बुआई के मौसम में उर्वरक की किल्लत से जूझते किसान, बाढ़ की बर्बादी के बाद एक और संकट
पिछले कुछ साल से डीएपी की किल्लत का यह सिलसिला लगातर बढ़ रहा है। रबी हो या खरीफ जब भी फसल की बुआई का वक्त आता है, इस तरह की खबरें पूरे देश से आने लगती हैं। देश के तकरीबन सभी क्षेत्रों के किसान इस किल्लत से जूझते दिखाई देते हैं।

बाढ़ जब सब कुछ बर्बाद कर दे किसान के पास एक ही चारा बचता है कि वह अगली फसल से उम्मीद बांधें। लेकिन भीषण बाढ़ के बाद पंजाब के किसानों की यह उम्मीद भी इस बार संघर्ष और हताशा में बदलती जा रही है। रबी की बुआई का मौसम है और उर्वरक की किल्लत से किसान जूझ रहे हैं।
रबी के बुआई के लिए खेत तैयार करने का समय आ गया है, इसके लिए जरूरी उर्वरक डाई अमोनिमय फास्फेट यानी डीएपी किसानों को असानी से उपलब्ध नहीं है। सरकारी खरीद केंद्रों और एग्रीकल्चर कोऑपरेटिव सोसायटी के केंद्रों में इसकी किल्लत हर जगह देखी जा सकती है। पूरे पंजाब से इन केंद्रों के बाहर लंबी लाइनें लगने और किसानों के निराश लौटने की खबरें आ रही हैं। डीएपी की एक बोरी की कीमत है 1350 रुपये लेकिन उसकी कालाबाजारी होने लगी है। काले बाजार में यही बोरी दो हजार रुपये तक की मिल रही है।
समस्या सिर्फ पंजाब की ही नहीं है। ऐसी खबरें पूरे देश से आ रही हैं। दो सप्ताह पहले राजस्थान के हनुमानगढ़ में एक सरकारी खरीद केंद्र पर लंबी लाइन लगी। उतना डीएपी वहां था ही नहीं कि सभी किसानों को मिल पाता। जल्द ही धक्का-मुक्की शुरू हो गई। किसानों की नाराजगी बढ़ती दिखी तो पुलिस ने लाठीचार्ज शुरू कर दिया। जो किसान उर्वरक लेने आए थे वे हाथ-पैर तुड़वा कर घर वापस पहुंचे।
हरियाणा में समस्या कुछ दूसरी ही है। वहां कह दिया गया है कि डीएपी उन्हीं किसानों को मिलेगी जो सरकार के पोर्टल ‘मेरी फसल, मेरा ब्योरा‘ पर रजिस्ट्रेशन करवाएंगे। अब खरीद केंद्रों पर लाईन लगाने से पहले उन्हें साइबर कैफे पर लाइन लगानी पड़ रही है। हर जगह की तरह किल्लत वहां भी है।
ऐसा नहीं है कि डीएपी बिलकुल ही उपलब्ध नहीं है। समस्या यह है कि जरूरत के मुकाबले इसकी उपलब्धता काफी कम है। अगर हम पंजाब का उदाहरण लें तो रबी के फसल के लिए उसकी जरूरत 5.5 लाख टन डीएपी की है। जबकि राज्य को अभी तक 3.5 लाख टन की ही आपूर्ति हो सकी है। अगले सप्ताह तक 40 हजार टन की आपूर्ति और आने की उम्मीद है। सरकारी तौर पर यह वादा किया जा रहा है कि नवंबर में इसकी और सप्लाई होगी। लेकिन यह सिर्फ आश्वासन ही है।
किसान नेता जसबीर सिंह बताते हैं- गेहूं की बुआई आमतौर पर नवंबर के पहले सप्ताह तक कर दी जाती है। इसमें देरी हो तो पैदावार कम होने का खतरा रहता है। जाहिर है अगर सप्लाई बाद में आती है तो किसानों को इसका पूरा फायदा नहीं मिल सकेगा।
यहां एक और बात याद रखना जरूरी है कि पिछले साल रबी सीजन में पंजाब में चार लाख टन डीएपी की सप्लाई ही हो सकी थी। तब बहुत से किसानों को ब्लैक मार्केट से यह उर्वरक खरीदकर काम चलाना पड़ा था। इस बार जो अफरा-तफरी दिख रही है उसकी एक वजह किसानों के वे पिछले अनुभव भी हैं।
