंड में विधानसभा चुनाव का मौसम है और सहयोगियों के साथ ही पार्टी कार्यकर्ता भी परेशान हैं। वहीं बिहार का ‘डबल इंजन’ भी भाप छोड़ता नजर नहीं आ रहा है।

फोटो : आईएएनएस
फोटो : आईएएनएस

झारखंड में बिगड़ा बीजेपी का खेल

महाराष्ट्र का घटनाक्रम झारखंड चुनाव में भी बीजेपी को परेशान कर रहा है। बीजेपी के एक बड़े नेता ने आपसी बातचीत के दौरान कहा भी कि ‘महाराष्ट्र में सरकार बनाने की क्या जल्दी थी। क्या हो जाता, अगर शिवसेना को ही दो साल के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी दे दी जाती। अब देखिए। अजीत पवार के दम पर सरकार बनाई और कितनी किरकिरी हो गई। अब हम लोग क्या बोलें। प्रचार में जा रहे हैं, तो लोग यही सब पूछते हैं। अब देखिएगा, कहीं आजसू यही चाल न चल दे। तब और दिक्कत हो जाएगी।‘ वैसे, आजसू का मामला रोचक है- वह अब भी रघुवर सरकार में शामिल है लेकिन उसका बीजेपी से चुनावी गठबंधन नहीं है।

विपक्ष, स्वाभाविक ही, महाराष्ट्र के मुद्दे को जिलाए रखना चाहता है। जेएमएम-कांग्रेस-आरजेडी गठबंधनके नेता और पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन हर जनसभा में भी यह बात कह रहे हैं कि महाराष्ट्र के माहौल ने बता दिया है कि बीजेपी संविधान के प्रावधानों की परवाह नहीं करती। जनता इस तानाशाही रवैये से ऊब चुकी है। अब सबक सिखाने की बारी है। झारखंड के लोग महाराष्ट्र में संविधान की धज्जियां उड़ाने वालों को सबक सिखाएंगे। पूर्व मुख्यमंत्री बाबू लाल मरांडी, कांग्रेस के प्रदेश प्रभारी आर पी एन सिंह और दूसरे नेताओं ने भी अपने बयानों में महाराष्ट्र की राजनीतिक हलचल का उल्लेख करते हुए कहा कि बीजेपी ने वहां संविधान की हत्या करने की कोशिश की लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा नहीं होने दिया।

इधर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 3 दिसंबर को फिर झारखंड आने वाले हैं। उन्हें दूसरे चरण के प्रत्याशियों के समर्थन में चुनावी रैलियां करनी है। बीजेपी इन रैलियों को सफल बनाने की तैयारी में लगी है। पार्टी नेताओं को उम्मीद है कि अपने संबोधन के दौरान प्रधानमंत्री विपक्ष को जवाब देंगे। बहरहाल, बीजेपी अभी बैकफुट पर है। उनके नेताओं ने शायद ही यह सोचा हो कि महाराष्ट्र में खेली गई चाल उलटी पड़ जाएगी और इसका असर सैकड़ों किलोमीटर दूर झारखंड के चुनावों पर भी पड़ेगा।


वरिष्ठ पत्रकार मधुकर मानते हैं कि महाराष्ट्र की राजनीतिक हड़बड़ी ने बीजेपी को परेशानी में डाल दिया है। न केवल झारखंड बल्कि अगले साल होने वाले बिहार और दिल्ली विधानसभा के चुनावों में भी यह मुद्दा बीजेपी को परेशान करेगा। उन्हें जनता को जवाब देने में दिक्कतें होंगी। इसके साथ ही उनकी सहयोगी पार्टियां भी बीजेपी पर दबाव बनाएंगी। झारखंड में आजसू ने पहले ही आंखें तरेर ली है, अब बिहार में नीतीश कुमार भी ऐसा ही कुछ कर दें, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

