वनाधिकार कानून जंगल का सबसे बड़ा दुश्मन, वनवासियों को अधिकार देने के नाम पर खुली लूट का जरिया बना

सच्चाई जंगल में रहने वालों, वन अधिकारियों, सैटेलाइट से मिली तस्वीरों और ग्राम सभाओं के बीच कहीं है और जंगलों को बचाने के लिए इसका ज्ञान जरूरी है।

वनाधिकार कानून जंगल का सबसे बड़ा दुश्मन, वनवासियों को अधिकार देने के नाम पर खुली लूट का जरिया बना
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रश्मि सहगल

कई राज्यों में वन विभाग अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी अधिनियम 2006 (एफआरए) के तहत जंगल में रहने वालों को वापस जंगल सौंपने के फैसले का विरोध कर रहे हैं। ज्यादातर वन अधिकारियों का दावा है कि यह अधिनियम इस उम्मीद से पारित किया गया था कि जंगल में रहने वाले लोग अपने जंगलों की रक्षा करते रहेंगे, लेकिन असल में हुआ इसका उल्टा। इस अधिनियम के प्रावधानों की समीक्षा करने की जरूरत पर जोर देते हुए वे कहते हैं कि पिछले डेढ़ दशक में जंगलों के जो बड़े नुकसान हुए हैं, उसके पीछे बाजार की मांग और जमीन पर खेती करने का दबाव है।

लगातार चौथी बार मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के बाद शिवराज सिंह चौहान ने एक ही दिन में जमीन के 1,300 पट्टे (मालिकाना हक साबित करने वाले कानूनी कागजात) बांटे थे। लेकिन जब वह केन्द्र में कृषि मंत्री बने, तो मध्य प्रदेश के वन विभाग ने इतने बड़े पैमाने पर पट्टे बांटे जाने का संज्ञान लिया और जांच का आदेश दे दिया। इससे खफा चौहान ने कहा कि वह ‘आदिवासियों के अधिकारों के लिए जान देने को तैयार हैं’। चौहान ने अपने लोकसभा क्षेत्र विदिशा में आदिवासियों से कहा कि कोई भी उन्हें बेदखल नहीं कर सकता।

मध्य प्रदेश वन विभाग ने यह जांच रिटायर्ड डीएफओ (डिविजनल फॉरेस्ट ऑफिसर) आजाद सिंह डबास की शिकायत पर शुरू की थी। डबास अकेले चौहान के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं। उनका दावा है कि ‘पिछले 12 सालों से बिना उचित प्रक्रिया जंगल की जमीन को गैर-कानूनी तरीके से बांटा जा रहा है।’ डबास ने इस लेखिका को बताया, ‘कानूनन कट-ऑफ डेट 13 दिसंबर 2005 है। इसके अलावा, जमीन का पट्टा सिर्फ उन्हीं आदिवासियों को दिया जा सकता है जिनके परिवार तीन पीढ़ियों से जंगलों में रह रहे हैं।

इसके साथ ही जमीन तभी दी जा सकती है जब हर मामले को डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट, डिस्ट्रिक्ट ऑफिस और फॉरेस्ट ऑफिस जनजाति मामलों के मंत्रालय से वेरिफाई कर लें। वोट बैंक की वजह से नेता इस प्रक्रिया का पालन नहीं कर रहे।’ जब मध्य प्रदेश के ही एक अन्य डीएफए कृष्ण गौर ने उक्त कानून के तहत जंगल की जमीन को पट्टे पर देने की लूटपाट पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया, तो उन्हें प्रताड़ित किया गया और छह महीने तक कोई तैनाती नहीं दी गई।


महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश समेत ऐसे कई राज्य हैं जहां एफआरए का बड़े पैमाने पर गलत इस्तेमाल हो रहा है। जंगल के लोग आरोप लगाते हैं कि बैठक के मिनट्स में हेरफेर किए जा रहे हैं और पट्टे पर फर्जी दस्तखत किए जा रहे हैं। एफआरए में साफ कहा गया है कि डीएफओ को हर जमीन के हस्तांतरण पर खुद दस्तखत करना होगा। लेकिन कई राज्यों में नेताओं ने इसका रास्ता निकाल लिया है और फर्जी दस्तखत आम बात हो गई है।

वन सेवा के पूर्व अधिकारी एम. पद्मनाभ रेड्डी ने जनहित याचिका दायर की है जिसमें बताया गया है कि कैसे एफआरए के प्रावधान के गलत इस्तेमाल से पर्यावरण को अपूरणीय नुकसान हुआ है और राजनीतिक दबाव में जंगलों की जमीन पर कब्जा किया जा रहा है। मध्य प्रदेश अकेला राज्य नहीं जहां वन अधिकारी इस तरह के खुलेआम उल्लंघन के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं। तेलंगाना में जंगल की जमीन के बंटवारे में बड़े पैमाने पर गड़बड़ी की बात सामने आई। ग्राम सभाओं और जिला समितियों ने डीएफओ की व्यापक अतिक्रमण की रिपोर्ट को नजरअंदाज कर दिया।

पूर्व वन अधिकारी पी.के. झा, जो 2023 में तेलंगाना के वन विभाग के प्रमुख थे, बताते हैं कि एफआरए के तहत जंगल की 11.5 लाख एकड़ से ज्यादा जमीन पर दावा किया गया था, लेकिन सिर्फ 1.6 लाख एकड़ जमीन ही बांटने लायक पाई गई। इससे राज्य सरकार को 2023 के विधानसभा चुनावों से ठीक पहले 4.06 लाख एकड़ जमीन बांटने से नहीं रोका जा सका।

