DPDP Act: डेटा संरक्षण, निजता के बहाने लोकतंत्र पर मंडराते खतरे
डिजिटल प्राइवेसी और डेटा प्रोटेक्शन एक्ट-2023 सरकार के हाथ लगने वाली दुधारी तलवार है। एक तरफ तो वह निजता की बात करती है, दूसरी तरफ अपने निजता के नाम पर अपने कईं कृत्यों छुपा भी सकती है।

मतदाता सूचियों की गड़बड़ियों के कई मामले कुछ समय से चर्चा में हैं। कहीं एक ही इपिक (वोटर कार्ड) नंबर के एक से ज्यादा मतदाता मिल रहे हैं, तो कहीं एक ही पते पर तीन हजार मतदाता हैं। विपक्षी दल इन मसलों को सरकार और चुनाव आयोग को घेरने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। वे मामले को संसद में तो उठा ही रहे हैं, प्रेस कांफ्रेंस भी कर रहे हैं। संसद में तो ऐसे मामले उठाने में कोई रोक नहीं होगी लेकिन मुमकिन है कि कुछ ही समय बाद अन्य मंचों पर ऐसे विवादों को उठाना संभव न हो।
डिजिटल प्राइवेसी और डेटा प्रोटेक्शन एक्ट-2023 यानी डीपीडीपीए के कई प्रावधान ऐसे हैं जिनसे इस मामले को उठाना अपराध की श्रेणी में रखा जा सकता है। मतदाता सूची में लोगों के नाम, पता, उम्र और तस्वीर होती है, यह लोगों की निजी जानकारी है और ऐसे आंकड़ों का संग्रह करना और इनका इस्तेमाल करने को इस कानून के प्रावधानों तहत अपराध ठहराया जा सकता है।
डीपीडीपीए संसद में 2023 में उस समय पास हुआ था जब मणिपुर हिंसा पर हंगामे के नाम पर पूरे विपक्ष को ही सदन से बाहर कर दिया गया था और विपक्ष का पूरा ध्यान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने पर था। बाद में सब आम चुनाव में व्यस्त हो गए तो यह कानून भी चर्चा से बाहर हो गया।
इस साल सरकार फिर से सक्रिय हुई और इसके नियम तैयार करके 25 जनवरी को उन पर सुझाव मांगे गए। सुझाव पांच मार्च तक दिए जाने थे। इस बीच खबर यह है कि अब इसके नियमों को अंतिम रूप दिया जा रहा है और संसद का बजट सत्र खत्म होने के बाद किसी भी समय इसे लेकर गजट नोटीफिकेशन जारी हो सकता है और इस कानून को लेकर जो ढेर सारी चिंताएं हैं, वे हकीकत बन सकती हैं।
इस कानून से जुड़ी एक बड़ी चिंता सूचना के अधिकार यानी आरटीआई कानून को लेकर है। 2005 में बने आरटीआई कानून ने आम लोगों को सरकारी दस्तावेजों तक पहुंचने का अधिकार दिया और सरकार पर जवाबदेही का दबाव बनाया। लेकिन अब डीपीडीपीए लोगों की किसी भी तरह की निजी जानकारी हासिल करने पर पूरी तरह रोक लगा देगा भले ही वह जानकारी देश हित में ही क्यों न हो।
अभी तक आरटीआई कानून के तहत सरकार में बैठे लोगों की शैक्षणिक योग्यता से लेकर सरकारी ठेकों वगैरह के बारे में वे जानकारियां मांगी जा सकती थीं जो जवाबदेही और पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए जरूरी हों। अब निजता के नाम पर ऐसी जानकारियों का रास्ता रोका जा सकता है। इससे भ्रष्टचार और अकुशलता को छिपाया जा सकता है।
नेशनल कैंपेन फाॅर पीपुल्स राइट टू इन्फाॅर्मेशन यानी एनसीपीआरआई की अंजलि भारद्वाज इस कानून की तुलना यूएपीए से करती हैं जो सीधे लोकतंत्र पर ही हमला करता है। इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन के अपार गुप्ता का कहना है कि सूचना का अधिकार और निजता का अधिकार दोनों दो बहन हैं। अब इन्हेें एक दूसरे के खिलाफ खड़ा किया जा रहा है। निजता के अधिकार को सूचना के अधिकार के खिलाफ हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है।
सूचना अधिकार को लेकर लंबे समय से सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा राॅय डीपीडीपीए को एक अलग तरह से देखती हैं। वह कहती हैं कि सूचना अधिकार कानून जब से बना है, इसे कमजोर करने की कोशिशें लगातार हुई हैं। इसमें जब भी संशोधन की कोशिश हुई, काफी विरोध हुआ। अब इस पर समानांतर हमला किया जा रहा है। वह कहती हैं, 'कई बार इस तरह के समानांतर हमले सीधे हमलों के मुकाबले ज्यादा खतरनाक होते हैं।'