वैसे महाराष्ट्र में बीजेपी के चारों खाने चित होने से पहले ही एनडीए के घटक दल बिहार में आंखें दिखा रहे हैं। लोक जनशक्ति पार्टी ने एनडीए में संयोजक की जरूरत बता दी है। एलजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चिराग पासवान ने कहा कि “महाराष्ट्र में शिवसेना ने बीजेपी के साथ चुनाव लड़ा लेकिन सरकार विरोधी पार्टियों के साथ मिलकर बनाई। बिहार में भी हम, आरएलएसीप जैसी पार्टियां एनडीए छोड़कर निकलीं। कई उदाहरण हैं। ऐसे में, एनडीए में संयोजक का पद जरूरी है।” उधर, बीजेपी के सरयू राय का झारखंड में टिकट कटा तो नीतीश कुमार ने संकेत दिए कि वह वहां राय का प्रचार करने जा सकते हैं।

बिहार में भी ‘डबल इंजन’ पर खतरा

एनडीए के अंदर खटपट की बातें बिहार में हर व्यक्ति मानता-करता है। अंदर-अंदर बीजेपी का कोई नेता नीतीश के रवैये से खुश नहीं। हां, उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी अपवाद हैं। सब जानते- कहते हैं कि सिर्फ जेडीयू कोटे के मंत्रियों की ही अफसर सुनते हैं। नगर विकास विभाग मंत्री सुरेश शर्मा समेत कई मंत्रियों को कई बार अफसरशाही ने दिखा दिया है कि नीतीश के अलावा किसी की सुनना उनकी मजबूरी नहीं है। कुछ महीने पहले जब पटना बारिश में डूबा तो नगर विकास मंत्री ने विभाग के प्रधान सचिव के इस्तीफे के बाद कहा कि वह उनकी नहीं सुनते थे। कुछ ही घंटे में उन्हें अपनी बात को ‘हल्का’ करने के लिए मजबूर कर दिया गया।

सुशील मोदी के अलावा स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय ही नीतीश के आसपास नजर आते हैं। लेकिन दो साल से वह भी ट्रांसफर-पोस्टिंग जैसे मुद्दे पर अपनी बात नहीं रख पा रहे। मंगल पांडेय भी, बस, किसी सेवा के उद्घाटन तक सिमटे हैं। बीजेपी के दिग्गज नंदकिशोर यादव पथ निर्माण मंत्री होकर भी अपने घर के सामने की सड़क नहीं बनवा सके हैं। उनके आवास के पास साल भर से सड़क खुदी है और वह इस पर बयान देने से बचते रहे हैं।


पलटना तो आता ही है

नीतीश सिद्धांतों की बात करने में माहिर हैं लेकिन उनका इतिहास बहुत कुछ कहता है। बिहार विधानसभा के पिछले चुनाव के समय नीतीश की पार्टी जेडीयू ने एनडीए को छोड़ा था। राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के सहयोग से नीतीश मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे भी लेकिन सिद्धांत बदलते हुए वापस एनडीए में चले गए। एनडीए में जाने पर भी दबाव की राजनीति नहीं छोड़ी। लोकसभा चुनाव के दौरान बिहार में बीजेपी से बराबर सीट छीन ली।

बीजेपी पर नीतीश का दबाव यहीं तक नहीं रहा। जेडीयू कोटे से तीन मंत्री की जिद पर केंद्र सरकार में शामिल नहीं हुए। बीजेपी ने कई बार ऑफर भी किया है। जेडीयू और बीजेपी में अगर खटपट बढ़ी तो नीतीश के साथ शिवसेना जैसी मजबूरी भी नहीं रहेगी। निकायों, बोर्डों, आयोगों के ज्यादातर पद भी आपसी सामंजस्य के अभाव में नीतीश ने नहीं भरे हैं। ऐसे में सुशील मोदी के इस बयान की कितनी अहमियत रह जाती है, यह हर व्यक्ति समझता हैः “बिहार में एनडीए में कोई परेशानी नहीं। समन्वय का कोई अभाव नहीं। यहां नीतीश मुख्य भूमिका में हैं और उन्हें एनडीए दलों के सामने जो बात रखनी होती है- सहज रखते हैं। कहीं कोई तनातनी नहीं है।”

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia