वादे तो बड़े-बड़े किए थे मोदी जी, लेकिन जरा देख तो लो क्या हालत हो गई है बनारस और उसके हुनरमंदों की...

लुभावने इश्तहारों में उलझे बनारस में विकास, वायदों और योजनाओं की चित्ताकर्षक तहरीरों का जमीन पर क्या हाल है, यह जानना हो, तो बुनकरों की बस्ती में देखा जा सकता है। बुनकरों को पलायन करना पड़ रहा- हुनरमंद हाथों को मजबूरन कहीं और जाकर हुनर बेचना पड़ रहा है।

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हिमांशु उपाध्याय

अपनी बारीक कारीगरी से बेपनाह खूबसूरती बिखेरने वाली और पूरी दुनिया में मशहूर बनारसी साड़ियां सरकारी अनदेखी से हाशिये पर पड़ी हैं। बनारसी साड़ियां धागों को गूंथकर बस परिधान की सूरत में ढाल देना नहीं है, अपितु विशिष्ट शैली में महीन कारीगरी, आपसी सद्भाव और अकूत श्रम की प्रतीक भी है। अपनी मेधा से तन-मन को रेशम-रेशम कर देने वाली यह विद्या बनारस की अपनी पहचान है। यही कारण है कि सैकड़ों साल पुराना यह परंपरागत परिधान आज भी शादी-ब्याह का अनिवार्य रौनक बना हुआ है।

दुनिया का सबसे पुराना शहर बनारस इन दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शहर के रूप में सुर्खियों में तो है, पर रंग-रोगन और लुभावने इश्तहारों में उलझे बनारस में विकास, वायदों और योजनाओं की चित्ताकर्षक तहरीरों का जमीन पर क्या हाल है, यह जानना हो, तो बुनकरों की बस्ती में देखा जा सकता है। बुनकरों को पलायन करना पड़ रहा- हुनरमंद हाथों को मजबूरन कहीं और जाकर हुनर बेचना पड़ रहा है।

वादे तो बड़े-बड़े किए थे मोदी जी, लेकिन जरा देख तो लो क्या हालत हो गई है बनारस और उसके हुनरमंदों की...

बड़ी बजार, अलईपुरा और सरैयां बनारसी साड़ियों की बड़ी मंडियां रही हैं। मदनपुरा और लोहता में कभी हथकरघे और पावरलूम की गूंज पूरे दिन खटर-पटर करती रहती थी। अलईपुरा इलाके के रहने वाले बाबू सलीम बुनकर भी हैं और बुनकरों के नेता भी। बहुत कोशिश के बाद वह खुलते हैं: “बहुत बुरा हाल है, साहब। बुनकरी और बनारसी साड़ी- दोनों की दशा गंभीर है। मौजूदा दौर बनारसी साड़ी उद्योग के लिए काला दौर है। दस साल पहले तक सब ठीक-ठाक था। हाल के कुछ वर्षों में यह उद्योग गर्त में चला गया है।“ इसकी बड़ी वजह क्या है, यह पूछने पर बाबू सलीम बेबाकी से बोलते हैं: “सरकार, और कौन? बुनकरों के लिए यह योजना, वह योजना बस कागजी ढोल हैं। सरकार बुनकरों की सहायता कर रही है, किसे दे रही है, यह सरकार और उसके नुमाइंदे ही बता सकते हैं। हम गरीबों के हाथ में तो कुछ भी नहीं आ रहा।“

वादे तो बड़े-बड़े किए थे मोदी जी, लेकिन जरा देख तो लो क्या हालत हो गई है बनारस और उसके हुनरमंदों की...

