‘फूड टेररिज़्म’ और असहिष्णुता : गुजरातियों की तानाशाही के खिलाफ बढ़ रहा है मुंबई वालों का गुस्सा

आभासी दुनिया में मचा यह तूफान आभासी नहीं। इसने खास तौर पर मुंबई को अपनी गिरफ्त में ले रखा है और कभी भी सामाजिक टकराव की शक्ल ले सकता है।

महाराष्ट्र में मछली की खुली बिक्री आम बात है (फोटो - Getty Images)
महाराष्ट्र में मछली की खुली बिक्री आम बात है (फोटो - Getty Images)
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सुजाता आनंदन

जब वे विदेश जा सकते हैं, अमेरिका में मोटल खोल सकते हैं, गोमांस परोसने वाले रेस्तरां में जा सकते हैं या गोमांस खाने वाले विदेशियों से शादी कर सकते हैं, तो भला वे अपने ही देश में पकाए जा रहे मछली या मांस की गंध को क्यों बर्दाश्त नहीं कर पाते? हाल ही में एक मराठी ने सोशल मीडिया पर कुछ इसी तरह अपने गुस्से का इजहार किया। वह मुंबई में रहने वाले गुजरातियों का जिक्र कर रहे थे जिनकी ‘खाद्य असहिष्णुता’ यानी फूड इनटॉलरेंस दोनों समुदायों के बीच नए तरह का तनाव पैदा कर रही है।

कुछ साल पहले की बात है। उत्तरी मुंबई के मध्यवर्गीय मराठी बहुल उपनगर कांदिवली में एक हाउसिंग सोसाइटी में एक रविवार लोगों की नींद सुबह-सुबह तेज चिल्लपों से टूटी। दो समूहों के बीच जोरदार झड़प हो रही थी। सोसाइटी में मराठियों और गुजरातियों की आबादी लगभग बराबर थी। गुजरातियों में हिंदू भी थे और जैन भी। गुजराती उस दिन तड़के उठकर ‘ब्रह्म पूजा’ कर रहे थे। उसी समय एक मराठी परिवार भी दोपहर में आने वाले मेहमानों के लिए भोजन बनाने में जुटा था। मेन्यू में मछली और मटन- दोनों थे। कोंकणी मराठियों का पसंदीदा आहार मछली है तो मटन आमतौर पर राज्य के अंदरूनी भागों में रहने वालों का।

जैसे ही प्रेशर कुकर में भाप बनने लगी, मटन और मछली की गंध आसपास फैल गई। यह उनके गुजराती पड़ोसियों को नागवार गुजरा और उन लोगों ने मराठी पड़ोसी के दरवाजे को पीटते हुए उन्हें मांसाहारी भोजन पकाने से मना किया। उन्होंने नाराजगी जताई कि मांस की गंध उनके पूजा स्थल तक आ रही है। गुजराती निजी तौर पर पूजा का आयोजन कर रहे थे और वह कोई सोसाइटी का सामूहिक कार्यक्रम नहीं था। इसलिए मराठी जोड़े ने गुजरातियों से कहा कि वे पूरी सावधानी बरत रहे हैं कि इसकी वजह से सोसाइटी में कोई गंदगी न फैले और उन्हें अपने घरों में जो भी चाहें, पकाने और खाने का अधिकार है।

होना तो ऐसा ही चाहिए था लेकिन गुजराती अड़े रहे। नौबत हाथापाई तक आ गई। इसी बीच शोर-शराबे से जागे एक व्यक्ति ने पुलिस को सूचना दे दी। पुलिस सोसाइटी में पहुंची, झगड़ रहे कुछ लोगों को हिरासत में ले लिया लेकिन उन्होंने भी स्वीकार किया कि हर किसी को अपनी पसंद का भोजन करने का अधिकार है और कोई भी इस संबंध में पड़ोसियों पर अपनी शर्तें नहीं थोप सकता। उन्होंने गुजरातियों को सलाह दी कि अगर उन्हें कोई आपत्ति है तो वे सोसाइटी छोड़कर चले जाएं और मराठी परिवार को इस चेतावनी के साथ जाने दिया कि वे सार्वजनिक स्थानों पर मांसाहार के अवशेष नहीं फैलाएंगे।


