हिमाचल को पिछली सरकार में जिस राह धकेला गया, उसमें पर्यावरणीय विनाश होना तय, आगे बढ़ने से रोकना जरूरी

हम भूल जाते हैं कि हमने प्राकृतिक पर्यावरण अपने पूर्वजों से न सिर्फ हासिल किया है बल्कि हमने इसे ऋण के तौर पर अपने बच्चें के लिए लिया है और इन्हें हमें वापस करना है। हिमाचल प्रदेश की हालत से स्पष्ट है कि हम बड़े पैमाने पर इस ऋण के डिफॉल्टर हैं।

हिमाचल को पिछली सरकार ने जिस राह धकेला गया, उसमें पर्यावरणीय विनाश होना तय
हिमाचल को पिछली सरकार ने जिस राह धकेला गया, उसमें पर्यावरणीय विनाश होना तय
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अभय शुक्ला

यह दिख रहा है कि पहली बार हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री बने सुखविंदर सिंह सुक्खू ने अपनी पारी की अच्छी शुरुआत की है, हालांकि उन्हें छह माह ही हुए हैं। उन्होंने बुजुर्गों, युवाओं हर किसी को प्रसन्न कर रखा है, प्रचार के दौरान किए गए कुछ वादों को पूरा किया है और बीजेपी के कुछ फैसलों को वापस लिया है। इसके साथ ही, 70,000 करोड़ रुपये से अधिक ऋण की वजह से मुश्किल में पड़े राज्य के राजस्व को बढ़ाने के लिए कुछ ठोस कदम भी उठाए हैं। लेकिन मुझे यह जरूर स्वीकार करना चाहिए कि एक महत्वपूर्ण मुद्दे पर उनकी सरकार से मैं बेहद निराश हूं- उन्होंने तेजी से बढ़ रहे विनाश और राज्य के प्राकृतिक पर्यावरण की तबाही की तरफ से आंखें मूंद रखी हैं और अपने पूर्ववर्तियों के विनाशकारी रास्तों पर ही चल रहे हैं।

भारतीय नेताओं ने उसमें महारत हासिल कर रखी है जिसे वी.एस. नायपॉल ने अपनी किताब- ‘एन एरिया ऑफ डार्कनेस’ में ‘न देखने की कला’ का नाम दिया है। अन्यथा कोई पहाड़ों के पत्थरों पर लिखी इन इबारतों को कैसे भूल सकता है- वन क्षेत्र का कम होना, ग्लेशियरों का तेजी से पिघलना (आईसीआईमोड (एकीकृत पर्वतीय विकास के लिए अंतरराष्ट्रीय केन्द्र) की हाल की रिपोर्ट बताती है कि 80 प्रतिशत हिमालयीन ग्लेशियर सन 2100 तक गायब हो जाएगी), ग्लेशियर झील के फटने से बाढ़ का खतरा (ग्लॉफ), तेजी से होने वाला अति निर्माण और अति पर्यटन जो न सिर्फ प्राकृतिक परिदृश्य को खतरा पहुंचा रहा है बल्कि राज्य के निवासियों को भी नुकसान पहुंचा रहा है।

हिमाचल को पिछली सरकार ने जिस राह धकेला गया, उसमें पर्यावरणीय विनाश होना तय
हिमाचल को पिछली सरकार ने जिस राह धकेला गया, उसमें पर्यावरणीय विनाश होना तय
फोटो: नॉर्दर्न फिल्म्स/यश राज

क्या उत्तरकाशी ने हमें कोई सबक नहीं दिया है? जब दीर्घकालिक, पर्यावरण-अनुकूल ‘विकास’ के नए परिप्रेक्ष्य वाली कोई नीति नहीं हो या जमीन पर कोई प्रमाण वाला कदम नहीं उठाया गया हो, तो हिमाचल को ‘हरित राज्य’ (चाहे इसका जो भी मतलब हो) बनाने और ‘कार्बन न्यूट्रल’ होने की खोखली बातों का मतलब क्या है? मुझे अपनी बात साबित करने के लिए सिर्फ तीन बिंदुओं पर केन्द्रित करने दें।

आने वाली सबसे बड़ी आपदा हाल में अधिसूचित शिमला विकास योजना, 2041 (एसडीपी-41) है। नौकरशाही की अनदेखी और लापरवाही की यह आश्चर्यजनक योजना शिमला और यहां रह रहे हजारों लोगों के लिए डेथ वारंट है, क्योंकि वे सिसमिक जोन-4 इलाके में हैं। यह अब तक प्रतिबंधित क्षेत्रों- कोर और हेरिटेज जोन में निर्माण की अनुमति देता है; वह उस नन-कोर में पांच मंजिला भवन की अनुमति देता है, जहां अभी 2+1 फ्लोर की अनुमति है; 20 साल से अधिक के कड़े प्रतिबंध के बाद शिमला के एकमात्र बचे हुए ग्रीन लंग्स- शहर के ग्रीन बेल्ट वाले 400 हेक्टेयर वन क्षेत्र में लोग (मतलब, बिल्डर और होटल वाले) निर्माण कर सकेंगे। एसडीपी-41 का घोषित लक्ष्य शहर की आबादी तीन गुना, जी हां, तीन गुना करना है (2011 की जनगणना में यह 2 लाख थी, 2040 में यह 6 लाख होगी)।

