पहलगाम से उपजे 5 सवाल

सबसे बड़ी जरूरत है कि राष्ट्रीय सहमति हो, पारदर्शिता हो, सुधार हो और जनता का विश्वास बहाल हो।

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हरजिंदर

पहलगाम में 22 अप्रैल को हुए आतंकवादी हमले जैसे राष्ट्रीय संकट के समय खंडित प्रतिक्रिया दुश्मन को शह दे सकती है और जनता के आत्मबल को आहत कर सकती है। सयाने लोग ऐसे मौके पर संयम और सावधानी बरतते हुए मामले का राजनीतिकरण न करने की सलाह देते हैं। लेकिन जांच-परख न करने वाले मौन के भी अपने खतरे हैं। यह व्यवस्थागत नाकामियों को छुपा सकता है, संस्थाओं में भरोसा घटा सकता है और राष्ट्र में असुरक्षा बोध पैदा कर सकता है।

जवाबदेही लोकतंत्र की प्राणवायु है। कठिन सवाल पूछना बांटने का प्रयास नहीं, बल्कि यह सुनिशचित करने की कोशिश है कि वह भयानक समय फिर न लौटे। जब देश पहलगाम के सदमे से उबर रहा है, 'राष्ट्र हित' इस बात में है कि हम सावधानी के साथ पारदर्शी विमर्श शुरू करें। पहलगाम हमले के लगभग दो सप्ताह बाद मौन अब कोई विकल्प नहीं है। पांच सवाल हैं जिन पर तुरंत ध्यान देने की जरूरत है।  

सवाल नंबर -1 : पहलगाम आतंकवादी हमले पर हुई सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्री की अनुपस्थिति से क्या हमने राष्ट्रीय एकता का एक मौका खो दिया?

पहलगाम आतंकवादी हमले के बाद 24 अप्रैल को केन्द्र सरकार ने सामूहिक निर्णय पर पहुंचने के लिए सर्वदलीय बैठक का आयोजन किया। लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस बैठक में मौजूद न रहने का फैसला किया। शायद यह उनकी सबसे बड़ी प्राथमिकता नहीं थी, इसके बजाय वह बिहार में आने वाले विधानसभा चुनाव के प्रचार में पहुंच गए। इससे यह आभास मिला कि हमारे राष्ट्रीय प्रत्युत्तर में कुछ कमी है, वह भी तब, जब दुश्मन हमारी हर गति को देख रहा था।

इस बैठक में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी समेत सभी दलों के बड़े नेता मौजूद थे। इसकी अध्यक्षता रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने की। सबने साझा तौर पर हमले की निंदा की और सहयोग का पूरा आश्वासन दिया। सरकार ने सुरक्षा खामी की बात स्वीकारी जिसका कोई बड़ा अर्थ नहीं है क्योंकि प्रधानमंत्री ने त्रासदी के समय राष्ट्रीय संकल्प के इस मौके पर खुद आगे बढ़कर अगुवाई का मौका खो दिया। 

सवाल नंबर 2: क्या हम कश्मीर से सही बर्ताव कर रहे हैं?

पहलगाम में हुआ हमला बताता है कि कश्मीर को सिर्फ सुरक्षा उपायों से ही नहीं संभाला जा सकता। स्थायी शांति के लिए सामान्य हालात के सतही दावों से आगे बढ़कर कुछ करने की जरूरत है। इसके लिए कश्मीरी जनता की महत्वाकांक्षाओं, उम्मीदों और नाराजगी के हिसाब से लगातार और वास्तविक कदम उठाने होंगे।

हमले के बाद कश्मीर के लोगों ने एक आवाज में जवाब दिया, जो वहां बहुत कम ही होता है। सड़कें सूनी हो गईं, दुकानों में ताले लटक गए और स्कूल बंद हो गए- किसी डर की वजह से नहीं, बल्कि सामूहिक शोक और विरोध में। प्रमुख अखबारों ने अपने पहले पन्ने काले रंग में छापे, यह शोक और विरोध का सबसे बड़ा प्रतीक होता है। बड़ी बात यह कि इस बार इस गुस्से का निशाना भारत सरकार नहीं, बल्कि आतंक के सूत्रधार थे।  

नौजवानों ने शांति जुलूस निकाले और खूंरेजी से मुक्त भविष्य की अपनी चाहत स्पष्ट कर दी। उनकी इस प्रतिक्रिया में बदलाव स्पष्ट तौर पर दिखा। नई पीढ़ी को नफरत नहीं उम्मीद चाहिए, अलगाव नहीं समावेश चाहिए। श्रीनगर के वयोवृद्ध पत्रकार मुहम्मद सईद मलिक ने 'संडे नवजीवन' को बताया, "जिस तरह से वे निकल कर बाहर आए, उनका गुस्सा बहुत कुछ कह रहा था। यह सब अपने आप हुआ। यह बताता है कि आज के कश्मीरी असल में चाहते क्या हैं।"

