चौरीचौरा कांडः सरकार में शताब्दी वर्ष का जश्न, पर क्रांतिकारियों के परिजन बदहाल, दर्द सुनने वाला भी कोई नहीं
सरकार चौरीचौरा कांड का शताब्दी वर्ष मना रही है। लेकिन चौरीचौरा कांड के नायक अब्दुल्लाह की पौत्री सबरतुन्निशा समेत तमाम क्रांतिकारियों के परिवार गुमनामी और मुफलिसी की जिंदगी गुजार रहे हैं। उनके पास न तो घर है और न ही उन्हें कोई सरकारी मदद ही मिल रही है।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के अहम पड़ाव चौरीचौरा कांड के शताब्दी वर्ष पर उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने पूरे साल के लिए विभिन्न कार्यक्रमों की रूपरेखा तैयार की है। 4 फरवरी को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ चौरीचौरा में मौजूद थे, जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मादी ने कार्यक्रम को वर्चुअली संबोधित किया। वहीं, राज्यपाल आनंदी बेन पटेल भी इस कार्यक्रम में वर्चुअली मौजूद रहीं। इस कार्यक्रम को लेकर नेताओं की हेलीकॉप्टर लैंडिंग और स्वागत पर 15 लाख खर्च हो गए। लेकिन इसे बिडंबना ही कहा जाएगा कि जो क्रांतिकारी पुलिस फायरिंग में मारे गए और फांसी के फंदे पर झूले, उनके परिजनों का दर्द और उनकी सिसकियां सुनने की फुर्सत न तो सरकार को है, न ही कार्यक्रमों में मशगूल अफसरों को।
स्वतंत्रता आंदोलन में चौरीचौरा कांड महत्वपूर्ण घटना थी। वह असहयोग आंदोलन का दौर था। 4 फरवरी, 1922 को अहिंसक प्रदर्शनकारियों पर पुलिस वालों ने गोलियां चला दी थीं। प्रदर्शनकारी जब उग्र हो गए, तो 22 पुलिसकर्मी गोरखपुर से करीब 28 किलोमीटर दूर चौरीचौरा में एक पुलिस चौकी में आकर छिप गए। लेकिन क्रांतिकारियों ने चौकी में आग लगा दी और वे सभी पुलिसकर्मी जिंदा जलकर मर गए। इसी घटना को चौरीचौरा कांड के नाम से जाना जाता है। गांधीजी इस घटना से दुखी हो गए थे। उनका कहना था कि हिंसा होने के कारण असहयोग आंदोलन उपयुक्त नहीं रह गया है। इसी वजह से उन्होंने तब आंदोलन वापस ले लिया था। ब्रिटिश सरकार ने इस घटना के बाद 19 लोगों को पकड़कर फांसी दे दी थी।
केंद्र और यूपी की बीजेपी सरकारें अब चौरीचौरा कांड के शताब्दी समारोहों के जरिये राजनीतिक फायदा उठाना चाह रही हैं। लेकिन इतने वर्षों में इतनी बार केंद्र में और प्रदेश में भी सत्ता में रहने के बावजूद न तो बीजेपी और न अन्य दलों ने कभी इस ऐतिहासिक कांड से जुड़े लोगों के परिजनों की सुध ली। नौवीं विधानसभा के बाद कांग्रेस उत्तर प्रदेश में कभी सत्ता में नहीं रही। पर अंतिम बार वीर बहादुर सिंह के मुख्यमंत्री रहते समय ही इस दिशा में थोड़ा-बहुत काम हो पाया था।
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी झकरी के पौत्र बंधन कहार बताते हैं कि वीर बहादुर सिंह के प्रयास से दो दर्जन से अधिक परिवारों को पेंशन मिली। जिसके नाम से पेंशन शुरू हुई, उनके निधन के बाद सरकार आश्रितों को भूल गई। शहीद लाल मोहम्मद के प्रपौत्र नैतुद्दीन बताते हैं कि कल्याण सिंह ने मुख्यमंत्री रहते समय गोरखपुर जिला प्रशासन को भूमि दिलाने के लिए पत्र जारी किया था। लेकिन अफसर 22 किलोमीटर की दूरी तय कर गांव नहीं आ सके।
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी परिजन समिति के संयोजक राम नारायण त्रिपाठी बताते हैं कि चौरीचौरा की घटना के 60 साल बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 6 फरवरी, 1982 को क्रांतिकारियों की याद में शहीद स्मारक बनवाया था। 19 जुलाई, 1993 को इसका लोकार्पण तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव ने किया। शहीदों के परिवारों के लिए आवाज उठाने वाले पूर्व राज्यसभा सांसद आस मोहम्मद भी कहते हैं कि स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के परिवारों की आर्थिक स्थिति बेहद खराब है। शताब्दी वर्ष में खर्च होने वाली रकम के कुछ हिस्से से परिवारों की बड़ी मदद हो सकती है।
