जलवायु परिवर्तन से घट रही है अनाज की पैदावार, अब पूरी दुनिया में बढ़ेगी भूख से पैदा संघर्षों की तादाद

इंटरगवर्नमेंटल साइंस पालिसी प्लेटफार्म ऑन बायोडायवर्सिटी एंड इकोसिस्टम सर्विसेज की एक नयी रिपोर्ट के अनुसार भूमि का विकृतीकरण वर्तमान में मानव विस्थापन का सबसे बड़ा कारण है और इस कारण संघर्ष और युद्ध हो रहे हैं।

फोटो : महेंद्र पांडे
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महेन्द्र पांडे

सितंबर 2018 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2030 तक पश्चिमी अफ्रीका के देशों में अनाज की उत्पादकता में 2.9 प्रतिशत और भारत में 2.6 प्रतिशत तक की कमी होगी, जबकि कनाडा और रूस में इनमें क्रमशः 2.5 और 0.9 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी होगी। इस रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2050 तक दुनिया की आबादी 10 अरब तक पहुंच जायेगी और दुनिया में फसलों की पैदावार कम होने से भूखे लोगों की आबादी भी बढ़ेगी।

वर्ष 2000 से 2010 के आंकड़ों के अनुसार दुनिया के सन्दर्भ में प्रति व्यक्ति प्रत्येक दिन 7322 किलो जूल ऊर्जा प्राप्त करता है और इसमें से 66 प्रतिशत से अधिक गेंहू, चावल, मोटे अनाज और पाम आयल से प्राप्त होता है। तापमान वृद्धि के कारण वर्ष 2030 तक चावल, गेंहू, मक्का और ज्वार की उत्पादकता में 6 से 10 प्रतिशत तक की कमी होगी।


दुनिया भर में 10 फसलें ऐसी हैं जिनसे मानवजाति 83 प्रतिशत कैलोरी प्राप्त करती है. ये फसलें हैं – जौ, कसावा, मक्का, आयल पाम, रेपसीड, चावल, जई, सोयाबीन, गन्ना और गेंहू। हाल में ही प्लोस वन नामक जर्नल में प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार इन सभी फसलों का उत्पादन जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि से प्रभावित हो रहा है, पर यह प्रभाव दुनिया के हरेक क्षेत्र में एक समान नहीं है। बहुत ठंडे प्रदेश में उत्पादन कुछ हद तक बढ़ रहा है जबकि गर्म इलाकों में यह घट रहा है। यह अध्ययन यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिनेसोता, यूनिवर्सिटी ऑफ़ ऑक्सफ़ोर्ड और यूनिवर्सिटी ऑफ़ कोपेनहेगेन के वैज्ञानिकों के संयुक्त दल ने किया है।

इस अध्ययन के अनुसार तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन के कारण इन फसलों के उत्पादन में एक प्रतिशत तक की कमी आ चुकी है। आयल पाम के उत्पादन में 13.4 प्रतिशत की कमी आंकी गयी है जबकि सोयाबीन का उत्पादन 3.5 प्रतिशत बढ़ गया है। यूरोप, साउथ अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया में उत्पादन कम हो रहा है जबकि लैटिन अमेरिका, एशिया और नार्थ अमेरिका में उत्पादन बढ़ रहा है, पर दुनिया के सन्दर्भ में इन फसलों की पैदावार में कमी हो रही है।


पूरी कृषि, भूमि की उपरी सतह, जिसे टॉप स्वायल कहते हैं, पर निर्भर करती है। इसी से विश्व में अनाज की कुल पैदावार में से 95 प्रतिशत उपजता है। पर, संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व में 50 प्रतिशत से अधिक भूमि की ऊपरी सतह नष्ट हो चुकी है और यदि यही हाल रहा तो वर्ष 2075 तक पूरी भूमि की ऊपरी सतह गायब हो चुकी होगी। इससे खाद्यान्न उत्पादन प्रभावित होगा, भूमि में पोषक पदार्थों की कमी होगी, भूमि बंजर होगी और भू-अपरदन की दर बढ़ेगी। जमीन से अवशोषित कार्बन वायुमंडल में पहुंचेगा और फिर तापमान बृद्धि में सहायता पहुंचाएगा। कार्बन कम होने से जमीन में पानी की कमी भी होगी। भूमि में एक प्रतिशत कार्बन वृद्धि होने पर एक एकड़ भूमि में 150 किलोलीटर अतिरिक्त पानी जमा होता है।

इंटरगवर्नमेंटल साइंस पालिसी प्लेटफार्म ऑन बायोडायवर्सिटी एंड इकोसिस्टम सर्विसेज की एक नयी रिपोर्ट के अनुसार मानवीय गतिविधियों के कारण भूमि की बर्बादी से विश्व की 40 प्रतिशत से अधिक जनसँख्या, लगभग 3.2 अरब, प्रभावित हो रही है, अधिकांश प्रजातियाँ विलुप्तिकरण की तरफ बढ़ रही हैं और जलवायु परिवर्तन में तेजी आ रही है। यह संस्था 129 देशों का समूह है और संयुक्त राष्ट्र की 4 संस्थाएं, यूनेस्को, यूनेप, एफएओ और यूएनडीपी, इसके पार्टनर हैं। इस रिपोर्ट को 45 देशों के 100 विशेषज्ञों ने तैयार किया है। रिपोर्ट के अनुसार भूमि का विकृतीकरण वर्तमान में मानव विस्थापन का सबसे बड़ा कारण है और इस कारण संघर्ष और युद्ध हो रहे हैं।

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