कुछ महीने बाद एक और उपनगर में ऐसी ही घटना हुई और वहां गुजराती इतनी आसानी से पीछे नहीं हटे। उन्होंने मराठी लोगों के दरवाजे पर कचरा फेंकना शुरू कर दिया, यहां तक कि कुत्ते का मल, गाय का गोबर भी दरवाजे पर डाल दिया; सोसाइटी ने परिवार को पूरी तरह बहिष्कृत कर दिया और इस बार मराठियों को बिल्डिंग से बाहर कर दिया गया।

इस तरह का फूड टेररिज्म यानी ‘खाद्य आतंकवाद’ 1980 के दशक के अंत में तब शुरू हुआ जब पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने अपनी इमारत के ग्राउंड फ्लोर पर एक मांसाहारी रेस्तरां को बंद करने के लिए मजबूर कर दिया क्योंकि इसकी गंध से उनका जीना ‘हराम’ हो गया था। उनकी हैसियत को देखते हुए उन्हें तत्कालीन सरकार और अधिकारियों से समर्थन मिला और जिसकी वजह से उस रेस्तरां को बंद करा दिया गया। हालांकि इस तरह का कोई कानून नहीं था जिसके तहत उस रेस्तरां को बंद कराया जाता।

बहरहाल, देखते-देखते यही चलन बन गया, खास तौर पर कुछ साल बाद आए बॉम्बे हाईकोर्ट के उस फैसले के मद्देनजर जिसने गुजराती सोसाइटी को अपनी संवेदनशीलता का हवाला देते हुए गैर-गुजरातियों को बिल्डिंग में घर नहीं देने की इजाजत दे दी थी।

पिछले साल तीन जैन ट्रस्टों और एक व्यक्ति ने बॉम्बे हाईकोर्ट में याचिका दायर कर मांस के विज्ञापनों पर इस आधार पर रोक लगाने की मांग की कि बच्चों समेत उनके परिवारों को प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में ऐसे विज्ञापन देखने के लिए मजबूर किया गया था। उनकी जनहित याचिका में कहा गया कि ऐसे विज्ञापन उनके जीवन जीने, शांति और निजता के साथ जीने के अधिकार का सरासर उल्लंघन हैं। हालांकि इस बार बॉम्बे हाईकोर्ट में उन्हें निराश होना पड़ा।

इससे पहले मांस की दुकान पर रोक लगाने का फैसला सुनाने वाले हाईकोर्ट ने सवाल किया, आप दूसरों के मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण क्यों कर रहे हैं? उस मामले में हाईकोर्ट ने कहा कि शाकाहारी या मांसाहारी होना निजी पसंद है और किसी भी मांस की दुकान को किसी के लिए बंद करने का आदेश नहीं दिया जा सकता। हाईकोर्ट ने धार्मिक ट्रस्टों से कहा कि देश में ऐसा कोई कानून नहीं है जिसके आधार पर मांस के विज्ञापनों पर रोक लगाई जा सके। लिहाजा, उन ट्रस्टों को पीछे हटना पड़ा।


मुंबई में 48 फीसदी लोग मध्य या निम्न वर्ग से हैं और 30 प्रतिशत गुजराती हिन्दू और जैन कहीं अधिक संपन्न हैं जिस वजह से उन्होंने आनुपातिक रूप से कहीं ज्यादा आवास खरीद लिए। इसका नतीजा यह हुआ कि स्थानीय मराठी लोग हाउसिंग सोसाइटियों में अल्पसंख्यक बन गए और गुजराती अघोषित रोक लगाने की स्थिति में आ गए।

हाल ही में एक पिता-पुत्र ने एक मराठी युवती के साथ दुर्व्यवहार किया जो किराये के लिए फ्लैट की तलाश में उनकी सोसाइटी में गई थी। इस घटना ने एक बार फिर ‘खाद्य असहिष्णुता’ के मुद्दे को जिंदा कर दिया। बीजेपी नेता और महाराष्ट्र की पूर्व मंत्री पंकजा मुंडे ने दावा किया कि सरकारी आवास छोड़ने के बाद जब उन्होंने निजी आवास लेने की कोशिश की तो उन्हें भी तीन-चार बार मना कर दिया गया। ऐसा लगता है कि महाराष्ट्रवासी मुंबई को फिर से अपने प्रभाव में लेने के लिए संगठित हो गए हैं।