हिमाचल को पिछली सरकार ने जिस राह धकेला गया, उसमें पर्यावरणीय विनाश होना तय
हिमाचल को पिछली सरकार ने जिस राह धकेला गया, उसमें पर्यावरणीय विनाश होना तय
फोटो: नॉर्दर्न फिल्म्स/यश राज

यह ऐसा शहर है जहां यहां के लोग और पर्यटक अपने वाहन पार्क नहीं कर सकते; जहां दो किलोमीटर जाने में 30 मिनट लगते हैं; जहां हर साल पानी की भारी किल्लत होती है; जहां कुछ इलाकों में किसी की मौत हो जाने पर देह बिल्कुल ऊपरी माले से उतारनी पड़ती है, क्योंकि सीढ़ियों से उतारने की जगह ही नहीं होती; जहां कभी सड़कों पर टहलना सुकून होता था लेकिन अब तो ऐसा अपने रिस्क पर ही किया जा सकता है; जहां पहले ही 20,000 अनियमित भवन हैं, क्योंकि किसी सरकार में इनके खिलाफ कार्रवाई करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं रही है।

एसडीपी-41 के हर प्रावधान को सरकार की अपनी विशेषज्ञ समितियों और निरपेक्ष टाउन प्लानरों की सलाह के खिलाफ शामिल किया गया है। राष्ट्रीय हरित ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने 2018 में इसे रद्द कर दिया था; बाद में राज्य की अपील को रद्द करते हुए राज्य के हाईकोर्ट ने भी इसे रद्द कर दिया। पिछली बीजेपी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की जिसने मामले के महत्व में गए बिना ही या एनजीटी और हाईकोर्ट- दोनों ने जिस आधार पर इसे रद्द किया था, उस पर कुछ कहे बिना ही मई में एक अजीब आदेश पारित किया।

उसने इस शर्त के साथ नई योजना को अधिसूचित करने की अनुमति दे दी कि सरकार इस पर तुरंत नहीं, एक माह बाद काम करेगी! राज्य सरकार इस पर तुरंत काम नहीं कर सकती लेकिन आप समझ सकते हैं कि बिल्डरों ने इस पर काम शुरू कर दिए हैं। हमें सुप्रीम कोर्ट के पहेली वाले आदेशों से धक्का पहुंच सकता है लेकिन यह विचलित करने वाला तो है ही- जब तक महत्व के आधार पर अंतिम तौर पर मामले पर निर्णय नहीं लिया जाता, तब तक क्यों नहीं यथास्थिति बनाई रखी गई? क्या कोर्ट भी उत्तरकाशी को इतनी जल्दी भूल गया?

उम्मीद थी कि नई सरकार सुप्रीम कोर्ट में की गई अपील वापस ले लेगी और एनजीटी और हाई कोर्ट के फैसलों का सम्मान करेगी और उसका पालन करेगी। खास तौर से इसलिए कि अब पांच साल तक कोई चुनाव नहीं हैं। लेकिन साफ है कि यह सरकार भी बिल्डरों की लॉबी के दबाव का सामना करने में सक्षम नहीं है। एक दिन शिमला के निवासी इनका खामियाजा भुगतेंगे लेकिन जब तक ईवीएम सही संख्या लाते रहते हैं, कौन ध्यान रखता है?


राज्य के पर्यावरण को लेकर चिंता पैदा करने वाला दूसरा मुद्दा नाजुक इलाके या बड़ी संख्या मंा लोगों के विस्थापन पर ध्यान दिए बिना सड़क बनाने और इन्हें चौड़ा करने की अंधाधुंध सनक है। कम-से-कम 69 राष्ट्रीय राजमार्ग परियोजनाएं स्वीकृत की गई हैं जिनमें शिमला-मटौर, पठानकोट-मंडी, कीरतपुर-मनाली और परवानू-शिमला समेत पांच 4-लेन हाईवे हैं। यह नितिन गडकरी के वार्षिक लक्ष्यों या राजनीतिकों और इंजीनियरों की तिजोरियों के लिए अच्छी खबर हो सकती है लेकिन हिमाचल को इनकी जरूरत नहीं है। पहाड़ी इलाकों में 4-लेन करना बहुत ही विनाशकारी है क्योंकि इसके लिए जंगल काटे जाएंगे और सालों तक भूस्खलन होंगे।

