गुफाएं जो थोड़े ही समय में गुलामी संरक्षित लगने लगती हैं
गुफा निवास ने कई सवाल खड़े किए। व्यवस्था के नाम पर खड़ी की गई गुफाएं मानस पटल पर उभरने लगीं। अपनी गुफा को पहचानना कठिन होता है। दूसरों की गुफा सहज ही नजर आती है। महिला का गुफा में रहना तमाम स्थापित गुफाओं को चुनौती दे गया।

कर्नाटक के गोकर्णा में एक विदेशी महिला का केव (गुफा) में अपनी बेटियों के साथ रहना काफी सुर्खियों में रहा। कई सवाल खड़े हुए। वे कैसे रहते थे? क्या खाते थे? जंगल में रहना कितना असुरक्षित था? किसी राष्ट्र में नियत समय सीमा के बाद रहना कानूनी उल्लंघन है। उनके निजी रिश्ते और निजत्व को बहुत उछाला गया। इस विषय में कोई राय कायम करना इस आलेख का मकसद नहीं। यह भी संभव है कि मामले के तह तक जाने से कुछ नई पेचिदगियां सामने आएंगी।
गुफा निवास ने कई सवाल खड़े किए। व्यवस्था के नाम पर खड़ी की गई गुफाएं मानस पटल पर उभरने लगीं। अपनी गुफा को पहचानना कठिन होता है। दूसरों की गुफा सहज ही नजर आती है। महिला का गुफा में रहना तमाम स्थापित गुफाओं को चुनौती दे गया। विकास की अवधारणा जिसमें पर्यावरण और नागरिक समाज दो विलग खाकों के रूप में संस्थापित हुए हैं। जहां यह स्मरण नहीं रहा कि मानव उस प्रकृति का अभिन्न हिस्सा और उसी की व्युत्पत्ति है। मानव पर्यावरण का हिस्सा होकर जीवन बिता सकता है। पर्यावरण उसकी पाठशाला, पाकशाला हो सकती है। वह मानव उत्क्रांति (धीरे-धीरे होने वाला परिवर्तन) के चंद हजार साल छोड़कर ऐसे ही रहा है। क्या खेती और औद्योगिक क्रांति द्वारा दी गई तथाकथित आधुनिक विकास व्यवस्था किसी गुफा से कम अंधकारमय, तंग नहीं? फिर इस विकास गुफा से उपजी विषमता कौन-सी कम अंधाकरमय है?
किसी विचार को बिना सवाल उठाए मानते जाना पारंपरिक रूढ़ि है। पिछली कितनी ही शताब्दी से हमने पाश्चात्य जगत में चंद सौ साल पहले हुई औद्योगिक क्रांति से उपजी जीवन शैली को प्रश्नों से परे मान लिया। यह भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं। किसी फलस्फे का अंधानुकरण तमाम मजहबी अंधविश्वास के मानिंद है। वह भी गुफा है।
महिला ने निकलकर नागरिक समाज की गुफाओं को पहचाना। ठीक वैसे ही जैसे हमें उनकी गुफा दिखाई पड़ी। चूंकि उनकी जीवन शैली में बहुत-सी गुफाओं का प्रतिकार और खुला विद्रोह नजर आया, तो गुफा सरंक्षक जागने लगे। इन गुफाओं के बिना उनका नियंत्रण जाता रहेगा। बाजार, प्रशासन, पुलिस, मुद्रा, राष्ट्र-राज्य, सेना-सीमा सबको धता बताकर कोई कैसे रह सकता है? ऐसा सब करने लगेंगे, तो क्या होगा? नियंत्रणवादिता पर आधारित तमाम व्यवस्था की इमारतें ढहने लगेंगी।
खासतौर पर तब जब दुनियाभर में पूंजी, सत्ता और मजहबी पुरोहिताई का पदानुक्रम अपना गठजोड़ बनाकर हुकूमत करना चाहते हों। वहां लोक आस्था, लोक संपर्क और आदान-प्रदान, लोक सत्ता की छोटी किरण दिखाई पड़ जाए, तो गुफा मालिकों को चेत जाना चाहिए। भले ही वह कोशिश बहुत सुलझी, सार्थक, सकारात्मक न लगे। तब भी उस से सोची-समझी सकारात्मक, वैकल्पिक रचना खड़ी होने की संभावना तो बनती है। आखिर, हर सकारात्मक विचार व्यवस्था की शुरुआत किसी अनगढ़ सनक से होती है।
