कोरोना पलायन : लॉकडाउन में ‘पैनिक’ का मज़ा और मन में माफी मांगते ‘सरकार’

नोटबंदी में भी पीएम रात 8 बजे टीवी पर अवतरित हुए थे और रात 12 बजते-बजते बड़े करेंसी नोटों का भाइयों-बहनों हो गया था। यही कोरोना लॉक डाउन में दिखा, विदेश से तो हम प्रवासियों को ले आए, मगर घर में मौजूद प्रवासी मजदूरों का ख्याल तक नहीं आया। जब आया तो लॉकडाउन के वायलेशन के अलावा कोई चारा नहीं बचा था।

नवजीवन
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अभिज्ञान शेखर

प्रधानमंत्री ने माफी मांग ली और खुद ही खुद को माफ़ किया गया मान भी लिया। मन की बात में ग़रीब भाइयों-बहनों के लिए उनका दिल बैठा जा रहा था। जाहिर है, ये संदर्भ दिल्ली-एनसीआर की सड़कों पर उतर आयी भीड़ का ही था, जो पैदल ही अपने घरों को चले जाने पर आमादा थी। 27 मार्च की शाम का नज़ारा भयावह था। यूपी-दिल्ली बॉर्डर पर हजारों की भीड़ उमड़ आयी। किसी की पीठ पर बोझा था, किसी के कंधे पर। कुछ के सिर पर गठरियां भी थीं। बूढ़े घिसट रहे थे और माओं की गोद में बच्चे बिलख रहे थे।

पुलिस के जवान अवाक थे, बेबस थे, नाकाबंदी के बैरियर बेमानी हो चुके थे। ये वही पुलिस थी जो लॉकडाउन के बहाने अपनी लाठियों की कुंठा उतारती नजर आयी थी। लोग बगैर किसी पूछताछ के धुने जा रहे थे। दूध और सब्जी वाले भी नहीं बख्शे गए जिन्हें इस अघोषित आपातकाल में आवश्यक सेवा के नाम पर छूट हासिल थी। मगर इस भीड़ पर बल प्रयोग विनाशकारी हो सकता था। कानून-व्यवस्था संभालने वाले इन हालात का आंकलन बखूबी कर सकते हैं। इसलिए वो खुद रास्ते से हट गए।

बस कल्पना करिए कि ये हलकान भीड़, परेशान भीड़ अगर पुलिस के बल प्रयोग से चिढ़ कर पलट जाती तो क्या होता। सिर्फ दिल्ली-यूपी बॉर्डर के उस इलाके की नवैयत समझिए तो हालात की गंभीरता का अहसास होगा। ग़रीबों को गाली देना आसान होता है, मगर उसके धैर्य की प्रशंसा करना मुश्किल है। इस भीड़ ने 28 मार्च की रात तक NH 24 से लेकर दिल्ली के आनंद विहार बस अड्डे तक बहुत कुछ झेला, मगर खामोश रही। अगर वो उबल पड़ती तो उसके सामने गाज़ियाबाद की इंदिरापुरम, वसुंधरा और नोएडा-दिल्ली तक की पॉश सोसायटीज थीं। अधखुले मॉल थे, किराना स्टोर्स थे, सरकारी संपत्ति थी, मगर इस तन्हा भीड़ को केवल अपने लोग,अपना गांव दिख रहा था।

टेलीविजन चैनलों पर इस भीड़ को देख स्टूडियो में बैठे कुछ एंकर लगभग कोसने के अंदाज़ में चीख रहे थे। सड़क पर बेलगाम उतर आयी भीड़ पर व्यवस्था संबंधी सवाल उठा रहे थे। मगर मौके पर मौजूद रिपोर्टर से भीड़ कह रही थी- "मरना तो है ही....भूख से मरें, थकान से मरें या कोरोना से !" हालांकि इस बयान में हताशा उतनी नहीं थी जितनी कि उम्मीद। ये उम्मीद ही इस यंत्रणा की जड़ थी जिस पर कोई सवाल नहीं उठा रहा।

किसने जगायी घर वापसी की उम्मीद ?

