सोनिया गांधी का पूरा भाषण: अहंकार से भरी है अतीत की उपलब्धियों को नीचा दिखाने की कोशिश

सोनिया गांधी ने कहा कि भारत की समझ को बदलने के लिए लंबे समय से सोची-समझी योजना बन रही थी। इसमें तथ्यों को तोड़ना-मरोड़ना, राष्ट्र निर्माताओं पर लांछन लगाना और कट्टरता को बढ़ावा देना शामिल है।

फोटो: इंडिया टुडे कॉन्क्लेव से साभार
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नवजीवन डेस्क

कुछ हफ्ते पहले मैंने कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष के तौर पर लगभग दो दशकों के अपने कर्तव्यों से कदम वापस ले लिए। मैंने सोचा था कि इससे मुझे श्रोताओं के सामने आने से कुछ वक्त के लिए मुझे मुक्ति मिल जाएगी, यह एक ऐसा काम है जो हमेशा दबावों से भरा रहा है।

जन-भाषण मेरे लिए कभी भी स्वाभाविक नहीं रहा है। लेकिन, अरुण पूरी और उनके सहयोगियों ने काफी दबाव बनाया। यह एक सम्मानित कॉनक्लेव है और एक ऐसे शहर में हो रहा है जो भारतीय उद्यमिता की पहचान है। इसलिए मैं यहां हूं, सिर्फ एक कांग्रेस महिला के नाते और सिर्फ अपनी तरफ से बोल रही हूं।

इस साल आपका विषय है ‘बड़ा बदलाव’, और मुझे कहा है कि मैं ‘भारत की पुनर्कल्पना’ पर अपने विचार रखूं। यह सच है कि पूरी दुनिया इन दिनों महान उलट-पलट की गिरफ्त में नजर आ रही है। तकनीक और सूचना के साथ असमानता और असुरक्षा दिख रही है। हर जगह के समाज में तेजी से बड़े बदलाव हो रहे हैं।

यह हमारे देश में भी हो रहा है। हमारी जनता लगातार अधैर्य, महत्वाकांक्षाओं, इच्छाओं और ज्ञान से भरी है। हमारे संस्थान अभी भी विकसित हो रहे हैं और उनमें गति लाने की जरूरत है। लेकिन आप मानेंगे कि आजादी के बाद से हमारे शासन में एक निरंतरता और दिशा रही है जिसकी जड़ हमारे राष्ट्र निर्माताओं की विरासत में है। लेकिन आज हमें एक वैकल्पिक और प्रतिगामी दृष्टि के तहत बताया जा रहा है कि हम क्या थे, हम क्या हैं और हमें क्या होना चाहिए। यह पुनर्कल्पना हमारे इतिहास की एक विकृत समझ पर आधारित है; और यह घातक तौर पर दोषपूर्ण नजरिया है जो हमारा भविष्य तय करेगा।

हमारा एक खुला और उदार लोकतंत्र है। यह प्रतिनिधित्व और भागीदारी आधारित है। परंपरा, मान्यता और नियमों का सम्मान करते हुए चलने वाली राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के इसे बनाया गया है।

हमारे खुले, उदार लोकतंत्र ने बिना एकरूपता को थोपे एकता को मजबूत किया है।

हमारे गणतंत्र ने न सिर्फ अलग-अलग विचारों को स्वीकार किया है, बल्कि बहस और चर्चा को बढ़ावा दिया है। इसने असहमति, मतभेद और प्रतिरोध को बढ़ावा दिया है। संवाद और समझौते के लिए इसने अपनी क्षमता को दर्शाया है।

सालों से हमारा सार्वजनिक विमर्श सौम्यता, तर्क और वाद-विवाद के जरिये चला है, न कि अपशब्दों, परोक्ष आरोपों और गाली-गलौज से। हमारे लोकतंत्र को जो चीज अनमोल बनाती है वह बातचीत है, एकालाप नहीं; वह जवाबदेही है, जनता के सवालों से भागना नहीं।

लेकिन, हमारा देश, हमारा समाज और हमारी आजादी - यह सब एक व्यवस्थित और निरंतर हमले की शिकार है। इसके बारे में कोई गलतफहमी न पालें। यह भारत की समझ को बदलने की एक सोची-समझी योजना है और लंबे समय से बन रही थी। इसमें इतिहास का पुनर्लेखन, तथ्यों को तोड़ना-मरोड़ना, राष्ट्र निर्माताओं पर लांछन लगाना, पूर्वाग्रह और कट्टरता को बढ़ावा देना शामिल है।

