आरक्षण पर खतरे को देख दलित, पिछड़े, आदिवासी फिर से आंदोलन की तैयारी में, बीजेपी की नीति से हैं नाराज

बीजेपी के शासनकाल में दलित, पिछड़े और आदिवासी अपने संवैधानिक अधिकारों को लेकर सबसे ज्यादा असुरक्षा स्वभाविक रूप से बढ़ जाती है क्योंकि उनकी आरक्षण विरोधी विचारधारा की अगुवाई करने वाली पार्टी के रूप में बनी हुई है।

फोटो: सोशल मीडिया
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अनिल चमड़िया

आरक्षण पर खतरे को देखते हुए देश के दलित, पिछड़े और आदिवासी फिर से आंदोलन की तैयारी में जुट गए हैं। नया विवाद सुप्रीम कोर्ट एक फैसला है जिसमें भारतीय जनता पार्टी की उतराखंड सरकार ने अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के लिए प्रमोशन में आरक्षण नहीं देने के अपने फैसले को सही बताया है। साथ ही ये भी कहा है कि राज्य सरकार जब आरक्षण देने का फैसला करती है तब तो उसे सही ठहराने के लिए आरक्षण संबंधी आंकड़े जमा करने पड़ते हैं कि आरक्षण के दायरे में आने वाले वर्ग के सदस्यों का राज्य सरकार की सेवाओं में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व है। लेकिन जब राज्य सरकार ने आरक्षण नहीं देने का फैसला कर लिया है तो उसे ऐसे किसी आंकड़ों को जमा करने की भी जरूरत नहीं है।

बीजेपी के शासनकाल में दलित, पिछड़े और आदिवासी अपने संवैधानिक अधिकारों को लेकर सबसे ज्यादा असुरक्षा स्वभाविक रूप से बढ़ जाती है क्योंकि उनकी आरक्षण विरोधी विचारधारा की अगुवाई करने वाली पार्टी के रूप में बनी हुई है। नरेन्द्र मोदी की सरकार के आने के बाद के वर्षों पर नजर डालें तो यह सामने आता है कि सरकारी नौकरियों में दलित, पिछड़े और आदिवासी के लिए आरक्षण के संदर्भ में न्यायालयों द्वारा जो फैसले आते रहे हैं उनसे सरकार की भूमिका होती है। यह भावना भी बढ़ी है कि बीजेपी अपनी आरक्षण विरोधी विचारधारा को लागू करने के लिए जो रास्ते अख्तियार कर रही है उनमें एक महत्वपूर्ण और आसान रास्ता न्यायालय को मान लिया गया है।


प्रमोशन में आरक्षण को लेकर एक नया विवाद उतराखंड में सहायक अभियंता के पदों पर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को आरक्षण देने के मसले से उठा है। 2011 में वहां सरकार ने एक कमेठी बनाई थी जिसमें कि यह आंकड़े जमा किए गए थे कि राज्य सरकार की सेवाओं में अनुसूचित जाति और जनजाति का प्रतिनिधित्व कितना है और यह पाया गया था कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का प्रतिनधित्व अपर्याप्त है और 12 अप्रैल 2012 को उस कमेटी की रिपोर्ट और उसकी अनुशंसाओं को राज्य सरकार के मंत्री परिषद ने अपनी स्वीकृति भी दी थी। लेकिन राज्य सरकार ने 5 सितंबर 2012 को राज्य की सेवाओं में प्रमोशन देने के पूर्व के आदेशों को रद्द कर दिया लेकिन राज्य सरकार के 5 सितंबर के आदेश को उतराखंड हाई कोर्ट ने रद्द कर दिया था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उच्च न्यायालय के 5 सितंबर के आदेश को रद्द करने के फैसले को सही नहीं माना हैं।

उतराखंड के बनने के बाद राज्य में अनुसूचित जाति का आरक्षण 21 प्रतिशत से घटाकर 19 प्रतिशत एवं अनुसूचित जनजाति का आरक्षण दो प्रतिशत से चार प्रतिशत कर दिया गया था। साथ ही पिछड़े वर्ग का आरक्षण 21 प्रतिशत से घटाकर 14 प्रतिशत कर दिया गया। उतराखंड की स्थापना की जो सामाजिक पृष्ठभूमि रही हैं उसमें पिछड़े दलितों एवं आदिवासियों को आरक्षण की सुविधा देने की राजनीतिक इच्छा शक्ति के मजबूत होने जरूरत महसूस की जाती है।