आश्चर्य है कि वैकल्पिक, निजी गैर राष्ट्र-राजकीय क्रिप्टो मुद्रा, निरेश्वरवाद, सीमाओं के पार जोड़ते इंटरनेट और मानव मनीषा के समकक्ष उभरती कृत्रिम-मेधा को इतनी मुस्तैदी से कुचलने का प्रयास नहीं हुआ। शायद इसलिए कि वे मौजूदा गुफाओं में समा सकती है या उनका नया संस्करण बन सकती है।
यह पूंजी-बाजार के दम पर मुनासिब हो सकता है। जैसे पूंजी बाजार के दम पर ही आदिवासी गांव खदेड़े जाते हैं। आदिवासियत को बाकी तंत्रों से कुचलने का प्रयास होता है। इस पूंजीवादी बाजारी नियंत्रण के बिना मानव बसाहट बहुत बड़ा खतरा है। तमाम राजद्रोह के मामलों की पड़ताल करें, तो ज्यादातर के मूल में बाजारद्रोह है। बाजार पर काबिज, राज्य का सूत्र संचालन करते हैं। सो, उन्हें यह बर्दाश्त नहीं।
इसकी बहुत संभावना है कि इस कथित प्रसंग में मनोवैज्ञानिक अस्वस्थता रही हो। मगर व्यवस्था की प्रतिक्रिया में भी कोई मानवोचित चिंता, करुणा आदि दिखाई नहीं पड़ी। सरकारी प्रक्रियाएं पूरी करने और पड़ताल की गरज जरूरी थी, ताकि गुफा का कायदा चूक न जाए। तब यह भी सवाल उठता है कि क्या किसी स्त्री का गुफा में रहकर जीवन बिताना पितृसत्ता को नागवार गुजरा। पितृसत्ता की लक्ष्मण रेखा के भीतर की गुफा से कोई निकला और उसने अपना एक संसार रचा, तो वह अखरा। आखिर वह तो मात्र पुरुष का क्षेत्र है। उसे अपना क्षेत्र खड़ा करने की इजाजत मिलनी नहीं चाहिए।
प्रसिद्ध दार्शनिक प्लूटो का गुफा फलस्फा याद हो आया। जहां पूरा कुनबा गुफा में रहता था। गुफा में पड़ती रोशनी से जो परछाईयां बनती थीं, उसी को संसार समझता था। शायद सत्य भी। फिर किसी ने साहस करके बाहर जाना तय किया। तब गुफा से बाहर निकलना मुश्किल था। गुफा की अभ्यस्त आंखों को कुछ और देखने की आदत नहीं रह गई थी। वह उसी से संसार भी देखने लगा। पर फिर धीरे-धीरे बदलाव हुआ। बहुत कुछ दिखाई पड़ने लगा। जब वह वापस लौटा, तो लौटना अपने आप में मुश्किल था। अपने साथियों को यकीन दिलाना कि परछाई से पार कुछ है। अत्यंत कठिन काम था। उनको बाहर निकालना लगभग नामुमकिन। यहां तक कि खुद का बाहर पुनः निकलना भी तकलीफदेह था। गुफाएं ऐसी ही होती हैं कि थोड़े समय में गुलामी सुरक्षित लगने लगती हैं। किसी और की गुफा से अपनी गुफा शायद नजर भी आ जाए, पर गुफा में बैठे रहने से वह नजर भी नहीं आती।
बरसों पहले सैपियन्स गुफाओं की कंदराओं से निकलकर चल पड़े। तब कहीं जाने पर कोई रोक नहीं थी। लेकिन क्या सैपियन्स का काम बिना गुफा के नहीं चल सकता था? क्या तभी कुछ नई गुफाएं बना डालीं!
राष्ट्र-राज्य, बाजार पूंजी, पितृसत्ता ईश्वरीय यंत्रणा का पदानुक्रम, विकास और न जाने क्या-क्या? सैपियन्स मात्र के लिए नहीं, किसी भी प्राणी के टिके रहने के लिए उसकी अनुकूलन क्षमता और लचीलापन जरूरी माना गया है। यह डारविन का सिद्धांत है। आज यह भी साबित हुआ कि व्यक्तिगत परमार्थ और सामूहिक सौहार्द किसी प्रजाति को चिरजीवी करता है। माने, स्वार्थ के तिलिस्म को कितना ही बढ़ाएं, वह आत्मघाती है। जरूरत तो पूरी हो सकती है, पर दोहन के लिए कोई प्रावधान नहीं है। सैपियन्स माने हमें यह सबब याद रखने योग्य है।