लगभग पांच साल की देरी के बाद परवानू-शिमला हाईवे के 2021 में पूरा होने की घोषणा की गई लेकिन भूस्खलन आज भी होते रहते हैं और दो लेन महीनों तक बंद रहते हैं। यह संयोग नहीं है कि यह खास नेशनल हाईवे और मनाली हाईवे इस साल जून के दूसरे पखवाड़े में मूसलधार बारिश से बहुत बुरी तरह प्रभावित रहे जिससे हजारों यात्री और पर्यटक 24 घंटे तक फंसे रहे। यह हर साल होता है और सरकार हर साल कुछ और ऐसी परियोजनाएं जोड़ती रहती है। सरकार को 4-लेन करने का यह पागलपन छोड़ देना चाहिए और इसकी जगह जिलों की ग्रामीण सड़कों की बेहतरी पर ध्यान देना चाहिए।

वैसे भी, 4-लेन हाईवे वाहन यातायात को बहुत अधिक बढ़ा देते हैं। शिमला पुलिस के रिकॉर्ड बताते हैं कि इस साल शिमला आने वाले वाहनों की संख्या 25 प्रतिशत तक बढ़ गई। शिमला के पास सिर्फ 6,000 वाहन पार्क करने की जगह है लेकिन सीजन टाइम में हर रोज बाहर से 20,000 वाहन आते हैं। (यह लगभ 1,00,000 स्थनीय तौर पर पंजीकृत वाहनों के अतिरिक्त है।) शिमला पुलिस का कहना है कि 60,000 वाहन अनधिकृत तौर पर सड़कों पर पार्क किए जाते हैं और शहर के एक छोर से दूसरे तक की महज सात किलोमीटर की दूरी तय करने में औसतन 90 मिनट लगते हैं।

ऐसा ही हाल मनाली, धर्मशाला, सोलन, पालमपुर, कसौली का है। हर रोज करीब 10,000 वाहन अटल टनल पार करते हैं। ये सभी पर्यटक होते हैं! यह बात शीशे की तरह साफ है कि इस तरह के भौगोलिक इलाके में इतनी बड़ी संख्या में आ रही गाड़ियों के लिए जरूरी बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं। हमें राज्य में शामिल होने वाली गाड़ियों की संख्या को हतोत्साहित करना होगा जबकि 4-लेन की वजह से होगा इसका ठीक उल्टा और इससे गाड़ियां राज्य के शहरों की ओर और आकर्षित होंगी जबकि सड़कें और शहर पहले से ही गाड़ियों की संख्या के कारण परेशान हैं। नए मुख्यमंत्री से उम्मीद थी कि वह इस पागलपन पर रोक लगाएंगे, लेकिन इसके उलट उन्होंने केंद्र सरकार से और ऐसी सड़कों के लिए अनुरोध किया है।


मंडी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा एक और निराशाजनक परियोजना है। इस अव्यावहारिक योजना की कोई जरूरत नहीं थी। अगर राज्य के सभी तीन वर्तमान एयरपोर्ट अपनी क्षमता से 50 प्रतिशत कम काम कर रहे हैं, तो ऐसे में एक और हवाईअड्डे को बनाने का मतलब? खास तौर से तब जब इसकी पर्यावरणीय और सामाजिक लागत बहुत बड़ी हो। कारण इसके लिए हजारों पेड़ काटने होंगे, सैकड़ों एकड़ का कंक्रीटीकरण करना होगा, पानी की धाराओं को मोड़ना होगा और हजारों खेतिहर परिवारों को विस्थापित करना होगा। यहां तक कि इसपर अच्छा-खासा पैसा भी खर्च होगा। ऐसा राज्य जिस पर 80,000 करोड़ का ऋण है और जिसे समय पर वेतन और पेंशन देने में भी दिक्कत हो रही है, उसे इस परियोजना पर 5,220 करोड़ अतिरिक्त खर्च क्यों करना चाहिए? लेकिन क्या राज्य सरकार सुन रही है?

बड़े अफसोस की बात है कि राज्य का हालात ने यह साफ कर दिया है कि नेता, चाहे जिस भी पार्टी के हों, उन्हें पर्यावरण की कतई कोई परवाह नहीं और न ही वोटरों की सेहत पर इसका कोई असर पड़ता है। इसके लिए हम ही दोषी हैं क्योंकि हममें दूरदृष्टि नहीं है। हम अपने छोटे-छोटे अल्पकालिक फायदे के लिए अपनी आगे की पीढ़ियों के बारे में सोचने की जहमत नहीं उठाते और न ही अपने बहुमूल्य प्राकृतिक विरासत को चुनावी मुद्दा ही बनाते हैं।

हम भूल जाते हैं कि हमने प्राकृतिक पर्यावरण अपने पूर्वजों से न सिर्फ हासिल किया है बल्कि हमने इसे ऋण के तौर पर अपने बच्चें के लिए लिया है और इन्हें हमें वापस करना है। हम बड़े पैमाने पर इस ऋण के डिफॉल्टर हैं।

(अभय शुक्ला हिमाचल प्रदेश कैडर के रिटायर्ड आईएएस अधिकारी हैं)

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Published: 14 Jul 2023, 6:01 PM