उत्तराखंड में प्रमोशन को लेकर पीडब्ल्यूडी (लोक निर्माण विभाग) के विनोद कुमार एवं अन्य ने हाई कोर्ट में यह अपील की कि विभाग में सहायक अभियंता के पद पर प्रमोशन के लिए सामान्य वर्ग एवं आरक्षित वर्ग की सूची तैयार की जाए। साथ ही हाईकोर्ट राज्य सरकार को यह भी निर्देश दें कि विभाग अनुसूचित जाति एवं जनजाति के सदस्यों को आरक्षण देने के साथ ही विभागीय स्तर पर प्रमोशन के लिए एक समिति भी बनाई जाएं। हाई कोर्ट ने इसी अपील पर 15 जुलाई 2019 को फैसला सुनाकर अनुसूचित जाति एवं जनजाति के सदस्यों को राहत पहुंचाई थी। हाई कोर्ट ने कहा कि प्रमोशन में आरक्षण दिया जाना चाहिए। लेकिन हाई कोर्ट के उस फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए राज्य सरकार ने एक याचिका दायर की। इसके बाद हाई कोर्ट ने अपना रूख बदलते हुए 15 नवंबर 2019 को एक नया आदेश जारी किया कि राज्य सरकार प्रमोशन में आरक्षण देने से पहले आंकडे जमा करें कि अनुसूचित जाति एवं जनजाति का राज्य सरकार की सेवाओं में प्रतिनिधित्व की क्या स्थिति है और इसके लिए राज्य सरकार को चार महीने का वक्त दिया गया।

यह पुरा विवाद उत्तराखंड सरकार के एक विभाग के एक पद पर प्रमोशन से जुड़ा हैं। लेकिन जब न्यायालय कोई फैसला सुनाता है तो वह किसी एक विभाग के दायरे में नहीं सिमटा रहता है। वह सभी विभागों के लिए मान्य हो जाता है। इसी तरह से आरक्षण के संवैधानिक अधिकारों को लागू करने के लिए राजनीतिक स्तर पर शर्ते थोपी जाती रही है। इनमें आंकड़ें जमा करने की भी एक शर्त लगने लगी है। हाई कोर्ट के इस फैसले के बाद सुप्रीम कोर्ट में यह लाया गया और वहां उतराखंड की सरकार ने यह कहा कि संविधान के अनुच्छेद 16(4) एवं 16(4ए) में आरक्षण का प्रावधान है लेकिन राज्य सरकार की आरक्षण मुहैया कराने की कोई संवैधानिक जिम्मेदारी नहीं है। साथ ही जब राज्य सरकार ने आरक्षण नहीं देने का फैसला कर लिया है तो उसकी अपर्याप्त प्रतिनिधित्व संबंधी आंकड़े भी जमा करने की बाध्यता भी नहीं है।


आरक्षण को लेकर व्याख्याओं का खेल चलता हैं। एक सामाजिक जरूरत और संविधान के प्रावधानों को लागू करने के लिए जो राजनीतिक इच्छा शक्ति की जरूरत होती है, उसे अदालतों की दलीलों के जरिये भ्रमित किया जाता है। व्याख्याएं जब वर्चस्व वाद को बढ़ावा देने वाली दिशा की तरफ बढ़ जाती है तो उस पर सतह दर सतह बनती जाती है। एक दूसरे की दलीलों को पुष्टी करने की एक प्रतियोगिता शुरू हो जाती है। सुप्रीम कोर्ट ने भी उतराखंड की बीजेपी सरकार की दलीलों को लगभग स्वीकार कर लिया। सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक कानून के अनुसार राज्य सरकार आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं है। इसके साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा है कि कोई व्यक्ति प्रमोशन में आरक्षण की मांग इस तरह से नहीं कर सकता है कि यह उसका मौलिक अधिकार है। ना ही न्यायालय राज्य सरकार को आरक्षण देने के लिए कोई निर्देश दे सकता है। तब भी नहीं जब सरकारी सेवाओं में आरक्षित वर्गों की संख्या के अपर्याप्त होने के आंकड़े भी हो और उसे न्यायालय के सामने प्रस्तुत किए जाते हैं।

आरक्षण को लेकर न्यायालयों की व्याख्याओं के बारे में एक निश्चित धारणा बन चुकी है। उसमें यह शामिल है कि यह एक राजनीतिक स्तर पर समाधान किए जाने वाला मसला है। बीजेपी की उतराखंड सरकार के मौजूदा रूख को केन्द्र की सरकार ने यह कहकर दूसरी दिशा की तरफ मोड़ने की कोशिश की है कि यह मसला 2012 का है जब राज्य में कांग्रेस की सरकार थी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट का फैसला 2020 में दी गई दलीलों पर आधारित है और राज्य सरकार के विचारों को जिस तरह से उनके वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत किया है, उसी आधार पर आरक्षण विरोधी यह फैसला आया है।

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