धराली: तबाही के मंजर में सूखी आंखों से अपनों के लिए उम्मीद, 30-40 फुट मलबे में दफ्न एक गांव में कयामत का मंजर

सुरम्य घाटियों, ऊंचे पहाड़ों और पवित्र नदियों के लिए प्रसिद्ध उत्तरकाशी के धराली में 5 अगस्त को कुदरत का कहर कयामत बनके टूट पड़ा और पहाड़ों पर कहीं ऊपर से आया पानी का सैलाब अपने साथ मिट्टी-पत्थर, पेड़-पौधे और जिंदगियां लीलता हुआ धराली के सीने को रौंद गया।

फोटो: सोशल मीडिया
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नवजीवन डेस्क

कोई अपनों को तलाश रहा है, तो कोई हाथों में मिट्टी और मलबा लिए अपने लुप्त हो चुके मकान के निशान खोज रहा है, तो कोई फोटो लेकर गुहार लगा रहा है कि कम से कम शव ही खोज दो कि अंतिम संस्कार किया जा सके, कोई उदास चेहरे के साथ आंखों में आंसू भरे उस तबाही के निशान को देखते हुए शून्य में निहार भर रहा है।

इसी के साथ राहत दल के लोग कुछ मशीनों और कुदाल-फावड़ों के साथ मलबा हटाने का काम कर रहे हैं, लेकिन इसकी गति इतनी धीमी है कि महीनों लग जाएंगे टनों मिट्टी-मलबे के नीचे दबे ‘कुछ’ को बाहर निकलाने में।

यह मंजर है उत्तराखंड के धराली गांव का, जहां 5 अगस्त को कुदरत का कहर कयामत बनके टूट पड़ा और पहाड़ों पर कहीं ऊपर से आया पानी का सैलाब अपने साथ मिट्टी-पत्थर, पेड़-पौधे और जिंदगियां लीलता हुआ धराली के सीने को रौंद गया।

इस कयामत के गुजर जाने के बचे हुए निशान में जिंदगी की तलाश तो की जा रही है, लेकिन क्या वह सार्थक होगी, कहना मुश्किल है। दैनिक भास्कर की एक रिपोर्ट कहती है कि एक सप्ताह गुजर जाने के बाद भी अभी तक सिर्फ दो शव ही बरामद किए जा सके हैं, वह भी उनके जो मलबे और दलदल के ऊपर थे। बाकी करीब 80 एकड़ में फैले मलबे और मिट्टी में तो कुछ खोजा ही नहीं जा पा रहा है।

दैनिक भास्कर की रिपोर्ट के मुताबिक धराली गांव का ज्यादातर हिस्सा मलबे में दफ्न हो चुका है। मुख्य बाजार, दुकानें, होटल और रेस्टोरेंट मलबे के नीचे कहां पर हैं, इसका अंदाजा तो धराली में रहने वाले लोग भी नहीं लगा पा रहे हैं। लोग बताते हैं कि सैलाब इतना तेजी से आया था कि घर कई-कई मीटर दूर जा खिसके हैं। एक घर तो गांव से करीब 200 मीटर दूर तक जा खिसका।

रिपोर्ट बताती है कि धराली का जो ऊपरी हिस्सा पहाड़ों की तलहटी में था, वहां कुछ घर अब भी बचे हुए हैं। वहीं पर एक मंदिर है, जहां 5 अगस्त को घटना वाले दिन हारदूध मेला लगा था। ज्यादातर गांव वाले मंदिर और मेले में ही थे। इसी वजह से कुछ लोगों की जान बच गई। इन्हीं में से एक चाहत दवान हैं। चाहत 11वीं में पढ़ती हैं। धराली में आई आपदा में उनके मकान को भी काफी नुकसान पहुंचा है। उनका छोटा सा 5 कमरों वाला अस्थाई होम स्टे, सेब के बागान और खेत मलबे में समा गए हैं। वे खौफ में हैं और कहती हैं कि यहां तो कुछ बचा ही नहीं है, अब तो सरकार उन्हें कहीं और ही बसा दे।

इसी तरह महेश पवार भी धराली में अपने पुश्तैनी घर में रहते थे। उनके मकान के आसपास ही 15 और परिवार रहते थे। आपदा के वक्त महेश भी मंदिर में चल रहे हारदूध मेले में गए हुए थे। वो बच गए, लेकिन उनका पुश्तैनी घर मलबे के नीचे दबा चुका है।

उत्तराखंड के धराली में हुई तबाही पर अभी तक अधिकारिक तौर पर न तो मौतों का आंकड़ा सामने आया है और न ही कितना नुकसान हुआ है इसका कोई लेखा-जोखा मिला है। लेकिन ग्राउंड पर किसी तरह पहुंचे अलग-अलग अखबारों और मीडिया संस्थानों के रिपोर्टर्स ने जो कुछ लिखा-दिखाया है, उसे महसूस करके ही सिहरन हो रही है।

धराली में आपदा आने के बाद से सरकारी तौर पर एएनआई और पीटीआई जैसी न्यूज एजेंसियों के जरिए यह तो बताने की कोशिश की जा रही है कि राहत और बचाव का काम जारी है और अब तक कितने लोगों को बचाकर सुरक्षित जगहों पर या कैम्पों में ले जाया गया है। लेकिन कितनें लोगों की जान गई, कितने जख्मी हुए, कितने मकानों का अस्तित्व ही खत्म हो गया, कितनी दुकानें-होटल आदि लुप्त हो गए, कितना कुछ मलबे में दब गया, इस पर खामोशी है।

