किसान आंदोलन लिख रहा है पश्चिमी उत्तर प्रदेश की नई राजनीतिक इबारत

पंचायत शुरु होने से पहले हमने कई किसानों से बात की। उनमें से एक किसान संजीव चौधरी ने कहा, “क्यों न आते, घर की औरतें कह रही हैं कि जाते क्यों नहीं...” वहीं एक बुजुर्ग किसान ने दोनों हाथ उठाकर ऐलान कर दिया, “भाजपा वालों सुनलो, तुम्हारा हुक्का पानी बंद...”

फोटो : Getty Images
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तसलीम खान

भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत की आंख से टपकी आंसू की बूंदों ने किसान आंदोलन में ऐसी जान फूंकी है जिसकी धमक पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश से लेकर यूपी से लगे हरियाणा के इलाकों में भी देखी जा रही है। किसानों ने अब इस आंदोलन को अपने मान-सम्मान का मुद्दा बना लिया है और तय किया है कि जब तक तीनों कृषि कानूनों की वापसी नहीं होती, किसी हाल आंदोलन से पीछे नहीं हटेंगे।

अभी तक जिस आंदोलन को सरकारी तौर पर कुछेक किसानों खासतौर से पंजाब के सिख किसानों का आंदोलन साबित करने की कोशिशें हो रही थीं, उसमें टिकैत की भावुक अपील ने नया जोश भर दिया है। अब किसान आंदोलन में सिखों से कहीं अधिक जाट और अन्य जातियों के किसानों की संख्या बढ़ती जा रही है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई इलाकों में किसान पंचायतों का सिलसिला शुरु हो चुका है। तो क्या टिकैत आंसुओं ने वह काम कर दिया है जो कोई भी भाषण नहीं कर सकता। इसे परखने और देखने के लिए हमने दिल्ली से कोई 70 किलोमीटर दूर बड़ौत जाने का फैसला किया, जहां सर्वखाप पंचायत बुलाई गई थी। सिर्फ एक दिन पहले ही शाम को इस पंचायत का ऐलान किया गया था, और हम देखना चाहते थे कि ग्रामीण इलाकों में आंदोलन को लेकर क्या हलचल है।

हम कोई 11 बजे बड़ौत तहसील मैदान पहुंच गए थे। इसी मैदान में पंचायत होनी थी। गेट पर कुछ पुलिस वालों के अलावा हमें कोई हलचल नहीं दिखी। अंदर मैदान भी खाली पड़ा था। 12 बजे पंचायत होनी थी, लेकिन बमुश्किल 10 लोग ही मैदान में दिखे। हमें लगा कि पंचायत तो दूर यहां तो नुक्कड़ सभा भी नहीं होने वाली। रविवार था, तहसील बंद थी, लेकिन तहसील में कैंटीन चलाने वाला राकेश चुस्त दुरुस्त था। समोसे, कलाकंद और मिल्ककेक बनाकर तैयार रखा था। हमने उससे चाय ली और कहा कि, ‘लगता है पंचायत तो फुस्स हो गई...’ उसने मुस्कुराते हुए खालिस जाट अंदाज में कहा, “जाट बहुल इलाका है भाई, देखते जाओ...”


हमें भरोसा तो नहीं हुआ, हां हमने वहां रुकने का फैसला जरूर किया। अगला आधा घंटा चौंकाने वाला था। अचानक मैदान के गेट की तरफ से ‘जय जवान,जय किसान’ के नारे सुनाई देने लगे। एक के पीछे एक ट्रैक्टरों की कतार मैदान में आने लगी। साथ ही भारी तादाद में किसानों के झुंड पहुंचने लगे। एक ट्रैक्टर से खींचकर एक ट्रॉली लाई गई, जिस पर मंच बना दिया गया। मैदान में लगे मोदी और योगी की फोटो वाले सरकारी विज्ञापन के होर्डिंग को किसान आंदोलन के बैनर से ढंक दिया गया। पूरे मैदान में तिरंगे लहराने लगे। हमने इस दौरान बाहर निकलकर देखा, जहां तक नजर जाती सड़के को दोनों तरफ ट्रैक्टरों की कतार नजर आती और नजर आते तिरंगे झंडे।

पंचायत शुरु होने से पहले ही हमने कई किसानों से बात की। उनमें से एक किसान संजीव चौधरी ने कहा, “क्यों न आते, घर की औरतें कह रही हैं कि जाते क्यों नहीं...” वहीं एक बुजुर्ग किसान ने दोनों हाथ उठाकर ऐलान कर दिया, “भाजपा वालों सुनलो, उनका साथ देने वालों सुनलो , तुम्हारा हुक्का पानी बंद...”

