त्योहारों में ठहर जाती दिल्ली: पलायन की अनकही पीड़ा
हर साल, जब छठ पूजा या दीपावली का समय आता है, दिल्ली के रेलवे स्टेशन एक मानवीय समुद्र में बदल जाते हैं। लाखों लोग अपने गाँवों की ओर लौटने के लिए ट्रेनों में ठसाठस भरे होते हैं। लेकिन यह सफर आसान नहीं है।

हर साल, जब दीपावली की जगमगाहट और छठ पूजा की पवित्रता दिल्ली के आकाश को रोशन करती है, शहर की सड़कें, बाजार, और विश्वविद्यालय परिसर एक अजीब सी खामोशी में डूब जाते हैं। वह चहल-पहल, जो दिल्ली की पहचान है, मानो कहीं गुम हो जाती है। रेहड़ी-पटरी की दुकानों पर बिखरी रौनक, गलियों में गूँजती हँसी, और ट्रैफिक का शोर सब कुछ थम सा जाता है। इसका कारण? पूर्वांचल के लाखों लोग, जो इस शहर की धड़कन हैं, अपने गाँवों की ओर लौट जाते हैं। लेकिन यह लौटना, यह पलायन, केवल एक यात्रा नहीं है; यह एक ऐसी कहानी है, जिसमें मेहनत, संघर्ष, और सामाजिक उपेक्षा के रंग घुले हैं।
पलायन कोई नया शब्द नहीं है। यह मानव सभ्यता का हिस्सा रहा है। लोग बेहतर जीवन, रोजगार, और सम्मान की तलाश में गाँवों से शहरों, छोटे शहरों से महानगरों, और यहाँ तक कि देशों की सीमाओं को पार करते रहे हैं। लेकिन जब बात पूर्वांचल के लोगों की आती है, तो यह पलायन केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक भी है।
उत्तर प्रदेश और बिहार के गाँवों से दिल्ली की ओर आने वाले ये लोग अपने साथ सपने लेकर आते हैं एक बेहतर जीवन का, अपने बच्चों के लिए शिक्षा का और अपने परिवार के लिए सम्मान का। लेकिन क्या दिल्ली उन्हें वह सम्मान दे पाती है, जिसके वे हकदार हैं?
पूर्वांचल में रोजगार के अवसर सीमित हैं। 2023 के आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (PLFS) के अनुसार, बिहार और उत्तर प्रदेश में बेरोजगारी दर राष्ट्रीय औसत (6.1%) से अधिक रही है। गाँवों में कृषि और छोटे उद्योगों की स्थिति बदहाल है। दूसरी ओर, दिल्ली एक आर्थिक केंद्र है, जहाँ निर्माण, रिटेल, और असंगठित क्षेत्रों में काम की कोई कमी नहीं। दिल्ली सरकार के एक सर्वे (2020) के अनुसार, शहर में रेहड़ी-पटरी पर व्यापार करने वालों में से 60-70% लोग पूर्वांचल से हैं। ये लोग दिल्ली की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं वही रीढ़, जो त्योहारों के दौरान गायब हो जाती है, और शहर को खामोश कर देती है।
हर साल, जब छठ पूजा या दीपावली का समय आता है, दिल्ली के रेलवे स्टेशन एक मानवीय समुद्र में बदल जाते हैं। लाखों लोग अपने गाँवों की ओर लौटने के लिए ट्रेनों में ठसाठस भरे होते हैं। लेकिन यह सफर आसान नहीं है। भारतीय रेलवे, जो इन प्रवासियों के लिए सबसे किफायती साधन है, इस भीड़ को संभालने में नाकाम रहता है।

2023 में, रेलवे ने त्योहारों के लिए लगभग 200 विशेष ट्रेनें चलाईं, लेकिन यह माँग की तुलना में एक बूँद साबित हुई। दिल्ली से बिहार और उत्तर प्रदेश जाने वाली ट्रेनों में सामान्य और स्लीपर कोच में यात्रियों को "भेड़-बकरियों" की तरह ठूँस दिया जाता है। रेलवे के आँकड़ों के अनुसार, 2022 में छठ पूजा के दौरान इन ट्रेनों में औसतन 150-200% अतिरिक्त यात्री सवार थे। ट्रेन के शौचालयों में लोग बैठे होते हैं, गलियारों में पैर रखने की जगह नहीं होती, और साँस लेना भी दूभर हो जाता है। यह केवल एक यात्रा नहीं, बल्कि एक अपमानजनक अनुभव है, जो इन मेहनतकश लोगों की गरिमा को ठेस पहुँचाता है।
वैसे जब ये लोग दिल्ली में रहते हैं, तो उनका जीवन भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं होता। पूर्वांचल के अधिकांश प्रवासी असंगठित कॉलोनियों या झुग्गी-झोपड़ियों में रहते हैं, जहाँ स्वच्छता, पानी, और बिजली जैसी बुनियादी सुविधाएँ एक सपना हैं। दिल्ली सरकार के एक सर्वे (2021) के अनुसार, शहर की लगभग 15% आबादी (लगभग 20 लाख लोग) ऐसी कॉलोनियों में रहती है। खुली नालियाँ, गंदगी, और पानी की किल्लत इनके दैनिक जीवन का हिस्सा हैं। इसके अलावा, दस्तावेज़ीकरण की कमी के कारण इन्हें राशन कार्ड, मतदाता पहचान पत्र, या बच्चों के स्कूल में दाखिले में भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