मैं आप सबसे पूछना चाहती हूं, अगर आप पूछने की इजाजत दें, क्या भारत 26 मई 2014 से पहले सच में एक बहुत बड़ी काली सुंरग थी? क्या प्रगति, समृद्धि और महानता की राह पर भारत ने सिर्फ 4 साल पहले चलना शुरू किया है? क्या यह दावा भारत के लोगों की समझ का अपमान नहीं है? जानबूझकर देश की उपलब्धि को स्वीकार न करना और उसकी प्रशंसा न करना और कुछ नहीं, बल्कि अहंकार है। भारत के लोगों के सामूहिक प्रयासों से प्राप्त हमारी अतीत की उपलब्धियों को नीचा कर दिखाने की स्वार्थी कोशिश और कुछ नहीं, बल्कि दंभ है। यह सिर्फ भारत की मजबूती और पिछले दशकों में उसके जोरदार कोशिशों को स्वीकार करने का मामला है।

यह एक राजनीतिक मंच नहीं है। लेकिन यह एक ऐसा मंच है जहां नेता आते हैं और राष्ट्रीय मुद्दों पर अपनी बातें रखते हैं।

इसलिए, मैं अपनी बढ़ती पीड़ा और नाराजगी आपसे साझा करूंगी। जिस सवाल के बारे में हमें सोचना चाहिए, वह है: 2014 के बाद से क्या हो रहा है, शैली और वास्तविकता दोनों स्तरों पर? हमें इस बात को लेकर गंभीर रूप से चिंतित होना चाहिए कि किस तरह हमारे संविधान के बुनियादी सिद्धांतों और मूल्यों को जानबूझकर खत्म किया जा रहा है।

संविधान को बदलने को लेकर गैर-जिम्मेदार बातें उस सुविचारित कोशिश का नतीजा है जो भारत की बुनियाद को नुकसान पहुंचाना चाहती है। सत्ताधारी समूह द्वारा दिए जाने वाले यह वक्तव्य बिना मतलब के या संयोगवश नहीं है: यह एक खतरनाक साजिश का हिस्सा है। इस नई और गहरे तौर पर समस्या पैदा करने वाली गतिविधि को हम सब देख सकते हैं।

डर और धमकी इन दिनों एक सामान्य बात है। वैकल्पिक आवाजों को पूरी तरह कई मामलों में, हिंसा और यहां तक की हत्या के जरिये दबाया जा रहा है। अपने लिए सोचने की आजादी, अलग राय रखने और असहमत होने की आजादी, अपनी इच्छा से खाने की आजादी, अपनी चाहत से किसी से मिलने और शादी करने की आजादी – इन सब पर हमला हो रहा है।

जहां मिलन और सौहार्द को बढ़ाया जाता था, वहां साम्प्रदायिक तनाव को भड़काया जा रहा है। सरकार के संरक्षण में हिंसक भीड़ और निजी सेना को खुला छोड़ दिया गया है। दलितों और महिलाओं के खिलाफ हो रही हिंसा को लेकर एक आश्चर्यजनक असंवेदनशीलता है। चुनाव जीतने के लिए हमारे समाज का ध्रुवीकरण किया जा रहा है।

उस भारत के साथ क्या हो रहा है जो हमें विरासत में मिला था और जिसका हम उत्सव मनाते थे?

लेकिन, इससे भी कुछ ज्यादा डरावना घट रहा है। भारतीय परंपरा और जीवन शैली सदियों से बहुआयामी और सबको साथ लेकर चलने वाली रही है। इसे खत्म किया जा रहा है। हमारे सामाजिक डीएनए को बदला जा रहा है। इसका नतीजा यह होगा कि हर तरफ निराशा बढ़ेगी, गुस्सा बढ़ेगा और इसके साथ कई विध्वंसक घटनाएं होंगी।

