तलवार की धार पर मणिपुर: केंद्र और बीजेपी की सारी कोशिशें नाकाम, अमित शाह का दौरा भी नहीं रोक पा रहा हिंसा

मणिपुर में सुरक्षाबलों की तैनाती के बावजूद हिंसा जारी है। मंगलवार को राज्य के सेरौ इलाके में हुई गोलीबारी में बीएसएफ का एक जवान शहीद हो गया। इसके अलावा असम राइफल्स के दो जवानों को भी गोली लगी है। आखिर क्यों सुलग रहा है उत्तर पूर्व का यह राज्य?

मणिपुर में सुरक्षा बलों का भारी तैनाती है, फिर भी कई जगह से हिंसा की खबरें लगातार आ रही हैं (फोटो : Getty Images)
मणिपुर में सुरक्षा बलों का भारी तैनाती है, फिर भी कई जगह से हिंसा की खबरें लगातार आ रही हैं (फोटो : Getty Images)
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पैट्रीशिया मुखिम

इस साल फरवरी में मणिपुर ने जी-20 प्रतिनिधियों की एक बैठक की मेजबानी की। मार्च में इसने अपने पहले अंतरराष्ट्रीय फुटबॉल टूर्नामेंट की मेजबानी की और अप्रैल में मिस इंडिया पेजेंट का ग्रैंड फिनाले भी यहीं हुआ। लेकिन मई में यहां उपद्रव शुरू हो गया। आधिकारिक तौर पर हिंसा में 90 लोग मारे जा चुके हैं। चार हजार घरों को आग लगा दी गई, 250 चर्चों को जला दिया गया, 35,000 लोग विस्थापित हो गए और 1,200 गांवों के लोग अपने घर-बार छोड़कर कथित तौर पर भाग चुके हैं।

शर्तिया यह केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह का अब तक का सबसे बड़ा इम्तेहान है। मणिपुर में जो हिंसा का आलम है, उसकी सबसे ज्यादा जिम्मेदारी खुद उनके मंत्रालय और राज्य की बीजेपी सरकार की है। जबकि मुख्यमंत्री बीरेन सिंह खुद अमित शाह के साथ पहाड़ियों के दौरे पर नहीं गए, कुकी विधायकों ने इम्फाल आने या मुख्यमंत्री के साथ बैठक करने को इनकार कर दिया।

वहां बड़ा अलगाव दिख रहा है और भरोसे की जितनी कमी दिख रही है, वास्तव में उससे कहीं छुरछंदपुर में जब केंद्रीय गृह मंत्री ने सामान्य स्थिति बहाल करने के लिए राज्य में 15 दिनों की शांति का आश्वासन मांगा, तो इंडिजेनस ट्राइबल लीडर्स फोरम (आईटीएलएफ) के महासचिव मुआन टॉमबिंग ने उन्हें दो टूक कहा कि कुकी के पास लाइसेंस वाले हथियार हैं जबकि मैतेई के पास नहीं। 

अप्रैल में उग्रवादी मैतेई समूह के प्रमुख मैतेई लिपुन ने सोशल मीडिया पर लिखा, ‘जंगलों को काट दो, नदियों को सुखा दो, उन्हें खत्म कर दो... आओ हम पहाड़ियों पर अपने पारंपरिक प्रतिद्वंद्वी का सफाया करें और उसके बाद शांति से रहें’। हालांकि उनके या फिर 3-4 मई को उग्रवादियों को हथियार देने वाले पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई।अधिक है।


जब अमित शाह 29 मई को संघर्षरत मणिपुर गए तो इम्फाल में उनका स्वागत करने वाले बैनरों से उनका सामना हुआ। उनसे नहीं पूछा गया कि ऐसे समय जब राज्य हिंसा, आगजनी की चपेट में है और बड़े पैमाने पर जान-माल की हानि हो रही है, तब गृह मंत्री एक माह से क्यों गायब थे? क्या इसलिए कि कानून और व्यवस्था राज्य का विषय है? लोग जरूर इस तरह के सवाल करते रहे कि डबल इंजन की सरकार का क्या हुआ लेकिन मीडिया ने अमित शाह से यह नहीं पूछा। भारी सुरक्षा और खुफिया नेटवर्क का क्या हुआ जो इंफाल घाटी जैसे छोटे से इलाके में हिंसा रोकने में विफल रहा?