यह सब पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हो रहे राजनीतिक बदलाव की आहट का सबूत है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लगभग हर जिले में किसान आंदोलन के समर्थन में पंचायतें हो रही हैं। इनमें जुटती किसानों की भारी जिस संख्या से सत्तारूढ़ बीजेपी सकपकाई हुई दिखने लगी है। यूं भी 28 जनवरी को गाजीपुर बॉर्डर पर टिकैत की भावुक अपील के बाद जैसे ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हलचल शुरु हुई, सरकार को किसान आंदोलन पर डंडा चलाने से हाथ पीछे खींचने पड़े थे।

दरअसल बीजेपी ने 26 जनवरी गणतंत्र दिवस पर लाल किले पर निशान साहिब फहराए जाने के बाद यह प्रचारित करना शुरु किया था कि किसान आंदोलन को कट्टरपंथी सिख नियंत्रित कर रहे हैं। तमाम न्यूज चैनलों ने भी इसे जोर-शोर से प्रचारित किया। इस बहाने बीजेपी ने सिखों और हिंदू किसानों, खासतौर से जाट किसानों के बीच एक दरार डालने की कोशिश की। लेकिन इस बात का एहसास होते ही जाट किसानों ने एक तरह से आंदोलन की कमान अपने हाथ में ले ली।


ध्यान रहे कि बीते करीब एक दशक से बीजेपी जाटों को अपने निहित स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करती रही है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उसने जाटों को मुस्लिमों के खिलाफ इस्तेमाल किया तो हरियाणा में गैर जाट हिंदू जातियों को जाटों के खिलाफ। इसका उसे फायदा भी हुआ। 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को उत्तर प्रदेश में जाटों के 77 फीसदी वोट (सीएसडीएस-लोकनीति के सर्वे के मुताबिक) हाथ लगे, लेकिन हरियाणा में उसके हिस्से में जाटों के सिर्फ 19 फीसदी वोट ही आ सके। जाटों के कम वोट मिलने के बावजूद कांग्रेस और इनेलो के बीच वोटों का बंटवारा होने का उसे हरियाणा में फायदा हुआ।

इसी तरह 2019 में बालाकोट एयरस्ट्राइक से पैदा राष्ट्रवादी भावना का लाभ तो मिला ही, उसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटों के 91 फीसदी वोट मिले और हरियाणा में उसके हिस्से में आए जाट वोटों का प्रतिशत 2014 के 19 फीसदी से बढ़कर 50 फीसदी तक जा पहुंचा। (सीएसडीएस के सर्वे के मुताबिक)। इस सबके बावजूद जाटों को बीजेपी में वह राजनीतिक जगह नहीं मिली, जिसकी उन्हें अपेक्षा थी। जाट पहले ही अंदर-अंदर बीजेपी से नाराज थे, और ऐसे में कृषि कानूनों ने उन्हें एक मंच दे दिया। इसके साथ ही हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेशों के जाटों के बीच चलने वाली परंपरागत दुश्मनी को भी खत्म कर दिया।

हरियाणा में खट्टर सरकार ने जिस तरह किसानों पर लाठियां चलाईं उससे हरियाणा के जाट किसान पहले ही नाराज थे और बीजेपी की सहयोगी दुष्यंत चौटाला की जजपा को विरोध का सामना करना पड़ रहा था, अब पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राकेश टिकैत के आंसुओं से किसान आंदोलन के लिए समर्थन की बाढ़ सी आ गई है।

अब पश्चिम उत्तर प्रदेश बड़े पैमाने पर राजनीतिक करवट लेता दिख रहा है। 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी प्रभारी के तौर पर अमित शाह ने जाटों को अपने साथ मिलाया था, इसे उनका मास्टर स्ट्रोक माना गया था। लेकिन अब उन्हीं अमित शाह द्वारा गृहमंत्री के तौर पर किसानों पर आजमाए जा रहे हथकंडों से जाट बेचैन हैं।

हाल के दिनों में मथुरा, मुजफ्फरनगर, बागपत, बड़ौत और बिजनौर में हुई किसानों की महापंचायतों से संदेश साफ है। इन पंचायतों में लाखों नहीं तो पचासियों हजार किसान शामिल हो रहे हैं। इन इलाकों में भारतीय किसान यूनियन के नरेश टिकैत और राकेश टिकैत ने ही बीजेपी को रास्ता बनाने में मदद की थी, और अब यही टिकैत खुलेआम ऐलान कर रहे हैं कि उनसे गलती हुई और अब वे इसे दुरुस्त करेंगे। इतना ही नहीं बीजेपी के हाथों शिकस्त देख चुकी चौधरी अजित सिंह की राष्ट्रीय लोकदल भी दमखम के साथ किसान आंदोलन में कूद चुकी है। मथुरा में जयंत चौधरी ने कहा भी, “अब फिर से किसान बीजेपी के सांप्रदायिक एजेंडे के जाल में नहीं फंसने वाला... ”

ध्यान रहे कि 2013 के मुजफ्फरनगर दंगे के बाद से आरएलडी राजनीतिक तौर पर दिक्कतों का सामना कर रही है। लेकिन किसान आंदोलन के समर्थन में हो रही पंचायतों में जाटों के साथ ही सैनियों, गुर्जरों के अलावा ही मुस्लिम किसानों की भागीदारी ने आने वाले दिनों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीतिक इबारत को नए सिरे से लिखना शुरु कर दिया।

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