ऐसा नहीं है कि ये सारी भीड़ पैदल ही हजारों किलोमीटर दूर जाने के लिए निकल आयी थी। दरअसल एक उम्मीद अचानक जगी और लोगों को लगा कि वो अपने घर लौट सकते हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में काम करने वाले एक मित्र अपनी आंखों देखी बयान करते हैं।

"उस दिन आधी रात (27 -28 मार्च) पूरे नोएडा की सड़कों पर जत्थे चल रहे थे। मैं अपनी गाड़ी में दफ्तर से वापस लौट रहा था। ये मजदूरों के वैसे ही जत्थे थे जो सिर से पीठ तक सामान लादे, परिवार और बच्चों को घसीटते न जाने कहां चले जा रहे थे। पुलिस की पेट्रोलिंग गाड़ियां लाल-नीली बत्तियां चमकातीं मूक दर्शक बनी हुई थीं। नोएडा-ग्रेटर, नोएडा के जिन-जिन नुक्कड़ों पर पिछले 5 दिन से सन्नाटा दिख रहा था, वहां रात को इंतजार करते और पैदल आगे बढ़ते जत्थे दिख रहे थे। जिन सड़कों पर 22 मार्च की आधी रात से ही नाकाबंदी थी, गाड़ियों की गहन जांच हो रही थी, कहां से आए हो कहां जाना है- जैसे सवाल होते थे, वहां भी एक अघोषित छूट थी। टार्च तो उस दिन भी गाड़ी पर चमकी, पर मुझसे पहले ही दो ओला-उबर टाइप टैक्सियां लोगों को ठूंसे मेरे आगे से निकल गयीं। पुलिस ने उन्हें भी बस टार्च चमका कर फारिग कर दिया। जबकि कमर्शियल वाहन का ल़ॉक़डाउन में सड़क पर उतरना सीधा वायलेशन था। लग रहा था कि पुलिस को कोई निर्देश मिला था-कि जो निकल रहे हैं उन्हें निकल जाने दो। जो सक्षम थे वो ओला-उबर बुक करके निकल रहे थे।"


अघोषित छूट का निर्देश आया तो कहां से ?

इस सवाल का जवाब शायद आपको यूपी के बुलंदशहर बॉर्डर पर मिलेगा। वहां दिल्ली-एनसीआर की ओर से लोग पैदल कतार में आ रहे थे। पुलिस उन्हें रोकने और पूछताछ की बजाए खाने के पैकेट थमा रही थी। मौके पर एसएसपी संतोष कुमार सिंह खुद मौजूद थे। वहां टीवी कैमरे मौजूद थे और संतोष कुमार सिह ने उत्साहित होकर बयान दिया कि, नोएडा- गाज़ियाबाद- दिल्ली से पैदल आ रहे लोगों को हम खाना दे रहे हैं। यही नहीं वो यहां तक कह गए कि इन लोगों को आगे जाने के लिए प्रशासन वाहन की व्यवस्था भी करा रहा है। संतोष सिंह इस पर खामोश थे कि उन्हें इसका निर्देश कहां से मिला, मगर चैनलों ने इसे पुलिस के मानवीय चेहरे की तरह पेश किया। उस पुलिस के जो सड़क पर उतरे लोगों पर लट्ठ बजा रही थी और उसकी तस्वीरें भी पब्लिक डोमेन में मौजूद थीं। कुछ मीडिया 'लैप डॉग' तो इस पिटाई को भी दवाई की तरह पेश कर रहे थे, जो जनता की कोरोना से हिफाजत के लिए जरूरी थी। जबकि सोशल मीडिया पर सवाल उठ रहे थे कि जिन बाकी देशों में लॉकडाउन है वहां पुलिस पिटाई क्यों नहीं कर रही।

मुख्यमंत्री योगी का वो सहानूभूति भरा ऐलान !

