आपदा राहत का राजनीतिक औजार की तरह इस्तेमाल! केन्द्र के भेदभावपूर्ण रवैये से आहत गैर BJP सरकारें

पंजाब और हिमाचल दो अलग-अलग राज्य हैं, लेकिन दोनों में एक बात समान है। दोनों ही जगह गैर बीजेपी सरकार है। पंजाब में आम आदमी पार्टी सत्ता में है, जबकि हिमाचल में कांग्रेस की। ये दोनों भी केन्द्र के भेदभावपूर्ण रवैये के लिए अभिशप्त हैं।

पीएम मोदी
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हरजिंदर

आपदा राहत के लिए प्रधानमंत्री ने पंजाब को जो 1,600 करोड़ रुपये देने की घोषणा की थी, उसमें से पंजाब को एक रुपया भी नहीं मिला है। पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान 29 नवंबर को गुरुदासपुर में एक प्रेस कांफ्रेंस में यह बताया। 

कांग्रेस सांसद चरणजीत सिंह चन्नी और सुखविंदर सिंह रंधावा ने दो दिसंबर को जब इसी बात को लोकसभा में उठाया, तो केन्द्र सरकार की ओर से जवाब मिला कि आपदा राहत के लिए पंजाब को 481 करोड़ रुपये की मदद राज्य को दी जा चुकी है।  ठीक उसी दिन हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने विधानसभा में यह बयान दिया कि प्रधानमंत्री ने राज्य को 1,500 करोड़ रुपये की जिस मदद की घोषणा की थी, उसमें से कोई भी रकम अभी तक राज्य के पास नहीं पहुंची है। 

ये दोनों ही घोषणाएं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तब की थीं जब वह आपदाग्रस्त राज्यों के दौरे पर गए थे।

लोकसभा में जो 481 करोड़ रुपये पंजाब को देने की बात कही गई, वह दरअसल राज्य आपदा मोचन कोष यानी एसडीआरएफ के तहत आपदा राहत के लिए दिए गए थे। एसडीआरएफ आपदा राहत के लिए बनाया गया ऐसा फंड है जिसमें राज्यों को भी अपनी हिस्सेदारी देनी होती है। किसी राज्य को यह किस तरह दी जाएगी, इसके लिए फाईनेंस कमीशन ने बाकायदा फार्मूला बनाया है जिसके तहत राज्यों को इस कोष से रकम दी जाती है। हालांकि इसमें भी आकलन का खेल होता है। राज्य अपनी तरफ से नुकसान का आकलन कुछ और करता है और केन्द्र सरकार कुछ और करती है। इसमें राजनीति के लिए पर्याप्त गुंजाइश होती है और फिर उसी आधार पर पैसे जारी होते हैं। 

लेकिन पंजाब और हिमाचल के मुख्यमंत्री एसडीआरएफ की बात नहीं कर रहे थे। वे प्रधानमंत्री द्वारा की गई विशेष मदद की घोषणा की बात कर रहे थे। एक ही दिन में इन घोषणाओं को करके प्रधानमंत्री ने उस दिन तो सुर्खिया बटोर लीं थी, लेकिन दोनों राज्य पैसे को इंतजार ही करते रहे। 


प्रधानमंत्री ने इस मौके पर जो घोषणा की, उसमें एक हिस्सा विभिन्न योजनाओं के तहत राज्य को जाने वाली मदद का था। बाकी प्रधानमंत्री आपदा राहत कोष से दिया जाने वाला था। इसमें प्रभावित लोगों को सीधे दी जाने वाली मदद भी शामिल थी- आपदा में मारे गए हर व्यक्ति के लिए दो लाख रुपये और गंभीर रूप से घायल लोगों के लिए 50 हजार रुपये प्रति व्यक्ति की मदद।  