पिछले कुछ साल से डीएपी की किल्लत का यह सिलसिला लगातर बढ़ रहा है। रबी हो या खरीफ जब भी फसल की बुआई का वक्त आता है, इस तरह की खबरें पूरे देश से आने लगती हैं। देश के तकरीबन सभी क्षेत्रों के किसान इस किल्लत से जूझते दिखाई देते हैं।
इसी साल अगस्त में कर्नाटक के कृषि मंत्री एम. चेलवरईस्वामी ने केंद्रीय रसायन और उर्वरक मंत्री जेपी नड्डा को एक पत्र लिखकर शिकायत की थी कि 2024-25 में राज्य को रबी और खरीफ के लिए 4.91 लाख टन डीएपी भेजा गया जबकि जरूरत 5.85 लाख टन की थी।
सरकार की तरफ से लगातार यह बताया जा रहा है कि डीएपी की यह किल्लत चीन द्वारा निर्यात पर लगाई गई पाबंदियों की वजह से है। संसद के मानसून सत्र में रसायन और उर्वरक राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल ने बताया था कि 2023-24 में चीन ने 22.28 लाख टन डीएपी भारत को भेजा था लेकिन 2024-25 में इसकी मात्रा घटकर 8.47 लाख टन ही रह गई।
भारत ने इसकी भरपाई सउदी अरब, मोरक्को और जार्डन जैसे देशों से करने की कोशिश की लेकिन यह भरपाई पूरी तरह से नहीं हो सकी। जुलाई में भारत ने सउदी अरब से हर साल 31 लाख टन डीएपी आयात करने का समझौता किया था। तब यह दावा किया गया था कि अब यह समस्या खत्म हो जाएगी। लेकिन जमीन पर जो दिख रहा है वह बताता है कि समस्या अभी भी जस की तस बनी हुई है।
भारत ने रूस से भी इस कमी को पूरा करने की कोशिश की। लेकिन वहां से जो आयात हो रहा है वह डाई अमोनियम फास्फेट नहीं बल्कि मोनो अमोनियम फास्फेट है। जो किसानों की जरूरत को उस तरह पूरा नहीं करता जिस तरह डीएपी करता है। दूसरे अमेरिका जिस तरह से भारत पर दबाव डाल रहा है उसके चलते यह आयात कितने समय तक चल पाएगा अभी नहीं कहा जा सकता।
इस बीच सरकार ने नैनो डीएपी और नैनो यूरिया लांच किया और यह उम्मीद बांधी कि इससे कुछ हद तक किल्लत दूर होगी। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसकी खूबियों का प्रचार करते दिखाई दिए। लेकिन किसानों ने इसे पूरी तरह नकार दिया। बाद में बहुत से कृषि विशेषज्ञों ने भी माना कि ये उर्वरक का विकल्प नहीं हैं, इसे सिर्फ सप्लीमेंट की तरह ही इस्तेमाल किया जा सकता है।
ठीक यहीं पर 3 अगस्त 2022 को जारी प्रेस इनफाॅरमेशन ब्यूरो की एक रिलीज़ को देखना भी जरूरी है। इस प्रेस विज्ञप्ति में बताया गया है कि भारत ने डीएपी के मामले में आत्मर्निभर होने की ओर कदम बढ़ा दिए हैं। ुयह रिलीज उस मौके पर जारी हुई थी जब भारत की फर्टीलाइजर कंपनी कोरामंडल इंटरनेशनल ने सेनेगल की एक फर्टीलाईजर कंपनी में 45 फीसदी इक्विटी शेयर खरीदे थे।
बात भले ही आत्मनिर्भर बनने की हो रही हो लेकिन आंकड़ें कुछ और ही कहानी कह रहे हैं। जेपी नड्डा द्वारा संसद में दिए गए एक लिखित उत्तर के अनुसार देश में 2022-23 में डीएपी का 43.47 लाख टन उत्पादन हुआ। 2023-24 में यह मामूली सा घटकर 42.93 लाख टन रह गया। अगले ही साल यह उत्पादन काफी तेजी से गिरा और 37.69 लाख टन पर पहुंच गया। यानी जिस समय चीन से डीएपी का निर्यात कम हुआ हमारा उत्पादन भी कम हो गया।