अब आइए रुख करते हैं राजधानी लखनऊ का। पता नहीं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपनी पुलिस का मानवीय चेहरा देखा या ये वाहवाही और श्रेय लेने की होड़ थी ; योगी का बयान आया कि हमने अधिकारियों से कह दिया है कि पैदल जा रही जनता की सुविधा का ख्याल रखें। उन्हें उनके घर भेजने का इंतजाम करें। हजार बसें लगाने की खबर भी आने लगी और गाज़ियाबाद के लालकुआं से बसों के प्रस्थान की भी।

27 की सुबह तक उनके बिहार और उत्तराखंड सरकार से बातचीत करने की भी खबर आ गयी। इन खबरों का घमंजा दिल्ली-एनसीआर में आग की तरह फैला। नोएडा के एक गांव में रहने वाले देसराज चौधरी बताते हैं कि उनके गांव में रह रहे पूर्वी उत्तर प्रदेश के मजदूर-कामगार तब तक सहमे हुए खामोश बैठे थे। आशंकाएं थीं लेकिन घर वापसी की कोई राह नहीं दिख रही थी। हां, नोएडा-गाज़ियाबाद से सटे इलाकों मसलन बुलंदशहर,हापुड़, खुर्जा, मेरठ, वगैरह के लोग पैदल हिजरत का रिस्क ले रहे थे। उन्हें रास्ते में कोई साधन मिल जाने की उम्मीद भी थी, लेकिन योगी के बयान ने तो पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के मजदूरों में नई जान फूंक दी और वो भी सामान बांधने लगे। 27 की शाम तक तक वो नज़ारा सामने आया जो 28 मार्च की रात तक आनंद विहार बस अड्डे और फुट ओवर ब्रिज पर बेलगाम भीड़ की शक्ल में दिखा।

एक हताश डॉक्टर प्रज्ञा शुक्ला ने ट्वीट किया....

"भीड़ देख कर महसूस हुआ कि हम डॉक्टरों द्वारा किया गया सब बलिदान व्यर्थ गया, कौन जीता तो पता नहीं पर मानवता हार गयी..."

डॉक्टर प्रज्ञा का ये ट्वीट उस सियासी विद्रूप पर भी तल्ख टिप्पणी है जो इस पलायन के बाद शुरु हुआ।


पलायन पर टोपी फिराने वाली पेट्टी पॉलिटिक्स !

केंद्र और यूपी की योगी सरकार पहले तो ये सब अवाक देखती रही, फिर अचानक उसका आईटी/मीडिया सेल एक्टिव हुआ। आनंद विहार बस अड्डे के बहाने मामले को दिल्ली की केजरीवाल सरकार की ओर मोड़ने का खेल शुरु हुआ। ये एक बहुत बड़ा नहीं तो बड़ा झूठ तो था ही, दिल्ली को जानने वाले जानते हैं कि आनंद विहार बस अड्डा केवल नाम को दिल्ली की जद में है वर्ना यहां मुसाफिर नोएडा- गाजियाबाद से ही आते हैं। इनमें बहुतायत यूपी-बिहार-उत्तराखंड वालों की ही होती है।

अगर आप मजदूरों और कामगारों की बात करें तो वो नोएडा-गाज़ियाबाद और साहिबाबाद की फैक्ट्रियों में हैं। निर्माणाधीन बहुमंज़िला इमारतों का काम भी इन्हीं इलाकों में ज्यादा है। मजदूर-कामगार नोएडा की बस्तियों से लेकर गाज़ियाबाद की खोड़ा कॉलनी तक में बसे हैं। ऐसे में अपने गिरेबान में झांकने की बजाए कीचड़ दिल्ली सरकार के दामन पर उछालना बस घटिया सियासी बयानबाजी थी। ध्यान भटकाने की कोशिश थी। मगर अमित मालवीय से लेकर कपिल मिश्रा तक अपने ट्वीट्स में यही कर रहे थे।


हालांकि केजरीवाल भी दूध के धुले नहीं हैं, 22 मार्च के जनता कर्फ्यू से लेकर लॉक डाउन की पत्रकार वार्ताओं तक वो बस प्रधानमंत्री मोदी के कॉपी कैट ही दिख रहे थे। पीएम का राष्ट्र के नाम एक संदेश और केजरीवाल की चार प्रेस कॉन्फ्रेंस! यहां भी 4 घंटे के नोटिस पर देशव्यापी लॉक डाउन के ऐलान पर कोई सवाल नहीं, बल्कि एलजी अनिल बैजल के साथ उनकी बॉनहोमी कमाल थी। हालांकि ये मोदी के आगे केजरीवाल के ‘मॉरल संरेडर’ का एक और सबूत था, मगर बीजेपी के हमलों से साफ था वो केजरीवाल पर नरम नहीं है।

मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का आरोप !

