अर्थव्यवस्था पर सरकारी खुशफहमी: शेयर बाजार और बढ़ते मुद्रा भंडार से नहीं मापी जा सकती अर्थव्यवस्था की असली हालत

अगर अर्थव्यवस्था पिछले साल से खराब रही, या उसी तरह रही, तो भी भविष्य बड़ा ही चिंताजनक हो सकता है। असंगठित क्षेत्र बहुत कम पूंजी पर काम करता है और इसमें काम करने वाले 94 फीसदी लोगों के पास एक हफ्ते से ज्यादा का राशन खरीदने का पैसा नहीं होता। सरकार इस स्थिति को आसान बनाने में विफल रही है।

फोटो : Getty Images
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देश की अर्थव्यवस्था के हाल पर इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में प्रोफेसर और ‘इंडियन इकोनॉमीज ग्रेटेस्ट क्राइसिस : इम्पैक्ट ऑफ दि कोरोनावायरस एंड दि रोड अहेड’ के लेखक प्रो. अरुण कुमार से नलिनी रंजन मोहंती ने बातचीत की। इसमें प्रो. कुमार ने कहा कि भारत को ऐसे उपाय करने चाहिए थे कि उपभोक्ता मांग बढ़ती। पिछले साल भी सरकार ने गरीबों के हाथ में पर्याप्त पैसे डालने के उपाय नहीं किए जिससे मांग बढ़ पाती। अमेरिका में तीन खरब डॉलर का पैकेज दिया जा चुका है जिसके कारण वित्तीय घाटे में 15 फीसदी की वृद्धि हो चुकी है और इसके बाद भी वहां 6 खरब डॉलर के प्रोत्साहन पैकेज की मांग की जा रही है। भारत सरकार तब तक दिवालिया नहीं हो सकती, जब तक वह ऋण लेती रहती है और ऐसे तमाम स्रोत हैं जहां से सरकार लोन ले सकती है। सरकार को ऋण लेकर उसे गरीबों के हाथ में कैश के रूप में देना चाहिए। बातचीत के अंश:

सवाल : देश की अर्थव्यवस्था पर 6 महीने पहले भी हमारी बात हुई थी। कोरोना की दूसरी लहर ने एक बार फिर अर्थव्यवस्था की दुर्दशा कर दी है। आपका क्या मानना है?

प्रो. अरुण कुमार : पिछले साल की पहली तिमाही और इस साल की पहली तिमाही की तुलना करें तो अप्रैल, 2021 पिछले अप्रैल से कुछ बेहतर रहा। मई कमोबेश पिछले मई जैसा ही है। हां, इस जून की स्थिति पिछले जून से खराब रहने का अंदेशा है। उसके बाद तीसरी लहर डरा रही है, सो अलग। पहली तिमाही के दौरान अर्थव्यवस्था में 24-25 नहीं बल्कि बमुश्किल 5-7 फीसदी की वृद्धि रहने का अनुमान है। अर्थव्यवस्था पटरी पर आ जाएगी, यह उम्मीद हकीकत में बदलती नहीं दिख रही।

सवाल : क्यासरकार हालात की गंभीरता को समझ रही है या उसने अब भी समस्या से आंखे मूंद रखी हैं?

प्रो. अरुण कुमार : सरकार को सब ठीक हो जाने की उम्मीद है लेकिन इसके लिए सबसे पहले तो उसे नींद से जागना होगा। पहली बात, महामारी गांवों तक फैल चुकी है। वहां से विश्वसनीय आंकड़े नहीं आ रहे और वैक्सिनेशन को लेकर कोई रणनीति तो जैसे है ही नहीं। दूसरी, उपभोक्ता का भरोसा हिला हुआ है। मध्यम वर्ग को बैंकों से अपनी जमा-पूंजी निकालनी पड़ रही है, गरीबों को इलाज के लिए उधार लेना पड़ रहा है। तीसरी लहर में बच्चों और उन लोगों के प्रभावित होने का अनुमान है जिनका वैक्सिनेशन नहीं हुआ है। ऐसे निराशा भरे माहौल में व्यापार ठप है। ऐसा ही हाल रहा तो दूसरी तिमाही की तो बात ही छोड़िए, तीसरी तिमाही भी पिछले साल से खराब रह सकती है। तीसरी तिमाही में विकास दर शून्य या नकारात्मक रह सकती है।

सवाल : कुछ लोगों को लगता है कि हमारी अर्थव्यवस्था दिवालिएपन की तरफ बढ़ रही है। बैंकों के पैसे खत्म हो जाएंगे। भारत सरकार खुद दिवालिया हो जाएगी और हम आर्थिक आपातकाल में होंगे। क्या कहेंगे। ऐसी संभावित स्थिति को टालने के क्या उपाय हो सकते हैं?

