प्रतिद्वंद्वी शक्ति के रूप में उभरते भारत को लेकर हमेशा आशंकित रहा है चीन, ‘गलवान हमला’ इसी का नतीजा तो नहीं!

लद्दाख का संकट गंभीर है क्योंकि यह 1993 से राजनयिकों द्वारा बहुत मुश्किल से तैयार किए गए समझौतों का अंत है। सेना के पूर्व वरिष्ठ अधिकारी इस बात पर आश्चर्य जताते हैं कि उन दावों को क्या हुआ जिनमें कहा जाता था कि सेना दो मोर्चों पर एक साथ युद्ध लड़ने को तैयार है।

फोटो: सोशल मीडिया
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पूर्व विदेश सचिव निरुपमा राव ने जून के दूसरे हफ्ते में टूवीट किया। चीन-भारत संबंधों में मुसीबत आने जा रही है। राव बीजिंग में भारत की राजदूत रह चुकी हैं। उन्होंने चीनियों को लेकर कुछ कड़ी बातें भी कहीं। उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि वे लोग बराबर ‘अपने को पीड़ित पक्ष के तौर पर पेश करते हैं और बुरे नतीजों के लिए प्रतिद्वंद्वीपक्ष पर आरोप लगाते हैं। इस काले वक्त में बहाया गया रक्त बहुत ही दुखद त्रासदी है। 1976 से सामान्य स्थिति बहाल करने के प्रयास शून्य हो गए हैं।’

लद्दाख का संकट गंभीर है क्योंकि यह 1993 से राजनयिकों द्वारा बहुत मुश्किल से तैयार किए गए समझौतों का अंत है। सेना के पूर्व वरिष्ठ अधिकारी इस बात पर आश्चर्य जताते हैं कि उन दावों को क्या हुआ जिनमें कहा जाता था कि सेना दो मोर्चों पर एक साथ युद्ध लड़ने को तैयार है। सेना के कमांडर यह बात औपचारिक तौर पर कहते रहे हैं कि जब भी राजनीतिक नेतृत्व आदेश देगा, हम कभी भी पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) पर कब्जा कर सकते हैं। देश पूरी तरह सेना के साथ है और इस वक्त वो बातें याद की जा रही हैं ।


अब जो बातें सामने आ रही हैं, उससे लगता है कि लद्दाख के गलवान घाटी में चीनी सेना का जमावड़ा कम-से-कम आठ महीने पहले शुरू हो गया था। और अब यह भी स्पष्ट है कि चीनी सेना को भारतीय क्षेत्र पर कब्जा करने के निर्देश मिल हुए थे। यह दोनों देशों के बीच 1993 में हस्ताक्षर किए गए शांति और सद्भाव के समझौतों को नकारना था और इस सहमति की भी अनदेखी थी कि दोनों में से कोई भी पक्ष हालात को बिगड़ने नहीं देगा। तब, हमें क्यों हतप्रभ रह जाना पड़ा? और क्या हमारे 20 सैनिकों की शहादत जरूरी थी?

कई विश्लेषकों ने निरुपमा राव की निराशा से सहमति जताई है लेकिन वे कहते हैं कि वे आश्चर्यचकित नहीं हैं। एक पोडकास्ट में कार्नेगी एंडोमेन्टके एशले टेलिस ने इतिहासकार श्रीनाथ राघवन से कहा कि चीन को लुभाने के भारतीय प्रयासों को वरिष्ठ चीनी अधिकारी बराबर संदेह से देखते रहे हैं। खास बात यह है कि टेलिस का दावा है कि चीनी अधिकारियों के साथ बातचीत में वह उन्हें इस बात पर संतुष्ट करने में विफल रहे हैं कि अगस्त, 2019 में जम्मू-कश्मीर का पुनर्गठन घरेलू दबावों के तहत किया गया और इसे चीनी क्षेत्र के कब्जे के मद्देनजर नहीं किया गया।


इस मुद्दे पर बीजिंग ने कड़ी प्रतिक्रिया जताई थी और कहा था कि लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाना यथास्थिति को बदलने की तरह है। खास बात यह है कि जम्मू-कश्मीर के पुनर्गठन के ढाई महीने बाद चीनी राष्ट्रपति और भारतीय प्रधानमंत्री की अक्टूबर, 2019 में महाबलीपुरम में मुलाकात हुई थी। कोई नहीं जानता कि शिखर वार्ता के दौरान यह मुद्दा सामने लाया गया था या नहीं लेकिन अब यह स्पष्ट है कि चीनी पक्ष ने भारतीय बातों पर सहमति नहीं जताई थी।

विश्लेषक कुल मिलाकर इस बात पर सहमत हैं कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के बार-बार किए गए इन दावों ने चीनी संदेह को और गहरा किया है कि भारत पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को वापस लेगा और गिलगिट, बाल्टिस्तान और पूरे अक्साई चिन को छीन लेगा। टेलिस कहते हैं: ‘चीनी सब दिन संदेह करते रहे हैं कि भारत चीन के साथ संतुलन बनाने की कोशिश तो करता है लेकिन चोरी- चोरी ही। ध्यान रहे कि चीन ने इसी तरह की प्रतिक्रिया तब भी जताई थी जब अरुणाचल प्रदेश को केंद्र शासित क्षेत्र से पूर्ण राज्य में बदला गया था।