एकता के इस क्षण को गले लगाने के बजाय देश दूसरी तरफ देख रहा था। कश्मीर की इस भावना को देश के हर कोने में समर्थन मिलना चाहिए था। लेकिन पाकिस्तान के खिलाफ चिल्लाने की आवाजें तो हर तरफ थीं, कश्मीरी आवाम के साथ खड़े होने के संदेश बहुत कम थे। यह मौका था जब हम एक लंबे दौर से चली आ रही दूरी को पाट सकते थे लेकिन हमने यह मौका खो दिया। 

अगर भारत वास्तव में इस क्षेत्र से पाकिस्तान का प्रभाव कम करना चाहता है, तो सबसे प्रभावी तरीका सिर्फ बदला लेना भर नहीं है, यह तरीका कश्मीरी आवाम के साथ खड़े होने और उन्हें सशक्त बनाने का है। एक मजबूत, समावेशी और समृद्ध कश्मीर ही हमारी ताकत बन सकता है।


सवाल नंबर 2बी: और क्या हम कश्मीरियों से सही बर्ताव कर रहे हैं?

कश्मीर घाटी के बाहर तो हालात और भी खतरनाक दिखे। पंजाब, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और कई अन्य राज्यों में कश्मीरी छात्रों और व्यापरियों को धमकियां दी गईं और उन पर हमले हुए। इसके पीछे वह भड़काऊ लफ्फाजी थी जिसमें इस्लाम विरोधी भावना थी, जिसमें नागरिकों और आतंकवादियों में कोई भेद नहीं है। यह ऐसा झूठ है जो सभी मुसलमानों और कश्मीरियों को इसी नजर से देखता है।

मुख्यधारा के मीडिया और सोशल मीडिया ने हालात को और खराब किया। उसने उस विभाजनकारी सोच को और बल दिया जिसमें सभी कश्मीरी मुसलमानों की वफादारी पर शक किया जाता है। मीडिया की पोस्ट, तुकबंदियों और बहसों में इस दर्दनाक सच को भुला दिया गया कि आतंकवाद और उसके खिलाफ कार्रवाई दोनों के ही सबसे बड़े शिकार कश्मीरी लोग ही बनते हैं। कश्मीर टाईम्स की संपादक अनुराधा भसीन का कहना है, "पहले भी और अभी भी कश्मीरियों के साथ हमेशा यही होता रहा है, वे सबसे बड़े शिकार हैं।"

नफरत और प्रताड़ना की इस आंधी पर सरकार की प्रतिक्रिया सिर्फ यही रही कि उसने इन घटनाओं को नजरंदाज किया। घाटी में आतंकवादियों और उनकी मदद करने वाली व्यवस्था के खिलाफ सुरक्षा बलों की कार्रवाई तेज होने के बाद आम नागरिकों के लिए भी परेशानियां खड़ी की गईं। जिस पर जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री को चेतावनी देनी पड़ी कि इस तरह के काम आम कश्मीरियों को अलग-थलग कर देंगे। उन्होंने पूरे देश से अनुरोध किया कि कश्मीर के लोगों ने जिस तरह से आतंक को नकार दिया, उस पर ध्यान दिया जाना चाहिए।

सवाल नंबर 3: कौन है जो गैरइरादतन ही सही, आतंकवादियों के मसकद को पूरा कर रहा है?

जिन आतंकवादियों ने पहलगाम के बैसरन में हमला बोला, उनके नापाक इरादे साफ थे। उन्होंने जानबूझ कर लोगों का धर्म पूछा और फिर गोली मारी। लेकिन ये पर्यटक उनका अंतिम निशाना नहीं थे। उनका असल इरादा तो भारत की एकता और उसके सद्भाव को खत्म करना था। हमले की रूपरेखा इस तरह से तैयार की गई थी कि समुदायों के आपसी रिश्ते बिगड़ें और नफरत का दौर शुरू हो।

भड़काऊ लफ्फाजी, कश्मीरियों-मुसलमानों को चिन्हित करके उन पर हमला करना और मीडिया में विभाजनकारी सोच को फैलाना वही सब है जो आतंकवादी और उनके आका चाहते हैं। जो लोग नफरत फेला रहे हैं, वे उन्हीं के हाथों में खेल रहे हैं। 

सवाल नंबर 4: किसे जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए?

अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद सरकार लगातार यह कहती रही कि कश्मीर में शांति और सामान्य स्थितियां बहाल हो गई हैं। पहलगाम हमले ने उस दावे की धज्जियां उड़ा दीं। यह बता दिया कि कमजोरियां कहा हैं और संतुष्ट हो जाने खतरे क्या हैं। बेशक, इस काम को पाकिस्तान के समर्थन वाले आतंकवादियों ने अंजाम दिया लेकिन इसका सुराग न लगना या इसे रोका न जा पाना सरकार की तैयारी और सतर्कता पर कई सवाल खड़े करता है। 

जिस जगह हर रोज हजारों पर्यटक जाते हैं, वहां एक भी सुरक्षा सैनिक का न होना क्या बताता है? कुछ ही सप्ताह में अमरनाथ यात्रा शुरू होने वाली है। यह यात्रा पहलगाम से ही शुरू होती है। इस लिहाज से भी इस इलाके की सुरक्षा कड़ी होनी चाहिए थी। ऐसा क्यों नहीं हुआ? नियमित सुरक्षा उपाय इस तरह से नाकाम क्यों हो गए?

जम्मू-कश्मीर विधानसभा के सदस्यों ने केन्द्र सरकार से यही सवाल पूछा और सुरक्षा एवं खुफिया एजेंसियों से भी इसका जवाब मांगा। सुरक्षा की उच्च स्तरीय समीक्षा और केन्द्रीय गृहमंत्री के दौरे के बावजूद आला अधिकारियों की चुप्पी जनता के असंतोष को बढ़ा रही है। उच्च स्तर पर इस तरह से जवाबदेही का न होना परेशान करने वाला है। 

सरकार हर आतंकवादी हमले को रोक सकती है, ऐसा सोचना तार्किक भी नहीं है और इसका कोई लाभ भी नहीं है। लेकिन पहलगाम में जो हुआ, वह खुफिया तंत्र से लेकर निगरानी और संकट से निपटने की पूरी व्यवस्था की नाकामी की कहानी कहता है। इस नाकामी की जिम्मेदारी को किसी एक व्यवस्था तक सीमित नहीं किया जा सकता। इसमें स्थानीय तंत्र से लेकर केन्द्र सरकार तक सब शामिल हैं।

सरकार को इन कठिन सवालों का मुकाबला करना चाहिए। यह भी याद रखना होगा कि जवाबदेही का मतलब यह नहीं है कि किसी को बलि का बकरा बना दिया जाए। इसका मतलब है कि पारदर्शिता हो, सुधार हो और जनता का विश्वास बहाल हो।


सवाल नंबर 5: हमें सरकार की बात सुनाई दे रही है या शासक दल की?

पहलगाम हमले के बाद जो हुआ, उसमें सरकार और सत्ताधारी दल के बीच की विभाजन रेखा धूमिल होती दिखी। इस राष्ट्रीय संकट के समय हमें जो आवाज सुनाई दे रही थी, वह सरकार की थी या शासक दल की। सरकारी तंत्र के बजाय भाजपा की ही आवाजें जन संचार पर हावी रहीं, यह एक चिंता का विषय है।

सरकार का आधिकारिक प्रत्युत्तर बहुत मंद था। एक संवाददाता सम्मेलन में विदेश सचिव ने सिंधु जल संधि और पाकिस्तान नागरिकों का वीजा रद्द किए जाने पर सरकार के फैसले जरूर बताएं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बहुत-सी उच्च स्तरीय बैठकों की अध्यक्षता कीं। इनमें सुरक्षा पर मंत्रिमंडलीय समिति भी शामिल है। इन बैठकों में क्या हुआ, इसकी कोई अर्थपूर्ण जानकारी लोगों तक नहीं पहुंची।  

इसकी जगह भाजपा के नेताओं और प्रवक्ताओं ने ले ली। वहां हमें वे राजनीतिक आवाजे सुनाई दीं जो आमतौर पर चुनाव अभियानों में सुनाई पड़ती हैं। वे नहीं जो सरकार के मंच से हमें मिलती हैं। मसलन, सर्वदलीय बैठक के बाद संसदीय कार्यमंत्री किरण रिजीजू ने 'सुरक्षा खामी' का जिक्र किया लेकिन फिर इस बारे में कुछ नहीं पता चला, न ही यह पता चला कि सुरक्षा पर कैबिनेट कमेटी की बैठक में इस बारे में क्या हुआ।

हमने इस मामले में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विचार बिहार के मधुबनी की एक चुनावी रैली से सुने,  जहां यह तय कर पाना मुश्किल था कि प्रधानमंत्री राष्ट्र को संबोधित कर रहे हैं या भाजपा का चुनावी चेहरा उस राज्य में मतदाताओं को संबोधित कर रहा है जहां कुछ समय बाद चुनाव होने हैं।

पहलगाम का आतंकवादी हमला बेगुनाह पर्यटकों पर नहीं था, वे इसके शिकार जरूर बने लेकिन इसका निशाना नफरत फैलाना और विभाजन की खाई को चौड़ा करना था। पहलगाम हमारे राष्ट्रीय चरित्र की परीक्षा लेगा और यह इससे तय होगा कि हम कौन-सा रास्ता चुनते हैं।

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