जब यूपी-दिल्ली बॉर्डर पर इस तरह की अफरा-तफरी मची थी उसी वक्त राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का एक ट्वीट चमका। गहलोत ने आरोप लगाया कि, "राजस्थान सरकार अन्य प्रदेश के लोगों को भेजने की व्यवस्था कर रही है, लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार खुद के लोगों को अपने राज्य में प्रवेश नहीं दे रही है। यूपी सरकार की ओर से वहां के अधिकारियों को किसी तरह के कोई आदेश ही नहीं दिए गए हैं..."

गहलोत ने केन्द्र सरकार से भी ये शिकायत की, मगर इस नुक्ते के साथ कि राजस्थान दूसरे राज्यों के लोगों को अपने यहां रखने को पूरी तरह तैयार है और उन्हें सकुशल रखने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा।

जाहिर है महामारी के कठिन समय में ये पार्टी पॉलिटिक्स थी। मानवीयता के नाम पर अपनी छवि चमकाना मगर दूसरों को बदनाम करने की पूरी कोशिश। बदनाम करने की कोशिश तो उन गरीबों की भी की गयी जो बेचारे इस पूरे बवाल में फंसे पड़े थे। उनकी समस्या क्या है ,फियर साइकोसिस क्या है, वो पैनिक में क्यों हैं ? इसे समझने-बूझने की बजाए, बलबीर पुंज जैसे पूर्व पत्रकार भी पार्टी लाइन की रौ में बहते कह रहे थे कि मजदूर छुट्टी मनाने घर जाना चाहते हैं। गायिका मालिनी अवस्थी बगैर तथ्यों की पड़ताल किए कह रही थीं कि - अन्य राज्यों से ऐसा पलायन क्यों नहीं हो रहा। ये सब भी ट्वीटर पर ही चल रहा था।


कोरोना लॉक डाउन या पैनिक का मज़ा !

यही नोटबंदी में भी हुआ था। 8 बजे प्रधानमंत्री अवतरित हुए....और रात 12 बजे से पुरानी करंसी का भाइयों बहनों हो गया। सूत्र बताते हैं कि इसकी ख़बर तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली को भी पूरी तरह नहीं थी जो बाद में उसे ब्लॉग और बयान से डिफेंड करते नजर आए। नोटबंदी अकेले दिमाग़ का फितूर भले न रहा हो, मगर इस फैसले में बहुत से लोगों की राय शामिल नहीं थी। (ऐसी सूचनाएं हैं कि गुजरात के लोगों को पहले से नोटबंदी की खबर थी) बिना तैयारी की नोटबंदी का सबसे बड़ा सबूत बैंकों के एटीएम थे, जिन्हें 2000 और 500 के नोटों के हिसाब से कैलीबरेट ही नहीं किया गया था। जब अधिकारियों ने कहा करो- तो बैंकों ने बताया कि ये इतना आसान नहीं है, इसमें बहुत वक्त लगेगा। नतीजा ये कि नए नोट छपने के बहुत बाद एटीएम में आए।

यही कोरोना लॉक डाउन में दिखा, विदेश से तो हम हवाई जहाज से प्रवासियों को ले आए, मगर घर में मौजूद प्रवासी मजदूरों का किसी को ख्याल तक नहीं आया। जब आया तो खुद लॉकडाउन के वायलेशन के अलावा कोई चारा नहीं बचा था। ट्वीटर पर पर्याप्त सक्रिय एक नेत्र विशेषज्ञ अजय कामथ की नजर ने जो देखा वो उन्हीं की जबान से...."पक्का यकीन हो गया प्रधानमंत्री खुद पैनिक क्रिएट करते हैं फिर उसका आनंद लेते हैं "

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