सबसे दुखद पहलू है सामाजिक भेदभाव। "बिहारी" या "पूर्वांचली" जैसे शब्दों को अपमानजनक ढंग से इस्तेमाल किया जाता है। यह केवल शब्द नहीं, बल्कि एक मानसिकता है, जो इन मेहनतकश लोगों को हाशिए पर धकेलती है। वे दिल्ली की सड़कों को साफ करते हैं, इसके घर बनाते हैं, और इसके बाजारों को जीवंत रखते हैं, फिर भी उन्हें वह सम्मान नहीं मिलता, जिसके वे हकदार हैं।
सरकारी तौर पर कुछ कदम उठाए गए हैं, लेकिन वे नाकाफी ही साबित हुए हैं। विशेष रूप से, शीला दीक्षित के नेतृत्व वाली दिल्ली सरकार (1998-2013) ने कच्ची कॉलोनियों (अनधिकृत कॉलोनियों) के निवासियों के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए। 2008 में, सरकार ने 1,639 अनधिकृत कॉलोनियों को अस्थायी नियमितीकरण प्रमाणपत्र जारी किए। उसके बाद, 2012 में 895 अनधिकृत कॉलोनियों को पूर्ण रूप से नियमित किया गया, जिससे लगभग 35 लाख लोगों को लाभ हुआ। इसी वर्ष, 917 मध्यम वर्गीय कॉलोनियों को वैध बनाया गया, जिसमें चतुरपुर, गौतम नगर, उत्तम नगर, ओखला खानपुर, संगम विहार, जसोला, मेहरौली और महावीर एनक्लेव जैसी कॉलोनियाँ शामिल थीं, जो कच्ची बस्तियों के समान ही थीं।
इससे निवासियों को विध्वंस का डर समाप्त हुआ, पानी और बिजली कनेक्शन मिले, तथा संपत्ति मूल्य में वृद्धि हुई। इसके अलावा, 2007-2013 के दौरान शहरी विकास विभाग ने बुनियादी सुविधाओं (जैसे सड़क, नाली, सीवर और पानी की लाइनें) के लिए 3,666 करोड़ रुपये जारी किए, जिनमें से 3,029 करोड़ खर्च हुए। हालांकि, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) की रिपोर्ट के अनुसार, 895 कॉलोनियों में से 46% में सड़क और नाली कार्य अधूरे थे, 90% में सीवर लाइनें कार्यरत नहीं थीं, और 197 कॉलोनियों में पानी की लाइनें ही नहीं बनीं।
फिर भी, ये प्रयास कच्ची कॉलोनियों के निवासियों के लिए एक महत्वपूर्ण राहत थे। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली सरकार ने 2015-2020 के बीच लगभग 50,000 फ्लैट्स असंगठित कॉलोनियों के लोगों को आवंटित किए, लेकिन यह माँग की तुलना में नगण्य है। रेलवे ने त्योहारों के लिए विशेष ट्रेनें चलाईं, लेकिन उनकी संख्या और सुविधाएँ अपर्याप्त हैं। सामाजिक कल्याण योजनाएँ, जैसे राशन कार्ड और स्वास्थ्य सुविधाएँ, कागजी जटिलताओं में उलझी रहती हैं। यह विडंबना है कि जो लोग इस शहर को चलाते हैं, उनके लिए शहर की व्यवस्था इतनी उदासीन क्यों है?
हमें इस पलायन को एक समस्या के बजाए एक अवसर के रूप में समझने की जरूरत है। परिवहन में सुधार के लिए त्योहारों के दौरान ट्रेनों की संख्या और गुणवत्ता बढ़ानी होगी, ऑनलाइन टिकट प्रणाली को सरल और पारदर्शी करना होगा, ताकि प्रवासी सम्मानजनक यात्रा कर सकें। सरकार चाहे तो असंगठित कॉलोनियों को बेहतर बनाने के लिएस्वच्छता, पानी, और बिजली जैसी बुनियादी सुविधाएँ सुनिश्चित करनी चाहिए। स्थानीय निकायों और गैर-सरकारी संगठनों के साथ मिलकर इन कॉलोनियों को रहने योग्य बनाया जा सकता है।
इसके अलावा सामाजिक जागरूकता के लिए "बिहारी" या "पूर्वांचली" जैसे शब्दों के अपमानजनक प्रयोग को रोकने के लिए जागरूकता अभियान चलाए जाने चाहिए। प्रवासियों को समाज का अभिन्न हिस्सा मानकर उनके योगदान को सम्मान देना होगा और सबसे ज़रूरी और कारगर उपाय पूर्वांचल में ही रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिए ग्रामीण उद्योगों, कृषि आधारित स्टार्टअप्स, और कौशल विकास कार्यक्रमों को प्रोत्साहन देना होगा। जब गाँवों में ही रोजगार होगा, तो पलायन की आवश्यकता कम होगी।
दिल्ली की खामोश सड़कें केवल एक मौसमी दृश्य नहीं हैं; वे एक गहरे सामाजिक सच को दर्शाती हैं। पूर्वांचल के लोग इस शहर की धड़कन हैं, फिर भी उनकी आवाज़ अनसुनी रहती है। उनका पलायन केवल एक यात्रा नहीं, बल्कि एक अनवरत संघर्ष की कहानी है। समाज के रूप में उनकी मेहनत को सम्मान देकर उनकी समस्याओं को समझना होगा। क्योंकि, जब तक दिल्ली की सड़कें उनके बिना खामोश रहेंगी, यह शहर अधूरा ही रहेगा।
(राजीव रंजन दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं। लेख में विचार उनके निजी हैं)
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