₹6,000 करोड़ और कोई रोकटोक नहीं: बीजेपी के हिस्से में आया 2024-25 में दिए गए राजनीतिक चंदे का 85 फीसदी हिस्सा
बीजेपी को मिला चंदा सभी विपक्षी पार्टियों को मिले चंदे से भी ज़्यादा है। इससे राजनीतिक दलों के बीच समान प्रतिस्पर्धा की बुनियाद पर ही सवाल खड़े होते हैं।

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पार्टी के कोषाध्यक्ष अजय माकन ने संसद से शीत सत्र में इस कहा था कि देश के चुनावी लोकतंत्र में एक बेहद चिंताजनक रुख देखने को मिल रहा है। उन्होंने कहा था कि सत्तारूढ़ बीजेपी के पास इस समय 10,107 करोड़ का भारी-भरकम बैंक बैलेंस है। उन्होंने तर्क दिया था कि इस तरह की भारी वित्तीय असमानता लोकतांत्रिक मुकाबले की बुनियाद पर ही चोट करती है, जो राजनीतिक पार्टियों के बीच समान अवसर पर आधारित है।
उनकी यह टिप्पणी ऐसे खुलासों के नजदीक ही सामने आई थी, जिनसे पता चलता है कि बीजेपी के पास न सिर्फ़ एक बहुत बड़ा फंड है, बल्कि उसने पिछले दो सालों में राजनीतिक चंदे का सबसे बड़ा हिस्सा भी हासिल किया है। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा चुनावी बॉन्ड योजना को असंवैधानिक बताकर रद्द करने के बाद भी उसे लगातार भारी-भरकम रकम मिलती रही है।
यह विडंबना ही है कि 2018 में शुरू की गई इलेक्टोरल बॉन्ड योजना को मोदी सरकार ने राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता बढ़ाने के एक तरीके के तौर पर पेश किया था। लेकिन इसके बजाय जो सामने आया, वह ठीक इसके विपरीत है। अभूतपूर्व अपारदर्शिता, चंदे पर कॉर्पोरेट का कब्ज़ा और एक ऐसा फंडिंग सिस्टम जो सत्ताधारी पार्टी के पक्ष में झुका हुआ है।
चुनाव आयोग द्वारा शुक्रवार को जारी किए गए नए डेटा के अनुसार, बीजेपी को 2024-25 में राजनीतिक चंदे के तौर पर 6,000 करोड़ रुपए से ज़्यादा मिले, जो 2023-24 के लगभग 4,000 करोड़ रुपए से काफी ज़्यादा है। इसके मुकाबले, मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस को इस दौरान महज़ ₹522 करोड़ मिले, जो बीजेपी को मिले चंदे के बारहवें हिस्से से भी कम है। चुनाव आयोग ने बीजेपी द्वारा दाखिल हिसाब-किताब के आधार पर जो आंकड़ा जारी किया है, उसमें 20,000 रुपए से ज़्यादा के चंदे की डिटेल दी गई है। कांग्रेस और दूसरे छह राजनीतिक दलों और इलेक्टोरल ट्रस्ट के ऐसे ही खुलासे पिछले महीने सार्वजनिक किए गए थे।
खास बात यह है कि 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले के साल में कुल राजनीतिक चंदे में बीजेपी का हिस्सा 56 फीसदी था, जो 2024-25 में बढ़कर 85 फीसदी हो गया है। चंदा देने वालों की सूची में सबसे ऊपर प्रूडेंट इलेक्टोरल ट्रस्ट है, जिसने बीजेपी को 2,181 करोड़ रुपए और कांग्रेस को 216 करोड़ रुपए दिए हैं। इस ट्रस्ट का सबसे बड़ा दानकर्ता एलएंडटी (लार्सन एंड टूब्रो) से जुड़ी एलिवेटेड एवेन्यू रियल्टी एलएलपी है, जिसने अकेले 500 करोड़ रुपए का योगदान दिया है।