महाराष्ट्र के पूर्व मंत्री राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के जीतेंद्र आह्वाड ने बताया कि कोली (मछुआरे), एग्री (जिन्होंने अंग्रेजों के लिए मुंबई का निर्माण किया) और पठारे प्रभु जिन्होंने शहर को सांस्कृतिक आधार दिया, मुंबई के मूल निवासी हैं। समुद्र से घिरे मुंबई में मछली और चावल महाराष्ट्र के लोगों का मुख्य भोजन रहा है और उन्हें ऐसी कोई वजह नहीं दिखती कि काफी बाद में वहां आकर बसने वाले गुजराती प्रवासियों की ओर से थोपे जा रहे ‘भोजन रंगभेद’ के कारण वे अपना आहार छोड़ दें।

एक सोसाइटी में अकेले रहने वाले और अपने और अपने दोस्तों के लिए नॉन-वेज पकाने वाले एक मराठी लड़के ने बताया कि सोसाइटी का सेक्रेटरी यह देखने के लिए हर दिन उसके कूड़ेदान को खंगालता रहता है कि पिछली रात उसने नॉन-वेज पकाया था या नहीं।

महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना अब अपने चिरपरिचित अंदाज में मैदान में कूद पड़ी है और उसने पिता-पुत्र को माफी मांगने पर मजबूर कर दिया है। यह राज ठाकरे की पार्टी है जो कभी बाल ठाकरे के नेतृत्व में मूल शिवसेना का हिस्सा थी और लंबे समय तक ‘मराठी मानुस’ के मुद्दे पर सक्रिय रही थी। मौजूदा स्थिति के लिए जब महाराष्ट्रवासी खुद को अपने ही राज्य में हाशिये पर पा रहे हैं, तो इसके लिए उन्हें भी दोषी ठहराया जा रहा है।

मराठी विश्लेषकों के एक वर्ग का मानना है कि भारतीय जनता पार्टी के साथ बाल ठाकरे के गठबंधन ने मराठी पहचान को हिन्दुत्व में समाहित कर दिया जिससे मराठी पहचान हाशिये पर चली गई। उनका कहना है कि 2014 में नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद इसमें और तेजी आई। उन्होंने तर्क दिया कि राज ठाकरे के बिजनेस पार्टनर भी ज्यादातर गुजराती हैं जिससे उनके लिए मराठी हितों के लिए लड़ना मुश्किल हो गया है।


वे कहते हैं कि मुलुंड हाउसिंग घटना के अगले दिन एक मराठी लड़के की इसलिए पिटाई की गई कि उत्तरी उपनगर की एक हाउसिंग सोसाइटी में प्रवेश करते समय उसने वहां रहने वालों की इच्छा के अनुसार ‘जय श्रीराम’ का नारा लगाने से इनकार कर दिया था।

युवा मराठा सोशल मीडिया पर ‘शेठजी और भट्टजी’- व्यापारियों, पुजारियों, ब्राह्मणों और गुजरातियों- के खिलाफ भड़ास निकाल रहे हैं और उन्हें मुंबई और महाराष्ट्र से बाहर निकालने का आह्वान कर रहे हैं! यहां तक कि को-ऑपरेटिव कानून विशेषज्ञ भी इसमें शामिल हो गए हैं। उनका कहना है कि महाराष्ट्र के उपनियम जाति, समुदाय या खाद्य प्राथमिकताओं के आधार पर आवास में भेदभाव की इजाजत नहीं देते।

विधानसभा में मुंब्रा के मुस्लिम बहुल निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले अवहाद ने चुटकी लेते हुए कहा, ‘जब मुसलमानों को इसी आधार पर सोसाइटियों में रहने नहीं दिया जाता था तो हम चुप थे। अब जब हम खुद उसी हालात का सामना कर रहे हैं, तो हम उनकी तकलीफ को महसूस कर सकते हैं। हम इस तरह के भेदभाव को नहीं बढ़ने देंगे।’

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