लोकतंत्र के लिए लड़ाई में मीडिया और पत्रकार सबसे आगे होते हैं, नया कानून उनके लिए नई परेशानियां खड़ी करने वाला है। यूरोपियन यूनियन के डाटा संरक्षण कानून में पत्रकारों को यह रियायत दी गई है कि उनके खिलाफ इस कानून के तहत मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। लेकिन भारत का कानून उन्हें ऐसी कोई राहत या रियायत नहीं देता। इससे खासकर उन पत्रकारों के लिए दिक्कत खड़ी हो सकती है जो सत्ता के दुरुपयोग जैसे मामलों को उजागर करते हैं। डीपीडीपीए के तहत उन्हें डेटा फिड्यूसरी यानी डेटा एकत्र करने वाला घोषित किया जा सकता है जो लोगों का निजी डेटा जमा कर रहा है। इसके बाद डेटा प्रोटेक्शन बोर्ड उन पर 250 करोड़ रुपये का जुर्माना लगा सकता है। इस कानून में यह जुर्माने की न्यूनतम राशि है।
प्रख्यात वकील प्रशांत भूषण इस मामले को दूसरी तरह से देखते हैं। यह कानून हालांकि इस मकसद से नहीं बनाया गया कि इसे पत्रकारों के खिलाफ इस्तेमाल करना है, लेकिन इसकी शब्दावली इतनी व्यापक है कि इसे जरूरत पड़ने पर किसी भी पत्रकार के खिलाफ इस्तेमाल किया जा सकता है।
एक समस्या कंसेंट यानी सहमति को लेकर भी है। अगर आप किसी के बारे में कोई जानकारी लेते हैं और उसे प्रकाशित करते हैं, तो इस कानून के हिसाब से आपको उसकी कंसेंट लेनी होगी। जरूरत पड़ने पर सबूत भी देना होगा। पत्रकार और प्रेस क्लब ऑफ इंडिया की कार्यकारिणी सदस्य प्रज्ञा सिंह कहती हैं, 'मैं लोगों से बात करने या उनका इंटरव्यू लेने जाती रहती हूं। ऐसा नहीं हो सकता कि मैं अपने साथ कंसेंट फाॅर्म लेकर घूमूं। कोई भी जानकारी लेने से पहले फाॅर्म भरवाऊं।'
मशहूर अर्थशास्त्री जयति घोष एक दूसरे खतरे की ओर इशारा करती हैं। वह कहती हैं कि अगर डाटा जमा करना और उसे प्रकाशित करना अपराध की श्रेणी में आ सकता है, तो किसी भी तरह का अकादमिक शोध नामुमकिन हो जाएगा।
डीपीडीपीए सरकार के हाथ लगने वाली दुधारी तलवार है। एक तरफ तो वह निजता की बात करती है, दूसरी तरफ अपने निजता के नाम पर अपने कईं कृत्यों छुपा भी सकती है। निजी पक्ष के लिए इस कानून में लोगों का डेटा जमा करने, उनकी सहमति लेने और डाटा प्रोसेसिंग के लिए बहुत से प्रावधान हैं लेकिन सरकार के लिए खुली छूट है कि वह डेटा का किसी भी तरह का इस्तेमाल कर सकती है। जनवरी में पेश किए गए मसौदे के तहत सरकारी अधिकारी किसी भी नागरिक को जानकारी दिए बिना उसकी सारी सूचनाएं देश की सुरक्षा, सार्वभौमिकता या एकता के नाम पर किसी भी डेटा फिड्यूसरी से ले सकती है।
सबसे बड़ी चिंता यह है कि इस कानून में डेटा फिड्यूसरी की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है, जबकि यह इस कानून का सबसे महत्वपूर्ण शब्द है। बिना किसी स्पष्ट परिभाषा के सरकार द्वारा नियुक्त डेटा प्रोटेक्शन बोर्ड को यह निरंकुश अधिकार मिल जाता है कि वह किसी भी पत्रकार, शोधार्थी या कार्यकर्ता को डेटा फिड्यूसरी घोषित कर दे। ऐसे प्रावधानों की वजह से यह निजता को संरक्षित करने वाला कानून नहीं रह जाता बल्कि इसके नियंत्रण का औजार बनने का पूरा खतरा निहित है।
सबसे पहले सरकार डेटा प्रोटेक्शन बिल लेकर आई थी, तब सदन में हुए भारी विरोध के बाद उसे संयुक्त संसदीय समिति के हवाले कर दिया गया था। इस संसदीय समिति की सदस्य रहीं तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा बताती हैं- हमने इस बिल में संशोधन के लिए 80 पेज की सिफारिशें की थीं, लेकिन सरकार ने उन्हें कूड़ेदान के हवाले कर दिया। इस बीच विभाग के मंत्री भी बदल गए और सरकार ने डीपीडीपीए नाम से बिलकुल ही नया कानून बनाया जिसे संसद में पास भी करा लिया गया।
समिति के एक और सदस्य संसद सदस्य गौरव गोगोई इसमें जोड़ते हैं- हमने जो चर्चाएं की थीं उनमें सूचना के अधिकार का कहीं कोई जिक्र नहीं हुआ था, लेकिन नए कानून में इसे भी जोड़ दिया गया। इससे भी सरकार की नीयत पर सवाल तो खड़े होते ही हैं।
यह कानून सारी सत्ता केन्द्र सरकार के हाथ में केन्द्रित करता है। कई देशों में इसके लिए स्वतंत्र नियामक का प्रावधान हैं लेकिन हमारे यहां एक डेटा प्रोटेक्शन बोर्ड बनेगा जो पूरी तरह सरकार के इशारों पर चलेगा, जो डिजिटल भविष्य की ओर बढ़ते भारत में डेटा संरक्षण और लोकतांत्रिक आजादी दोनों को ही बहुत कमजोर धरातल पर खड़ा कर देगा।
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