चिंता की बात यह है कि आदिवासी मामलों का मंत्रालय अब सैटेलाइट इमेज को जंगल के इलाकों के खत्म होने के ‘स्वतंत्र सबूत’ के तौर पर मानने को तैयार नहीं। सैटेलाइट इमेज घने ट्रॉपिकल जंगलों और खेती की जमीन के बीच अलग-अलग रंगों के जरिये साफ फर्क दिखाती है- यह सबूत है कि कितनी जमीन पर खेती हो रही है और कितनी बची है।

पूर्व आईएफएस अधिकारी डॉ. अरविंद झा, जो महाराष्ट्र में काम कर चुके हैं और अनुसूचित जनजाति प्रमाणपत्र जांच समिति के अध्यक्ष भी थे, कहते हैं कि यह बदलाव 2012 में किया गया था। डॉ. झा कहते हैं, ‘अब नियम कहते हैं कि सैटेलाइट इमेजरी और टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल से अलग तरह के सबूत मिल सकते हैं लेकिन उन्हें दूसरे सबूतों की जगह लेने वाला नहीं माना जाएगा। इससे आज मौजूद सबसे सही सबूतों का साक्ष्य महत्व कम हो जाता है।’ शायद सैटेलाइट इमेज को सबूत के तौर पर न मानने की गलती को समझते हुए मध्य प्रदेश सरकार ने इस मामले में अपने कदम पीछे खींच लिए हैं।

आदिवासी मामलों के मंत्रालय के आंकड़ों (30 नवंबर 2024 तक) से पता चलता है कि 2008 से अब तक एफआरए के तहत 77 लाख हेक्टेयर से ज्यादा जंगल की जमीन बांटी गई, जो लगभग असम के क्षेत्रफल के बराबर है। इसमें 20.54 लाख हेक्टेयर जमीन निजी स्वामित्व में जबकि बाकी सामुदायिक स्वामित्व के तहत आती है। जैसे-जैसे इन इलाकों में आबादी बढ़ेगी, जंगल में रहने वालों की आने वाली पीढ़ियां अपनी जमीन जरूर बढ़ाएंगी और यह सब उस मुकाम तक जा पहुंचेगा जहां से वापसी मुमकिन नहीं होगी।


शक नहीं कि गलत तरीके से बनाई गई विकास परियोजनाओं से जंगलों को बड़ा नुकसान होता है। जबकि आंकड़े बताते हैं कि 36 सालों (1980–2016) में 6.33 लाख हेक्टेयर जमीन विकास के नाम पर डायवर्ट की गई, वहीं केवल पिछले 16 सालों में एफआरए के तहत रहने और खेती के लिए इससे तीन गुना ज्यादा यानी 20.54 लाख हेक्टेयर जमीन दी गई है।

यह 1950 और 1980 के बीच अलग-अलग सरकारी स्कीमों के तहत खेती और कब्जे की वजह से कम हुए 43 लाख हेक्टेयर जंगल के अलावा है। ऐसा लगता है कि अब यह नहीं कहा जा सकता कि जंगल के नुकसान के लिए मुख्य रूप से विकास योजनाएं ही जिम्मेदार हैं।

उत्तराखंड में राजाजी टाइगर रिजर्व के अवैतनिक वाइल्ड लाइफ वार्डन राजीव मेहता वन गुज्जरों का उदाहरण देते हैं जिन्हें आठ दशक पहले जंगल में मवेशियों को चराने का अधिकार दिया गया था। उन्होंने बताया कि इस टाइगर रेंज के सीमाई श्यामपुर रेंज में रिजर्व के भीतर बसे वन गुज्जर परिवारों के साथ-साथ उनके मवेशियों की संख्या भी काफी बढ़ गई है। मेहता कहते हैं, ‘आज उनके पास 9,000 से ज्यादा भैंसें हैं जो उसी घास पर आश्रित हैं जिससे हिरण और जंगली हाथी खुद को जिंदा रखते हैं। इस वजह से जंगल की स्थिति बहुत बुरी हो गई है।’

मेहता के मुताबिक, वन गुज्जरों के बच्चे अच्छी पढ़ाई और अच्छी जिंदगी की तलाश में बाहर जाना चाहते हैं। वह बताते हैं, ‘समस्या यह है कि राज्य सरकार की पुनर्वास योजना सिर्फ जंगल के अंदर रहने वाले परिवारों पर लागू होती है, बफर जोन में रहने वालों पर नहीं। ये वन गुज्जर बफर जोन में रहते हैं और इसलिए इसका फायदा नहीं उठा सकते।’

कॉर्बेट पार्क और राजाजी से 300 परिवारों के बाहर जाने के बाद उन इलाकों की नदियों और जंगल की हालत सुधरने लगी है और मेहता के मुताबिक ‘यह वन्य जीवों के लिहाज से फायदेमंद साबित हुआ है।’ लेकिन, फॉरेस्टर के दावों की जांच करने की जरूरत है, क्योंकि देश के कई हिस्सों में आदिवासी सच में अपने जंगलों की कटाई का विरोध कर रहे हैं।

सबूत बताते हैं कि एफआरए की वजह से जंगलों को बहुत नुकसान हुआ है, जबकि कई एनजीओ और इकोलॉजिस्ट जंगलों को ग्राम सभाओं को सौंपकर ‘जंगलों के लोकतंत्रीकरण’ पर जोर दे रहे हैं। जबकि फॉरेस्टर इस बात से सहमत हैं कि वन प्रशासन में सुधार की बहुत जरूरत है, कुछ का कहना है कि अपनी राष्ट्रीय पर्यावरण संपत्तियों को इस उम्मीद में ग्राम सभाओं को सौंपना कि वे उनकी देखभाल करेंगे, एक ऐसा जुआ है जिसका जोखिम नहीं उठाया जा सकता।