परंपरागत ज्ञान की रक्षा की मुहिम: कृषि, बीज, जल, वन, वनस्पति को बचाने को लेकर चर्चा
इस प्रतिकूल स्थिति के बावजूद भी कई निष्ठावान व्यक्तियों और संगठनों ने परंपरागत ज्ञान की रक्षा की मुहिम चलाई हुई है। कुछ स्थानों पर इन प्रयासों के कारण परंपरागत बीज बचाने में सफलता मिली है, तो कुछ अन्य स्थानों पर पशुओं की देशीय नस्लों की रक्षा हो सकी है।

हाल ही में दिल्ली में ‘जलवायु बदलाव के संकट के समाधान में परंपरागत ज्ञान के महत्त्व’ पर स्वराज संवाद का आयोजन किया गया। इस संवाद का आयोजन राईज क्लाईमेट अलायंस और वागधारा द्वारा किया गया और इसमें देश के विभिन्न राज्यों से लगभग 500 प्रतिनिधियों ने भाग लिया।
इस संवाद के दौरान जो प्रस्तुतियां दी गईं उनमें यह बार-बार रेखांकित हुआ कि ग्रामीण समुदायों, विशेषकर आदिवासी समुदायों के पास जो परंपरागत ज्ञान कृषि, बीज, जल, वन, वनस्पति आदि क्षेत्रों में है यदि इसकी समुचित रक्षा और बेहतर उपयोग हो सके तो इससे टिकाऊ आजीविका की उपलब्धि, ग्रामीण समुदायों का सशक्तीकरण और जलवायु बदलाव के संकट का सामना एक साथ हो सकेगा। इस परंपरागत ज्ञान के बेहतर उपयोग से किसानों की बाहरी निर्भरता और खर्च कम होंगे और किसान को बढ़ते खर्च और कर्ज से राहत मिलेगी। आत्म निर्भरता की राह अपनाने से गांव में फॉसिल फ्यूल (रासायनिक खाद, कीटनाशक, डीजल आदि के रूप में) का दबाव कम होगा। मिट्टी संरक्षण और वनीकरण से कार्बन सोखने की क्षमता बढ़ेगी। जल-संरक्षण से, खेती कम खर्चीली होने से और स्थानीय बीज होने से प्रतिकूल मौसम का सामना बेहतर ढंग से हो सकेगा।
हाल के वर्षों में कृषि, पशुपालन, दस्तकारी और कुटीर उद्योगों जैसी महत्त्वपूर्ण आजीविकाओं के बेहद समृद्ध परंपरागत ज्ञान का तेजी से ह्रास हो रहा है। इस परंपरागत ज्ञान में हमारी जलवायु और भौगोलिक परिस्थितियों के अनुकूल ऐसी जानकारी और समझ है जो अन्यत्र कहीं मिल नहीं सकती है। अतः समय रहते इस परंपरागत ज्ञान की रक्षा करना जरूरी है। पहले ही बहुत देर हो चुकी है। अब और देर नहीं होनी चाहिए।
इन परंपरागत बीजों को पिछले लगभग पांच-छः हजार वर्षों के दौरान की अनेकोनेक पीढ़ियों के किसानों ने तैयार किया। प्रत्येक पीढ़ी के किसान अलग-अलग भूमि और तरह-तरह के मौसम के अनुकूल जिस बीज या किस्म का ज्ञान प्राप्त करते थे, वह अगली पीढ़ी को दे जाते थे। यह कई पीढ़ियों के संग्रहित ज्ञान का ही प्रताप था कि जब डा. आर. एच. रिछारिया ने छत्तीसगढ़ व मध्य प्रदेश में विशेषकर आदिवासियों द्वारा बोई जाने वाली धान की किस्मों की जानकारी एकत्र की, तो वे लगभग 17000 धान की किस्मों और उप-किस्मों का दस्तावेजीकरण कर सके।
विभिन्न परंपरागत बीजों और किस्मों से बेहतर से बेहतर फसल प्राप्त करने की बहुत सी अन्य परंपरागत जानकारी भी जुड़ी थी जैसे जुताई और बुवाई की जानकारी, मिश्रित खेती और उचित फसल चक्र की जानकारी, सिंचाई, खरपतवार का नियंत्रण, हानिकारक कीड़ों व बीमारियों से बचाव, प्रतिकूल मौसम से बचाव, सुरक्षित भंडारण आदि की जानकारी। परंपरागत बीजों की उपेक्षा के साथ इन सब जानकारियों का भी ह्रास होने लगा। यह सब जानकारियां सस्ती खेती, आत्म-निर्भर खेती और पर्यावरण की रक्षा के अनुकूल कृषि से जुड़ी थी। इसके स्थान पर रासायनिक खाद, कीटनाशक दवा, खरपतवार नाशक आदि का प्रचार किया गया। यह पैकेज बहुत महंगा था। इससे किसान की आत्म-निर्भरता कम हुई और पर्यावरण की गंभीर क्षति हुई।
दस्तकारियों और हस्तशिल्प की दृष्टि से हमारा देश बहुत समृद्ध रहा है। इनके लिए स्थानीय बाजार और निर्यात बाजार दोनों स्तरों पर आज भी मांग है और इसके आधार पर करोड़ों रुपए के व्यवसाय भी पनप रहे हैं। इसके बावजूद विभिन्न दस्तकारियों और हस्तशिल्प का परंपरागत ज्ञान तेजी से लुप्त हो रहा है। निर्यात से जुड़े व्यवसाय में जहां करोड़ों रुपए कमाए जा रहे हैं, वहां भी वास्तविक दस्तकार की हालत चिंताजनक है।
काफी हद तक यही वजह है कि जिस तरह पहले अगली पीढ़ी को हुनर सिखाने की परंपरा थी, वह अब लुप्त हो रही है। यदि हैंडलूम जुलाहे दिन-भर मेहनत कर परिवार को दो वक्त रोटी भी नहीं खिला पाएंगे, तो हुनर सीखने और सिखाने का उत्साह कैसे रह जाएगा।
इस प्रतिकूल स्थिति के बावजूद भी कई निष्ठावान व्यक्तियों और संगठनों ने परंपरागत ज्ञान की रक्षा की मुहिम चलाई हुई है। कुछ स्थानों पर इन प्रयासों के कारण परंपरागत बीज बचाने में सफलता मिली है, तो कुछ अन्य स्थानों पर पशुओं की देशीय नस्लों की रक्षा हो सकी है। इन प्रयासों को और व्यापक बनाना चाहिए।
इस संदर्भ में यह बहुत सार्थक रहा कि देश भर के लगभग 500 प्रतिनिधियों ने हाल के दिल्ली में आयोजित संवाद के अंतर्गत परंपरागत ज्ञान को समृद्ध करने और इसका उपयोग के लिए विमर्श किया। इस संवाद में उपस्थित कृषि वैज्ञानिकों ने बताया कि उनके बहुत से प्रयास पूरी सफलता प्राप्त नहीं करते हैं क्योंकि उनके साथ ग्रामीण समुदायों का नजदीकी विमर्श नहीं जुड़ा होता है। यदि कृषि वैज्ञानिकों और ग्रामीण समुदायों में नजदीकी संबंध और विमर्श होंगे तो समुदायों की जरूरतों की बेहतर समझ से वैज्ञानिक कार्य करेंगे तथा फिर समुदाय भी इस कार्य को आगे ले जाने में मदद करेंगे।
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia