संयुक्त राष्ट्र में दलित महिलाओं का संघर्ष मोदी सरकार में बढ़ते अत्याचार की गवाही

यूएनएचआरसी के 38वें सत्र में जारी एक रिपोर्ट में खुले तौर पर इस बात का जिक्र किया गया कि किस तरह मोदी शासन में दलित महिलाओं को अत्यंत क्रूर हिंसा और दोषियों की रक्षा के लिए अधिकारियों के बीच मिलीभगत की एक विशेष संस्कृति का सामना करना पड़ रहा है।

फोटोः सोशल मीडिया
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भाषा सिंह

पहली बार जेनेवा स्थित संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में एक समानांतर कार्यक्रम में दलित महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मुद्दे को उठाया गया। यूएनएचआरसी के 38वें सत्र के दौरान ‘जाति के विरुद्ध आवाजेंः भारत में दलित महिलाओं की गाथाएं’ शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की गयी। इस रिपोर्ट में खुले तौर पर मोदी शासन में जाति विरोधी अत्याचारों का जिक्र किया गया है। यह कदम दलित महिलाओं के संगठन, अखिल भारतीय दलित महिला अधिकार मंच की ओर से उठाया गया।

समानांतर कार्यक्रम में एक लघु वृत्तचित्र भी दिखाया गया। सोशल मीडिया और ट्वीटर पर यह लघु फिल्म और कार्यक्रम का हैशटैग अभियान के प्रचार का प्रमुख चेहरा बन गया। एआईडीएमएएम की आशा कोटवाल ने नेतृत्व करते हुए विस्तार से बताया कि भारत में किस तरह से स्थितियां खराब हो रही हैं। उन्होंने नवजीवन को बताया कि यह जाति आधारित हिंसा के खिलाफ दलित महिलाओं के संघर्ष को आगे बढ़ाने का सबसे सटीक समय है। उन्होंने कहा, “मैं यह स्पष्ट करना चाहती हूं कि दलित महिला गाथाएं पीड़ितों की कहानी नहीं हैं, हम संघर्ष करने वाले हैं, हम जवाब दे रहे हैं। और हम चाहते हैं कि दुनिया इस संघर्ष को उचित सम्मान दे, इसीलिए हम यहां हैं।” रिपोर्ट में यह भी विस्तार से बताया गया है कि किस तरह दलित महिलाओं को अत्यंत क्रूर हिंसा और दलित महिलाओं के खिलाफ अपराधों के दोषियों की रक्षा के लिए विभिन्न अधिकारियों के बीच मिलीभगत की संस्कृति का सामना करना पड़ रहा है।

समानांतर कार्यक्रम में एक पैनल चर्चा भी हुई, जिसमें नस्लीय भेदभाव के उन्मूलन पर संयुक्त राष्ट्र की समिति की सदस्य रीता इसाज्क-न्द्याय, महिलाओं के विरुद्ध हिंसा पर संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत दुब्राव्का ऐमोनोवी, सुप्रीम कोर्ट की वकील वृंदा ग्रोवर और अखिल भारतीय दलित महिला अधिकार मंच की महासचिव आशा कोटवाल मौजूद थीं। चर्चा के दौरान विभिन्न वक्ताओं ने बताया कि किस तरह से दलित महिलाओं के खिलाफ हिंसा, आर्थिक वंचितता, राजनीतिक मताधिकार से वंचित होने, न्याय और सामाजिक अपमान की बाधाओं से जुड़ी हुई है।

दलित महिला कार्यकर्ता दीप्ति सुकुमार ने नवजीवन को एक विशेष साक्षात्कार में बताया कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर और विशेष रूप से संयुक्त राष्ट्र में इन मुद्दों को उठाना बहुत महत्वपूर्ण है। दीप्ति के मुताबिक भारत की सरकार दलित महिलाओं को सुरक्षा, समानता देने को लेकर गंभीर नहीं है। इसके उलट यह प्रभावशाली जाति द्वारा किये जाने वाले दबावों में सहयोग कर रही है और दोषियों का साथ दे रही है।

नेशनल कैंपेन ऑन दलित ह्यूमैन राइट्स के संयोजक प्रोफेसर विमल थोराट ने कहा कि दलितों विशेषकर दलित महिलाओं के खिलाफ मामलों की जांच में पुलिस द्वारा जानबूझकर लापरवाही बरती जाती है। थोराट ने कहबा कि आपराधिक न्याय प्रणाली निष्प्रभावी हो गई है।

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