अब हम जानते हैं कि पीएम मोदी की 2014 से अब तक चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ ज्यादा-से-ज्यादा 18 बार मुलाकात हुई है। वह पहले ऐसे भारतीय प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने चीन का पांच बार दौरा किया है। इससे पहले, गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर वह चार बार चीन का दौरा कर चुके थे। वुहान और महाबलिपुरम में अनौपचारिक वार्ताएं हुईं और मोदी चीनी नेता के साथ अपने संबंधों की घनिष्ठता को लेकर गदगद भी थे।

2014 के बाद से भारत में चीनी निर्यात काफी बढ़ा है और भारत में चीनी निवेश में भी वृद्धि हुई है। भारतीय बाजार में चीनी मोबाइल हैंडसेट की भरमार हो गई है- चीन का भारत में 50 प्रतिशत से अधिक मार्केट शेयर है। लेकिन अगर टेलिस की बातों पर यकीन किया जाए, तो इनमें से किसी भी चीज से चीन प्रभावित नहीं है और उसे भारत को लेकर संदेह बना हुआ है।


विश्लेषकों को लगता है कि चीन भारत के एशिया में प्रतिद्वंद्वी शक्ति के तौर पर उभरने को लेकर बराबर आशंकित रहता है। और एक समय भले ही चीनी नेता ने दोनों देशों के बीच मिलकर काम करने का नजरिया रखा हो, चीन अब एशिया में प्रबल शक्ति बनने की लालसा रखता है और वह भारत को अपना प्रतिद्वंद्वी मानता है। वे कहते हैं कि भारत का क्षेत्रीय शक्ति के तौर पर भी उभरना बीजिंग को मंजूर नहीं है।

चीन-अमेरिका में झगड़ा बढ़ने और भारत के अमेरिका के साथ रक्षा और सैन्य संबंध बढ़ने से भी बीजिंग को लगा कि भारत की उसके प्रतिसार्वजनिक गर्माहट पहेली है। विश्लेषकों को लगता है कि करीब 70 देशों में इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास और निवेश की महात्वाकांक्षी चीनी परियोजना- बेल्टएंड रोड इनिशिएटिव, में शामिल होने से भारत के इनकार, अमेरिका के साथ भारत की दोस्ती, अनौपचारिक रणनीतिक विचार-विमर्श के लिए अमेरिका, जापान, आस्ट्रेलिया के साथ गठित क्वैड में भारत की भागीदारी और अमेरिका के अपने महासागर कमान का नाम भारत-प्रशांत महासागर कमान करने से बीजिंग के मन में संदेह बढ़ा ही होगा।

तो, ऐसे में, अब विकल्प क्याहैं? विशेषज्ञ कहते हैं कि ये बहुत नहीं हैं।

सामरिक विकल्प तो सैन्य अभियान चलाकर अपने क्षेत्र पर पुनः कब्जा करना है। रक्षा विश्लेषक यकीन जताते हैं कि भारतीय सेना इस तरह के अभियान में सफल होने में सक्षम हैं। लेकिन सीमित युद्ध में भी भारी खर्च होगा और भारत को इसके फायदों का आकलन करना होगा। विश्लेषक मानते हैं कि भारतीय नजरिये से किसी तरह की सैन्य कार्रवाई जरूरी होगी। सैन्य रणनीतिकार इस बात पर आश्चर्य जताते हैं कि आखिर, सीमा को लेकर भारतीय सेना ‘वार्ताओं’ में क्यों लगी हुई है; और निःशस्त्र सैनिकों को चीनियों के साथ बातचीत के लिए भेजा ही क्यों गया था।

पूर्व सैन्यअधिकारी और फोर्स के संपादक प्रवीण साहनी कहते हैं किः ‘आत्मरक्षार्थ हथियारों के बिना सैनिकों को सीमा पर नहीं भेजा जाता। उन्हें हथियार उपलब्ध नहीं कराना उन शत्रुओं को हत्या करने का अवसर देने-जैसा है जो उन्हें छिपते हुए घेरकर मार डालने के लिए पूरी तरह से तैयार बैठे हैं। सैनिक दिए गए आदेश का पालन करते हैं। किसी भी देश में, उच्चस्तरीय सैन्य अधिकारी को बहुत सारे जवाब देने ही होते हैं।’

कुछ अन्य मुद्दे हैं जिन्हें हमें देखना होगा। भारत को यह भी देखना होगा कि वह अमेरिका पर कितना भरोसा कर सकता है। अपने हित साधने और हित सधने के बाद सहयोगी को छोड़ देना अमेरिका की फितरत रही है। संकेत थे कि भारत ने रूस से मध्यस्थता करने में मदद मांगी है और आशा है कि 22 जून को जब भारत, चीन और रूस के विदेश मंत्रियों की मुलाकात होगी, तो इस दिशा में कुछ होगा। लेकिन यह बैठक रद्द कर दी गई है।

विदेश मंत्री एस जयशंकर ने चीनी विदेश मंत्री से बात की है और कहा है कि ‘इस अभूत पूर्व घटनाक्रम का द्विपक्षीय संबंधों पर गंभीर असर होगा।’ पर्यवेक्षक कहते हैं कि चीन के कदम ने ‘हमारे सभी समझौतों’ को तोड़ दिया है, फिर भी वह उन‘ द्विपक्षीय समझौतों और शिष्टाचारों’ के प्रति भरोसा रख रहे हैं।

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