जब अमित शाह ने 31 मई को कांगपोकपी और छुरछंदपुर सहित अन्य पहाड़ियों का दौरा किया, कुकी गांवों में आग लगाई जा रही थी और इम्फाल में मुख्यमंत्री मैतेई लोगों से कर्फ्यू का उल्लंघन नहीं करने और सड़कों को जाम नहीं करने की अपील कर रहे थे। इंटरनेट प्रतिबंध 5 जून तक बढ़ा दिया गया था। हालात को काबू करने में सुरक्षा बलों की विफलता के कारण बड़ी संख्या में कुकी-चिन जनजातियों के लोग मिजोरम, मेघालय की राजधानी शिलांग समेत विभिन्न इलाकों पर अपने रिश्तेदारों के यहां शरण ले रहे थे।

इन लोगों का मानना है कि यह सब मुख्यमंत्री बीरेन सिंह की मिलीभगत से हुआ। मणिपुर की पहाड़ियों में अफीम की खेती पर प्रेजेंटेशन देते हुए उन्होंने बीड़ा उठाया था कि अफीम उगाने वालों के खिलाफ ‘युद्ध छेड़ेंगे’। मुख्यमंत्री ने अपने फेसबुक पेज पर कुकी को ‘जंगली’ और अवैध प्रवासी कहा। इसमें कोई संदेह नहीं है कि उन्होंने मैतेई लोगों को भड़काया और कबीलों को अलग-थलग कर दिया। वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप फंजौबम ने ऑन रिकॉर्ड कहा था कि मार्च, 2022 में सीएम के रूप में अपने दूसरे कार्यकाल के बाद से बीरेन सिंह ने बिना परामर्श के कठोर नीतियों को आगे बढ़ाया और वह ‘घमंडी’ हो गए हैं। 

म्यांमार में चल रहे गृहयुद्ध ने स्थिति को और जटिल बना दिया है। वहां के सैन्य जुंटा द्वारा सताए गए लोग म्यांमार से भागकर मिजोरम और मणिपुर आ गए हैं जहां उनकी रिश्तेदारी है या फिर उनसे सहानुभूति रखने वाले लोग हैं। कुकी लोगों को लगता है कि वे शरणार्थियों को मानवीय सहायता और आश्रय देने के लिए बाध्य हैं। लेकिन बीरेन सिंह के सभी अवैध प्रवासियों को बाहर निकालने के कड़े आह्वान ने आक्रोश और भय पैदा कर दिया है।


कुछ पर्यवेक्षकों का मानना है कि मणिपुर में यह केवल कानून और व्यवस्था की चरमराती स्थिति नहीं है। दोनों गुटों को आधुनिक हथियार और गोला-बारूद की आसान उपलब्धता ने उन्हें एक-दूसरे पर हमला करने के लिए प्रोत्साहित किया है। इन पर्यवेक्षकों को लगता है कि यह ‘गृहयुद्ध’ है। 

अरमबई टेंगोल और मैतेई लिपम जैसे मैतेई चरमपंथी संगठनों ने कथित तौर पर इंफाल पुलिस प्रशिक्षण केन्द्र पर छापा मारा और हथियार लूट लिए। अब कहा जाता है कि हथियार वास्तव में उन्हें दिए गए थे। सामान्य परिस्थितियों में केन्द्र सरकार मणिपुर के मुख्यमंत्री से इस्तीफा लेकर वहां अनुच्छेद 356 (राष्ट्रपति शासन) लगाकर स्थिति को अपने नियंत्रण में ले लेती। लेकिन राजनीतिक कारणों से वे बीरेन सिंह को पद पर बनाए रखना चाहते हैं। 

मणिपुर में हालात गंभीर हैं और ‘सामान्य स्थिति’ या ‘शांति’ जैसे शब्द दूर की कौड़ी लगते हैं। विश्वास का संकट इतना गहरा है कि केन्द्रीय गृह मंत्री से यह उम्मीद करना नासमझी होगी कि उनकी यात्रा भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक और शारीरिक घावों को भरने वाली मरहम साबित होगी। पीड़ितों के पुनर्वास और उन्हें सामान्य जीवन शुरू करने में मदद की चुनौती बहुत बड़ी है।

पहाड़ी लोगों का कहना है कि वे अब अपने मैतेई पड़ोसियों पर भरोसा नहीं कर सकते कि वे भविष्य में उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचाएंगे। दूसरी ओर, पहाड़ियों में बसे मैतेई समुदाय में भी यही भाव है। क्या वे अब एक ही राज्य में एक ही व्यवस्था के तहत फिर से एक साथ रह सकते हैं? क्या इंफाल से भागे हुए कुकी वापस आ सकते हैं? क्या पहाड़ियों से भागे मैतेई कभी उन्हीं मिश्रित गांवों में लौट सकते हैं?