इसके अलावा केन्द्र सरकार के पास आपदा की स्थिति में राज्यों की मदद का एक और तरीका होता है नेशनल डिजास्टर रिस्पांस फंड यानी एनडीआरएफ। इस कोष से आपदा राहत के लिए राज्य को उसी सूरत में बड़ी मदद मिल सकती है जब आपदा को 'भीषण' घोषित कर दिया जाए। आपदा को भीषण घोषित करने का काम इंटर-मिनस्टीरियल सेंट्रल टीम यानी आईएमसीटी प्रभावित इलाकों के अपने दौरे के बाद करती है। इस टीम ने पंजाब और हिमाचल दोनों ही प्रदेशों का दौरा कर लिया है लेकिन अंतिम फैसला नौकरशाही की औपचारिकताओं में अटका हुआ है। 

आपदा के दौरान सीधे प्रभावित लोगों की मदद करने का केन्द्र सरकार के पास एक और जरिया होता है। वह प्रभावित लोगों के कर्ज माफ कर सकती है। लेकिन इस फैसले में जो राजनीति होती है, उसका जिक्र हम आगे चलकर करेंगे।

पंजाब और हिमाचल दो अलग-अलग राज्य हैं, लेकिन दोनों में एक बात समान है। दोनों ही जगह गैर भाजपा सरकार है। पंजाब में आम आदमी पार्टी सत्ता में है, जबकि हिमाचल में कांग्रेस की। डबल इंजन सरकार को केन्द्रीय मदद की गारंटी मानने वाले दौर में ऐसे बाकी राज्यों की तरह ही ये दोनों भी केन्द्र के भेदभावपूर्ण रवैये के लिए अभिशप्त हैं। 

इस भेदभाव को अगर ठीक से समझना है तो हमें 2023 में उत्तरखंड और हिमाचल की आपदाओं को समझना होगा। हिमाचल में उस साल बादल फटने, अतिवृष्टि और भूस्खलन से भीषण नुकसान हुआ था। राज्य सरकार ने नौ से दस हजार करोड़ रुपये के नुकसान का अंदाज लगाया था। उत्तराखंड में उस साल कोई भीषण आपदा तो नहीं आई थी, लेकिन जोशीमठ में जिस तरह से घरों में दरारें पड़ीं वह किसी आपदा से कम नहीं थीं। इसके लिए पहले राज्य सरकार ने 2,945 करोड़ रुपये की मदद मांगी। बाद में इस अनुमान को बढ़ाकर 3,500 करोड़ रुपये कर दिया गया।

इन दोनों ही आपदाओं की प्रकृति अलग-अलग थी। किन्हीं दो आपदाओं की तुलना नहीं हो सकती। लेकिन आपदा के दो मौकों पर केन्द्र के अलग-अलग रवैये की तुलना तो हो ही सकती है। केन्द्र सरकार की तरफ से हिमाचल प्रदेश को कुल 2640 करोड़ रुपये की मदद दी गई, जबकि 1658 करोड़ रुपये की मदद मिली। यानी हिमाचल ने जितनी मदद मांगी थी, उसकी 26 प्रतिशत मदद ही उसे दी गई। उत्तराखंड की जो मांग थी, उसके मुकाबले उसे 56 प्रतिशत रकम स्वीकृत कर दी गई। 


एक तरफ हिमाचल के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू कह रहे थे कि उनके प्रदेश के साथ "सौतेला बर्ताव" हुआ और यह "गैर भाजपाई राज्य के साथ हुआ अन्याय है।" दूसरी तरफ उत्तराखंड की बीजेपी सरकार के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी न सिर्फ केन्द्र के फैसले से संतुष्ट दिखाई दिए, बल्कि इस मदद का स्वागत भी किया। 

लेकिन इस तरह के अन्याय का यह अकेला उदाहरण नहीं है। केन्द्र के भेदभाव को समझने के लिए सबसे अच्छा उदाहरण बिहार राज्य का है। 2017 में बिहार में भीषण बाढ़ आई। प्रदेश के 20 जिले और डेढ़ करोड़ आबादी बाढ़ से प्रभावित हुई। 400 से ज्यादा लोगों की जान गई। आपदा राहत के लिए राज्य की तरफ से 9,571 करोड़ रुपये की मदद मांगी गई। उस समय प्रदेश में जनता दल यूनाइटेड की सरकार थी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सिर्फ 500 करोड़ रुपये आपदा राहत की घोषणा की। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने वही सब बातें कहीं जो एक गैर बीजेपी सरकार का मुख्यमंत्री कहता है। 