प्रो. अरुण कुमार : अगर अर्थव्यवस्था पिछले साल से खराब रही, या उसी तरह रही, तो भी भविष्य बड़ा ही चिंताजनक हो सकता है। असंगठित क्षेत्र बहुत कम पूंजी पर काम करता है और इसमें काम करने वाले 94 फीसदी लोगों के पास एक हफ्ते से ज्यादा का राशन खरीदने का पैसा नहीं होता। सरकार इस स्थिति को आसान बनाने में विफल रही है।

भारत सरकार ने जो भी कदम उठाए हैं, वे ज्यादातर आपूर्ति के मोर्चे पर रहे। जबकि सरकार को ऐसे उपाय करने चाहिए थे कि उपभोक्ताओं की ओर से मांग बढ़ती। पिछले साल भी सरकार ने गरीबों के हाथ में पर्याप्त पैसे डालने के उपाय नहीं किए जिससे मांग बढ़ पाती। अमेरिका में तीन खरब डॉलर का पैकेज दिया जा चुका है जिसके कारण वित्तीय घाटे में 15 फीसदी वृद्धि हो चुकी है और इसके बाद भी वहां 6 खरब डॉलर के प्रोत्साहन पैकेज की मांग की जा रही है। भारत सरकार तब तक दिवालिया नहीं हो सकती, जब तक वह ऋण लेती रहती है और ऐसे तमाम स्रोत हैं जहां से सरकार लोन ले सकती है। सरकार को ऋण लेकर उसे गरीबों के हाथ में कैश के रूप में दे देना चाहिए।


सवाल : सीएमआईई की हाल की रिपोर्ट बताती है कि महामारी के दौरान 94 फीसदी भारतीयों की आमदनी कम हुई है। सबसे ज्यादा नौकरियां मध्य वर्ग ने खोईं। ऐसे लोगों की मुश्किलों को दूर करने के लिए क्या करना चाहिए?

प्रो. अरुण कुमार : मध्यवर्ग के पास कुछ न कुछ बचत होती है, इसलिए वे अर्थव्यवस्था के सुधरने तक इसके सहारे गुजारा कर सकते हैं। लेकिन जिस असंगठित क्षेत्र में हमारे वर्क फोर्स का 97 फीसदी हिस्सा काम करता है, उसकी चिंता सबसे पहली की जानी चाहिए थी। जो लोग सबसे निचले पायदान पर खड़े हैं, उनके खाने-पीने और हाथ में नकदी का इंतजाम किया जाना चाहिए। ग्रामीण इलाकों में कृषि क्षेत्र की मदद करनी चाहिए क्योंकि ढुलाई की समस्या के कारण उस पर खासा बुरा असर पड़ा है। किसानों की उपज को मंडी तक पहुंचाने में स्कूल बसों और आर्मी के ट्रकों का इस्तेमाल हो सकता है। पिछले साल आजादपुर मंडी में केवल 50 फीसदी उपज पहुंच पा रही थी। किसानों को उनके उत्पाद का पैसा नहीं मिल रहा था जबकि शहरों में उपलब्धता न होने के कारण कीमतें आसमान छू रही थीं। इसलिए ग्रामीण और शहरी- दोनों इलाकों पर असर पड़ा है और इसलिए दोनों की ही मदद की जानी चाहिए और रोजगार पैदा किए जाने चाहिए। मनरेगा का बजट बढ़ाकर 3 लाख करोड़ किया जाना चाहिए ताकि लोगों को 200 दिनों के काम की तो गारंटी हो। शहरों के बेरोजगारों को शिक्षा, स्वास्थ्य-जैसे क्षेत्रों में रोजगार दिया जाना चाहिए। निचले पायदानों पर खड़े लोगों की मदद करके ही अर्थव्यवस्था में जान फूंकी जा सकती है न कि बड़े कॉरपोरेट की मदद करके।

सवाल : आप जो उपाय बता रहे हैं, उसमें भारी निवेश की जरूरत होगी। यह आएगा कहां से?