मणिपुर छोटा राज्य है और इसे गंभीर आर्थिक परिणामों के बिना विभाजित नहीं किया जा सकता है। जो अधिक व्यावहारिक और संभव प्रतीत होता है, वह है आदिवासियों को स्वशासन की स्वायत्तता प्रदान करना। गैर-आदिवासी बहुसंख्यक राज्यों में रहने वाले अल्पसंख्यक आदिवासियों ने हमेशा संविधान के तहत छठी अनुसूची की स्थिति की मांग की है जो उन्हें अपनी गति से विकास करने का अधिकार देता है, न कि उनके प्रथागत अधिकारों और प्रथाओं के विरोध में। कई राज्यों में पहले से ही यह व्यवस्था है और यह एक ऐसा विकल्प है जिसे मणिपुर की पहाड़ी जनजातियां अब पहले से कहीं अधिक चाहती हैं।


मेघालय में संविधान की छठी अनुसूची के तहत जिला परिषदें बनी हुई हैं, भले ही राज्य में आदिवासी बहुमत का शासन हो। असम में दीमा हसाओ, कार्बी आंगलोंग, पश्चिम कार्बी और बोडो प्रादेशिक क्षेत्र के पहाड़ी जिले भी कुछ हद तक स्वायत्त हैं और सबसे बड़ी बात, अपने यहां की कानून और व्यवस्था पर नियंत्रण रखते हैं।

छठी अनुसूची के तहत बोडो प्रादेशिक क्षेत्र में बोडोलैंड विश्वविद्यालय और अन्य तकनीकी संस्थानों सहित ज्ञान के अधिक संस्थानों के साथ बेहतर प्रगति देखी गई है। मणिपुर की पहाड़ियों- चाहे नगा आबादी वाले क्षेत्रों की बात हो या कुकी-चिन क्षेत्रों की, वहां उच्च शिक्षा के इक्का-दुक्का संस्थान हैं या फिर एक भी नहीं। छुरछंदपुर में मेडिकल कॉलेज है तो वह वित्तीय और मानव संसाधन की बाधाओं से पीड़ित है। 

अनुच्छेद 371 (सी) पहाड़ी क्षेत्र परिषदों (एचएसी) के निर्माण को अनिवार्य करता है लेकिन इसे अक्षरशः लागू नहीं किया गया है। मणिपुर में राज्य सरकार कभी भी एचएसी के साथ सत्ता साझा करने की इच्छुक नहीं रही है, इसलिए परिषदों  को सीमित वित्तीय संसाधनों या प्रशासनिक अधिकार के साथ काम करना पड़ता है। यह आदिवासियों को राज्य सरकार पर निर्भर रखने की एक सोची समझी चाल है, भले पहाड़ियों के लिए आवंटित संसाधन कम ही क्यों न हों।

अफीम की खेती मणिपुर में एक बड़ा खतरा बन गई है क्योंकि इसने दोनों ही समुदायों की कम-से-कम दो पीढ़ियों को बर्बाद कर दिया है और इस समस्या से एक वैकल्पिक आर्थिक मॉडल के माध्यम से ही निपटा जा सकता है। अफीम उत्पादकों को समय चाहिए ताकि वे अफीम की खेती को छोड़कर कुछ वैसी खेती कर सकें जिससे उन्हें पैसे भी मिलें और पीढ़ियां भी बर्बाद न हों। यह कैसे किया जा सकता है, यह पहाड़ी विधायकों को संक्षिप्त में बताना चाहिए।

विभिन्न उग्रवादी संगठनों के साथ सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशन (एसओओ) समझौते पर भी फिर से विचार करने की जरूरत है। हथियार उठाने वाले इन युवाओं को मुख्यधारा में वापस लाने पर वास्तव में कितना खर्च किया गया है? उन्हें जबरन वसूली और आसान पैसे की जीवनशैली से मनोवैज्ञानिक रूप से छुड़ाने और जीने के लिए पसीना बहाने के लिए राजी करने की जरूरत है। अफसोस की बात है कि एक के बाद एक सरकारों ने इन बेकार के समझौतों पर हस्ताक्षर करके ही संतुष्ट हो गईं और उन्होंने यह सुनिश्चित नहीं किया कि ये उग्रवादी गुट सरकार के सामने अपने हथियार समर्पण करें। 

मणिपुर में प्रशासन नाम की कोई चीज नहीं रह गई है और सबसे पहली जरूरत तो इसे दुरुस्त करने की है। तड़क-भड़क वाले कार्यक्रम आयोजित करना और राजनीतिक बयानबाजी भर से यहां काम नहीं चलने वाला। 

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