तीन साल बाद बिहार में फिर बाढ़ आई। इस बार बाढ़ पहले जितनी भीषण नहीं थी। पर राजनीति के समीकरण बदल चुके थे। नीतीश कुमार अभी भी राज्य के मुख्यमंत्री थे, लेकिन अब बीजेपी भी उनकी सरकार का हिस्सा थी। इस बार तो जैसे केन्द्र की तरफ से मदद की बाढ़ आ गई। एसडीआरएफ ने 566 करोड़ रुपये तो तत्काल मदद के नाम पर राज्य के हवाले कर दिए। इस फंड से राज्य को 1416 करोड़ रुपये मिले। दूसरी तरफ एनडीआरएफ ने भी 1,255 करोड़ रुपये की मदद की। आलोचना का तो खैर सवाल ही नहीं था। प्रदेश बीजेपी ने तो मदद के लिए केन्द्र का बाकायदा आभार व्यक्त किया। 

अगर राज्य में बीजेपी की सरकार न हो तो केन्द्र सरकार किसी आपदा को आपदा मानने से भी इनकार कर सकती है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण है पश्चिम बंगाल के उत्तरी हिस्से में पिछले साल आई बाढ़ का। इस आपदा में 50 से अधिक लोगों की जान गई। इसके अलावा सार्वजनिक इन्फ्रास्ट्रक्चर और लोगों की संपत्ति का काफी नुकसान हुआ। लेकिन केन्द्र ने किसी भी तरह की मदद से इनकार कर दिया। उनका कहना था कि इस आपदा का दोषी दामोदर वैली कॉरपोरेशन है। यह प्राकृतिक नहीं, मानव जनित आपदा है। कुछ समय बाद केन्द्र सरकार ने बाढ़ प्रबंधन कार्यक्रम के तहत 1,290 करोड़ रुपये की रकम जरूर जारी की, लेकिन आपदा प्रभावित लोगों को केन्द्र की तरफ से कुछ नहीं मिला। 

इस सूची में अगर हम तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, तेलंगाना, झारखंड वगैरह को भी शामिल कर लें, तो सौतेले व्यवहार के हर साल के हमें बहुत से उदाहरण मिल जाएंगे। इसे ठीक से समझने के लिए केरल हाईकोर्ट की इस साल अक्तूबर में की गई टिप्पणियों को देखना होगा। न्यायमूर्ति एके जयशंकरन नांबियार और न्यायमूर्ति जोबिन सेबेस्टियन की पीठ ने यह टिप्पणी तब की थी जब केन्द्र सरकार ने वायनाड की आपदा के प्रभावित लोगों के कर्जे माफ करने से इनकार कर दिया था। 

"सौतेले व्यवहार" का जिक्र करते हुए अदालत ने कहा कि केन्द्र सरकार वायनाड के आपदा पीड़ितों को मदद देने में विफल रही। अदालत ने यह भी कहा कि असम और गुजरात की अपेक्षाकृत कम तीव्रता वाली आपदाओं में जिस तरह तेजी से मदद की गई, उससे लगता है कि केन्द्र या तो भेदभाव कर रहा है या फिर मदद नहीं करना चाहता। जजों ने इस बात पर जोर दिया कि संघीय व्यवस्था ऐसे भेदभाव की इजाजत नहीं देती, "एक लोकतांत्रिक गणराज्य में दलगत राजनीति लोगों के मिले मूल अधिकारों की गारंटी देने वाले संविधान को नजरअंदाज नहीं कर सकती।"

प्राकृतिक आपदा यह देख कर नहीं आती कि उस राज्य में किस पार्टी की सरकार है। सरकार को भी यह भेद नहीं करना चाहिए। देश को अगर संघीय व्यवस्था की भावना को बनाए रखना है तो आपदा राहत को तटस्थ आकलन और संविधानिक दायित्व से करना होगा, दलगत अवसरवाद से नहीं।