परिजनों की बेहाली
पूर्वांचल के गांधी के नाम से विख्यात क्रांतिकारी बाबा राघवदास के आग्रह पर महामना मदन मोहन मालवीय ने हाईकोर्ट में चौरीचौरा के क्रांतिकारियों के लिए केस लड़ा था। गोरखपुर यूनिवर्सिटी में इतिहास विभाग के प्राध्यापक डॉ. मनोज तिवारी बताते हैं कि अब्दुल्लाह चौरीचौरा कांड के नायक थे, इसलिए मुख्य मुकदमा अब्दुल्लाह और अन्य बनाम हुकूमत के नाम से चला था। अब्दुल्लाह की यादों को संजोने की कोशिश कर रहे एक निजी स्कूल में शिक्षक योगेंद्र यादव ‘जिज्ञासु’ बताते हैं कि 3 जुलाई, 1923 को अब्दुल्लाह को बाराबंकी जेल में फांसी दे दी गई थी।
अब्दुल्लाह की पौत्री सबरतुन्निशा चंद वर्ष पहले तक गांव राजधानी में चूड़ियां बेचकर जिंदगी का गुजारा कर रही थीं। अब वह मुरादाबाद में बेटियों के पास मजदूरों के लिए बने शेड में रहती हैं। वह बताती हैं, ‘अपनी दुश्वारियों को लेकर किस-किसको सफाई देती, ऐसे में गांव छोड़कर शौहर सहादन अली के साथ बेटी के पास मुरादाबाद चली आई।’ साठ की उम्र पूरी कर चुकीं सबरतुन्निशा कहती हैं, ‘अब्दुल्लाह की पौत्री के नाम पर आश्वासन खूब मिला। उम्मीद की दौड़ दिल्ली, लखनऊ से लेकर गोरखपुर के अफसरों के कार्यालयों तक हुई। आश्वासनों की मोटी फाइल को गांव की झोपड़ी में छोड़ बेटी के पास मुरादाबाद आ गई हूं।’
सबरतुन्निशा के तीन बेटे और चार बेटियां हैं। गांव में खेती-बाड़ी न होने से बेटे भी महानगरों में मजदूरी करने को मजबूर हैं। एक बेटा सौदागर अब भी गांव में ही चूड़ी बेचते हैं। सौदागर बताते हैं, ‘15 अगस्त, 26 जनवरी और चौरीचौरा कांड की बरसी पर परनाना का नाम लिया जाता है, लेकिन उनके परिजनों की सुविधाओं की सुधि लेने वाला कोई नहीं है।’
गुमटी लगाकर गुजारा
चौरीचौरा कांड में आठ वर्ष जेल की सजा काटने वाले गौस अली के बेटे नियाजुद्दीन अपने गांव डुमरीखुर्द में गुमटी चलाकर परिवार की गाड़ी खींच रहे हैं। पिता के निधन के बाद पेंशन बंद हुई तो परिवार चलाना मुश्किल हो गया। उनके पास न तो घर है और न ही उन्हें कोई सरकारी मदद मिली। नियाजुद्दीन कहते हैं, ‘शताब्दी वर्ष की पहल तो ठीक है, लेकिन सरकार शहीद और सजायाफ्ता सेनानी परिवार की गरीबी दूर करने की दिशा में भी काम करे। यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी।’ इलाहाबाद जेल में दो वर्ष की सजा काटने वाले झकरी के पौत्र बंधन कहार के पास भी एक इंच जमीन नहीं है।
नया इतिहास लिखने का प्रयास
गोरखपुर यूनिवर्सिटी में इतिहास विभाग के प्राध्यापक डॉ. मनोज तिवारी का मानना है कि स्वतंत्रता संग्राम सेनानी अब्दुल्लाह राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से बेहद प्रभावित थे। अब्दुल्लाह लगभग 40 साल की उम्र में कमाने के लिए अहमदाबाद चले गए थे। दिसंबर, 1921 में वहां कांग्रेस अधिवेशन में उन्होंने वॉलंटियर के रूप में मुस्लिम मेस में काम किया। लौटे तो असहयोग आंदोलन में चौरीचौरा के राजधानी मंडल के अध्यक्ष बने।
लेकिन गोरखपुर यूनिवर्सिटी में इतिहास विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. हिमांशु चतुर्वेदी इस संबंध में नए सिरे से इतिहास लेखन में जुटे हैं। वह बताते हैं कि चौरीचौरा को कांड नहीं, घटना कहा जाना चाहिए। वामपंथी और अंग्रेज इतिहासकारों के चलते आज स्कूल से लेकर यूनिवर्सिटी तक में चौरीचौरा को लेकर गलत तथ्यों को पढ़ाया जा रहा है।
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