कुछ व्यक्ति थोड़े समय के लिए आत्ममोहित हो सकते हैं लेकिन हमारे गणतंत्र को निष्पक्ष और मजबूत संस्थान चाहिए। देश को अच्छी स्थिति में बनाए रखने वाली लंबे समय से चली आ रही मान्यताओं को कुचला जा रहा है। संसदीय बहुमत को बहस को खत्म करने और विधेयकों को थोपने का लाइसेंस माना जा रहा है। जांच एजेंसियों के जरिये राजनीतिक विरोधियों को निशाना बनाया जा रहा है। न्यायपालिका संकट में है। नागरिक समाज को चुप कराया जा रहा है। विश्वविद्यालयों और छात्रों को एक खांचे में डाला जा रहा है। मीडिया के एक बड़े हिस्से को निगरानी रखने वाली उसकी भूमिका से जबरदस्ती हटाया जा रहा है – जिसका काम कुशासन, घोटालों और धोखाधड़ी को सामने लाना था। आरटीआई को भ्रष्टाचार से लड़ने और पारदर्शिता लाने के लिए लाया गया था। आज, उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। आधार को सशक्तिकरण के एक औजार की तरह लाया गया था। उसे नियंत्रण रखने के हस्तक्षेपी औजार के रूप में बदला जा रहा है। हम एक ज्ञान-आधारित समाज बनना चाहते हैं और लेकिन देखिए किस तरह वैज्ञानिक समझ का मजाक बनाया जा रहा है और तर्कवादियों को मारा जा रहा है।

राजनीति का शोर लोकतंत्र का संगीत है। लेकिन, उस शोर को दबाया जा रहा है। तर्क यह है कि भारत को 10 खरब की अर्थव्यवस्था बनाना है। हां, बेशक, हमें तेजी से आगे बढ़ना है लेकिन तेजी का मतलब यह नहीं कि पहले करें, फिर सोचें। हमने बार-बार देखा है कि किस तरह से फैसले लिए जा रहे हैं, चाहे अर्थव्यवस्था से जुड़े मुद्दे हों या पड़ोसियों के साथ हमारे रिश्ते, चाहे सुरक्षा के बड़े मुद्दे हों या सीमापार आतंकवाद।

मैं आपसे पूछती हूं कि क्या अधिकतम शासन का मतलब न्यूनतम सच्चाई है। क्या इसका यह अर्थ है कि असुविधाजनक वास्तविकता का स्थान वैकल्पिक तथ्य लेंगे। उदाहरण के लिए नौकरियों की बात करें। सभी जानते हैं कि रोजगार की स्थिति भयावह है। लेकिन अचानक से हमें ये बताया गया कि 2017 में 75 लाख नौकरियों का सृजन किया गया। निश्चित तौर पर इस दावे की बड़े पैमाने पर बखिया उधेड़ दी गई, लेकिन क्या उससे कोई फर्क पड़ता है? नहीं, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है, क्योंकि जैसे ही एक झूठ या जुमले को ढहाया जाता है, वैसे ही कोई दूसरा नया झूठ उसकी जगह ले लेता है। मुझे दर्शकों को यह याद दिलाने जरूरत नहीं है कि किस तरह नोटबंदी से अर्थव्यवस्था के तबाह होने पर इनके बयान लगातार बदलते रहे थे। या फिर जीएसटी को लेकर हुए बदलावों की बात हो, जो एक ऐसा सुधार था जिसमें पहले इन्होंने गतिरोध पैदा किया और फिर बेहद जल्दबाजी में अड़ियल तरीके से लागू किया। या फिर किसानों की दुर्दशा को देर से और आधे दिल से समझने की बात हो।

निराशावादी विलाप करना मेरे स्वभाव में नहीं है। लेकिन हमें चीजों को उसी रूप में देखने की जरूरत है, जैसी वे हैं और हमें कुशल पैकेजिंग और भव्यतापूर्ण प्रचार के झांसे में नहीं आना चाहिए। मैं इस बात से प्रोत्साहित हुई हूं कि लोग भारत की इस पुनर्कल्पना पर सवाल उठाना शुरू कर रहे हैं।

भारत की पुनर्कल्पना के लिए संविधान के बुनियादी मूल्यों और नेतृत्वकारी सिद्धांतों के प्रति आचार, व्यवहार और भावनाओं में एक पुनर्समर्पण आवश्यक है। हमें संस्थानों और संस्थागत प्रक्रियाओं की रक्षा और उन्हें मजबूत करने के हमारे संकल्प की पुनर्पुष्टि करने की आवश्यकता है।

हमें यह बात स्वीकार करने की जरूरत है कि आर्थिक विकास जरूर तेजी से होना चाहिए, लेकिन साथ ही इसे समावेशी और टिकाऊ भी होना चाहिए। सबसे पहले हमें उदारवाद और बहुलतावाद के विचार को फिर से स्थापित करना होगा, जिसने लंबे समय से हमारे समाज को स्थिर बनाए रखा है।

हमारे पास गर्व करने के लिए बहुत सारी चीजें हैं। भारत एक महान देश है। यह एक शानदार देश है। यह हम सभी का है। आइये, हम मिलकर इसकी रक्षा करें और अपनी पूरी शक्ति से इसे प्यार करें।

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