धराली में वैसे तो आपादा के बाद से ही लगातार 8 दिन से राहत और बचाव का काम चल रहा है। मलबा हटाकर शवों को खोजने-निकालने की कोशिश की जा रही है। अब तक रोड कनेक्टिविटी न हो पाने की वजह से खुदाई के लिए बड़ी मशीनें नहीं पहुंच पाई हैं। खुदाई में लगीं छोटी मशीनें गीली मिट्टी में फंस रही हैं। इसलिए हाथों से ही खुदाई की जा रही है।

धराली में आपदा के तुरंत बाद 2 लाशें मिली थीं, लेकिन वो मलबे से बाहर ही थीं। उसके बाद से अब तक मलबा खोदकर एक भी लाश नहीं मिल सकी है। खुदाई के काम में सबसे बड़ी रुकावट मलबे में बड़ी-बड़ी चट्टानों का होना है। एक अनुमान के मुताबिक करीब 80 एकड़ में फैला मलबा 30-40 फीट ऊंचा है। मलबे में पत्थरों के साथ बहकर आई मिट्टी और रेत भी है जो खुदाई में सबसे बड़ी बाधा बन रही है।

एक रिपोर्ट बताती है कि जो भी मशीनें अब तक किसी तरह धराली पहुंची हैं उनसे मलबा हटा तो दिया जाता है, लेकिन तुरंत ही आसपास से गीला मलबा फिर इकट्ठा हो जाता है।

उधर धराली से कुछ किलोमीटर दूर माधवी परेड ग्राउंड सरकारी हैलीकॉप्टरों की आवाज़ों से थर्राता रहता है। इस जगह को अस्थाई शिविर के तौर पर स्थापित किया गया है। यहां धराली में फंसे लोगों को लाने और फिर धराली में राहत भेजने का काम किया जा रहा है। लेकिन इस ग्राउंड में मौजूद न्यूजलॉन्ड्री के लिए रिपोर्टिंग कर रहे गोयनका अवार्ड से सम्मानित वरिष्ठ पत्रकार ह्रदयेश जोशी की रिपोर्ट बताती है कि जिन लोगों को लाया जा रहा है उनमें धराली का तो एक भी मूल बाशिंदा नहीं है। सिर्फ ऐसे लोगों को लाया जा रहा है जो या तो पर्यटक हैं या किसी और काम से धराली गए थे। ह्दयेश जोशी ने इस शिविर में मौजूद धराली के कुछ लोगों से जो बातचीत की है, उसका सार यही है कि धराली में क्या हो रहा है इसकी न तो जानकारी दी जा रही है और न ही यह बताया जा रहा है कि राहत सामग्री किसे दी जा रही है। धराली के मूल बाशिंदे नवीन ने बताया कि वह धराली जाकर अपनों की खैर-खबर जानना चाहते हैं, लेकिन उन्हें किसी न किसी बहाने से इनकार कर दिया जा रहा है। ऐसी ही धराली की बिंदू हैं। उनका भाई और उनके साथ आई महिला का देवर लापत है, लेकिन उन्हें न तो इनके रिश्तेदारों के बारे में कुछ बताया जा रहा है और न ही उन्हें धराली लेकर जाया जा रहा है।

आपदा के 8 दिन बाद भी न तो धराली के लिए सड़क सम्पर्क स्थापित किया जा सका है और न ही कोई और व्यवस्था हो पाई है। स्थानीय लोगों के अनुमान के मुताबिक कम से कम 60  लोग लापता है। इनमें बहुत से बिहार, झारखंड और नेपाल से आए हुए मजदूर हैं। नेपाल से आए हुए कुछ लोग फोटो लेकर इधर-उधर अपनों को तलाश रहे हैं।

धराली में स्थिति यह है कि तीन-चार मंजिला कुछ मकानों की सिर्फ छत ही नजर आ रही है, बाकी सबकुछ मलबे में दबा हुआ है। कुछ मकानों के पहले फ्लोर मलबे से भर चुके हैं। लेकिन वहां तक जाने का रास्ता नहीं है। न्यूज लॉन्ड्री के लिए आशीष आनंद की एक रिपोर्ट बताती है कि धराली जाते हुए उन्होंने तबाही का मंजर देखा है। उत्तरकाशी-गंगोत्री हाईवे तबाही की गवाही दे रहा है। खत्म हो चुकी सड़कें, भूस्खलन के जख्म और टूटे पुल इस इलाके में हुई तबाही के बयान दे रहे हैं।

इस दौरान राज्य सरकार ने अब तक लापता हुए लोगों का कोई डेटा जारी नहीं किया है। आपदा के छठे दिन जिलाधिकारी प्रशांत आर्य ने एसडीएम की अगुवाई में एक जांच कमेटी बनाई है, जो आपदा में लापता हुए लोगों, घायलों और मृतकों की रिपोर्ट देगी। लेकिन यह रिपोर्ट अभी तक सामने नहीं आई है।

जहां तक राहत और बचाव का सवाल है तो इसमें एनडीआरएफ, एसडीआरएफ, आईटीबीपी, सेना और पुलिस-प्रशासन मिलकर काम कर रहे हैं। लेकिन इन सारे बलों को मिलाकर अभी तक कोई सवा सौ जवान ग्राउंड जीरो पर हैं। दैनिक भास्कर ने एनडीआरएफ के कमांडेंट सुदेश कुमार से बात की। उनका कहना था कि उनके पास जितनी भी तकनीक और मशीनें थीं, सबका इस्तेमाल राहत में हो रहा है। इनमें ग्राउंड पेनिट्रेटिंग रडार, रेस्क्यू रडार, विक्टिम लोकेटिंग कैमरा, रोटरी रेस्क्यू सॉ, थर्मल इमेजिंग कैमरा और हाइड्रोलिक स्प्लिट कटर जैसे टेक्नोलॉजी शामिल हैं।