बाबू सलीम यहीं नहीं रुकते। वह रौ में बोलते जाते हैं: “हजारों की संख्या में बुनकर बनारस छोड़कर सूरत, बेंगलुरू और मुंबई की तरफ कूच कर रहे हैं। इसका बड़ा कारण हैंडलूम की कम मजदूरी भी है। हैंडलूम की खस्ताहाली का नतीजा है कि पूरे दिन परिवार सहित लगे रहने पर भी बुनकर को महज दो सौ रुपये मिल पाते हैं जबकि पावरलूम में प्रति व्यक्ति मजदूरी पांच सौ मिल जाती है।“ खुद को टू प्लाई जामदानी (विशेष तरह के बनारसी वस्त्र) के नेशनल अवार्डी होने का दावा करने वाले बाबू सलीम का कहना है कि हैंडलूम प्रशिक्षण के नाम पर भी पिछले दिनों बनारस में केवल खानापूर्ति की गई। बड़ी संख्या में बुनकरों ने प्रशिक्षण लिया और पीएम के नाम का सार्टिफिकेट लेकर बस इधर-उधर टहल रहे हैं। उनके पास कोई काम नहीं है।

बिजली बिल बुनकरों की कमर तोड़ दे रहा है। बनारसी साड़ी के बड़े कारोबारी बाबू महतो कहते हैं: बिजली बिल के नाम पर हर महीने पांच सौ एक मुश्त लिया जा रहा है और कहा जा रहा है कि सरकार की कोई नीति तय हो जाएगी, तब बिल भेजा जाएगा। वह बताते हैं: महंगाई बढ़ रही है। रेशम तागे-धागे के दाम में इजाफा होता जा रहा है। पेट्रोल-डीजल का दाम बढ़ते ही धागे का दाम चालीस रुपया बढ़ गया। मजदूरी का हाल वही है। बाबू महतो कहते हैं: कुछ न किया गया, तो बनारसी साड़ियां आने वाले दिनों में गुजरे दिनों की बात होकर रह जाएंगी।

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बनारसी साड़ी के निर्माण में उपयोग किए जाने वाले रेशम धागे के बड़े कारोबारी गौरव जायसवाल एमबीए करने के बाद ताजा-ताजा इस बाजार में शरीक हुए हैं। वह कहते हैं: “बनारसी साड़ी उद्योग के गंभीर खतरे से गुजरने का बड़ा कारण डुप्लीकेट बनारसी साड़ियां भी हैं।“ यह बात बाबू सलीम ने भी बताई थी। बनारसी साड़ी की मंडियों में सस्ते और नकली यार्न की आमद ने बनारसी साड़ियों के मूल उद्योग को लगभग ध्वस्त कर दिया है। यह सस्ता यार्न चीन से यहां आता है। इस यार्न से पावरलूम पर बनने वाली बनारसी साड़ियां बहुत सस्ते दाम में मिल जाती हैं। गौरव ने कहा कि डुप्लीकेट बनारसी साड़ियों के कारोबार ने मूल बनारसी साड़ी कारोबार पर 95 प्रतिशत कब्जा जमा लिया है। पावरलूम से बनने वाली डुप्लीकेट बनारसी साड़ियों ने हैंडलूम या हथकरघे को लगभग बाजार से बाहर का रास्ता दिखा दिया है। सन दो हजार से पहले जहां हथकरघे ही हथकरघे दिखते थे, अब हर जगह पावरलूम ही पावरलूम हैं। ऐसी दशा में हाथ के कारीगरों की एक बड़ी जमात खाली बैठी है। या फिर पावरलूम से जुड़कर कारीगरी की जगह बस मजदूरी कर रही है।

कई बुनकरों और कारोबारियों ने बताया कि हैंडलूम को लेकर सरकार खुद पैकेज दे या फिर उसे अपने हाथ में लेकर खरीदे और बेचे, तब शायद जाकर बात कुछ बन सकती है। रेशम धागे के छोटे कारोबारी मुंशी प्रेमचंद के परिवार से जुड़े दुर्गा प्रसाद श्रीवास्तव ने भी कहा कि बुरा हाल इसलिए भी है कि पावरलूम में मजदूरी की दर बहुत ज्यादा है। असली बनारसी साड़ी जहां दस बारह हजार में मिलेगी, वहीं पावरलूम से बनी डुप्लीकेट बनारसी साड़ी दो-ढाई हजार में मिल जाएगी।

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