प्रो. अरुण कुमार : ऋण लेना होगा। बैंकों के पास तरलता की कमी नहीं, वे सरकार को लोन दे सकते हैं। कोविड बॉण्ड लाकर शेयर बाजार में पैसा लगाने वाले लोगों को प्रेरित किया जा सकता है कि वे इस बॉण्ड में निवेश करें। पिछले साल की तुलना में ज्यादा मुनाफा कमाने वाली कंपनियों से ज्यादा कॉरपोरेशन टैक्स लिया जा सकता है। जो बचे, उसका इंतजाम आरबीआई से लोन लेकर करना चाहिए। इससे वित्तीय घाटा तो बढ़ेगा लेकिन इसमें दिक्कत नहीं क्योंकि जैसे ही अर्थव्यवस्था बेहतर होगी, कर संग्रह भी बढ़ जाएगा।

सवाल : शेयर बाजार ऐतिहासिक ऊंचाई पर है जबकि अर्थव्यवस्था पाताल में। वित्तीय बाजार और वास्तविक अर्थव्यवस्था में इतना फर्क क्यों है?

प्रो. अरुण कुमार : कारण घरेलू हैं और अंतरराष्ट्रीय भी। रिलायंस भारी कर्जे में थी लेकिन विदेशी निवेश और राइट इश्यू के कारण वह कर्जमुक्त कंपनी बन गई है। शेयर बाजार में पैसा विदेशी संस्थागत निवेशकों से आ रहा है। बैंकों के एफडी पर ब्याज दर नीचे आ जाने के कारण देश के लोग भी शेयर बाजार की ओर मुड़े हैं। लेकिन यह याद रखना चाहिए कि रिजर्व बैंक ने भी आगाह किया है कि अर्थव्यवस्था और शेयर बाजार का इस तरह अलग-अलग दिशा में भागना अच्छा संकेत नहीं।

सवाल : सरकार कहती है कि भारी विदेशी निवेश और बढ़ता विदेशी मुद्रा भंडार बताता है कि अर्थव्यवस्था ठीक हो रही है और जो दिक्कतें हैं वे कुछ समय की हैं। आप क्या कहेंगे?

प्रो. अरुण कुमार : यह बात कुछ हद तक सही है। जैसा मैंने कहा, रिलायंस का कायाकल्प हो गया। बड़ी टेक कंपनियां और ई-कॉमर्स कंपनियां काफी अच्छा कर रही हैं। फिर भी यह गुब्बारा ही है क्योंकि विदेशी निवेश खास क्षेत्र में ही हो रहा है और इससे अर्थव्यवस्था के दिन नहीं फिरने वाले जब तक कि मांग नहीं बढ़ जाए। अगर हम 50-60 अरब डॉलर का विदेशी निवेश पा भी लें तो यह भारत में कुल निवेश का केवल 5 फीसदी होगा और इससे पूरी अर्थव्यवस्था सेहतमंद नहीं हो जाएगी। अर्थव्यवस्था में घरेलू निवेश में 15 फीसदी की कमी आई है। हमें मांग को बढ़ाकर चीजें दुरुस्त करनी होंगी।


सवाल : सरकार एक सबसे अच्छा और एक सबसे बुरा काम क्या रहा है?

प्रो. अरुण कुमार : लॉकडाउन से बीमारी ठीक नहीं होती। लिहाजा, आपको सबसे पहले पूरी आबादी को वैक्सीन देने का इंतजाम करना चाहिए था। लेकिन इसके लिए शुरू में पर्याप्त वैक्सीन का ऑर्डर नहीं दिया गया। सीरम इंस्टीट्यूट कहता है कि वह एक अरब डोज का उत्पादन कर सकता है; हमें 50 करोड़ डोज का ऑर्डर कर देना चाहिए था। इस साल जनवरी में हर माह 10 करोड़ लोगों को वैक्सीन देने का काम शुरू होना चाहिए था, तब इस साल के खत्म होने तक 60-70 फीसदी लोगों का वैक्सिनेशन हो सकता था। इसकी जगह हम डेढ़ माह में 1 करोड़ लोगों को वैक्सीन देने की गति से बढ़ रहे हैं। इस रफ्तार से तो सभी के वैक्सिनेशन में 22 साल लग जाएंगे!

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