दूसरा है प्रोग्रेसिव इलेक्टोरल ट्रस्ट, जिसने बीजेपी को 757.6 करोड़ रुपए और कांग्रेस को 77.3 करोड़ रुपए दान किए हैं। यह ट्रस्ट टाटा समूह द्वारा नियंत्रित है, जिसने सरकार की तरफ से मिलने वाली भारी सब्सिडी वाले सेमीकंडक्टर प्रोजेक्ट्स हासिल करने के कुछ हफ़्ते बाद बीजेपी को भारी चंदा दिया था। इस तरह टाटा समूह सत्ताधारी पार्टी को चंदा देने वाला सबसे बड़ा कॉर्पोरेट डोनर बन गया। तीसरा बड़ा दानकर्ता एबी जनरल ट्रस्ट है जिसने बीजेपी को 606 करोड़ रुपए और कांग्रेस को सिर्फ़ 15 करोड़ रुपए दान किए। हालांकि चुनाव आयोग ने अभी तक इस ट्रस्ट के दानकर्ताओं का खुलासा नहीं किया है, लेकिन यह ट्रस्ट पारंपरिक रूप से आदित्य बिड़ला ग्रुप से जुड़ा हुआ है।
इन खुलासों पर विपक्षी नेताओं, पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने कड़ी प्रतिक्रिया दी है, और वे इसे पॉलिटिकल फंडिंग में संस्थागत असंतुलन के और सबूत के तौर पर देख रहे हैं। राजनीतिक टिप्पणीकार राजू पुरुलेकर ने सोशल मीडिया पर एक पोस्ट में लिखा कि, "चुनावों की तरह, डोनेशन (वसूली?) में भी बीजेपी आगे है। 'फकीरों' की अगुवाई वाली 'अलग तरह की पार्टी' हजारों करोड़ की ज़मीन और दौलत जमा कर रही है - कोई इनकम टैक्स नहीं, कोई जांच नहीं, कोई छानबीन नहीं, कोई निगरानी नहीं।"
कांग्रेस प्रवक्ता डॉ. शमा मोहम्मद ने कहा कि इन खुलासों से विपक्ष के लंबे समय से लगाए जा रहे आरोपों की पुष्टि होती है। उन्होंने एक्स पर लिखा कि, “इलेक्टोरल बॉन्ड को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक घोषित कर दिया था और उन्हें खत्म कर दिया था। फिर भी, सरकारी एजेंसियों के ज़रिए फंड निकालने का बीजेपी का रैकेट जारी है। कंपनियों द्वारा इलेक्टोरल ट्रस्ट के ज़रिए दान किए गए ₹3,811 करोड़ में से, अकेले बीजेपी को ₹3,112 करोड़ मिले। यह साफ तौर पर बराबरी का मौका नहीं है।”
पत्रकार पीयूष राय ने कहा कि 2024 में टाटा ग्रुप के नियंत्रण वाले प्रोग्रेसिव इलेक्टोरल ट्रस्ट के ज़रिए भेजे गए ₹915 करोड़ में से लगभग 83 फीसदी बीजेपी को ही मिले।
कुल मिलाकर, यह भारतीय लोकतंत्र के सामने एक मौलिक सवाल खड़ा करता है कि क्या चुनाव तब भी स्वतंत्र और निष्पक्ष रह सकते हैं जब राजनीतिक फंडिंग सत्तारूढ़ पार्टी के पक्ष में इतनी ज़्यादा झुकी हुई हो?
विपक्ष की तरफ से देखें तो अजय माकन की चेतावनी सिर्फ़ आंकड़ों के बारे में नहीं है - यह लोकतांत्रिक प्रतिस्पर्धा के धीरे-धीरे खत्म होने के बारे में है, जहां वित्तीय ताकत, कॉर्पोरेट समर्थन और राज्य शक्ति एक साथ मिलती दिखती हैं, जिससे विपक्षी पार्टियों के लिए चुनावी समानता की बहुत कम गुंजाइश बचती है।
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