होली यानी ईद-ए-गुलाबी और आब-ए-पाशी

आज जब एक संकीर्ण सोच और कट्टर विचारों के जरिये भारत की गंगा जमुनी तहजीब को खंडित करने की कोशिशें जारी हैं, ऐसे में होली का ये पर्व यकीनन इस माहौल में भाईचारा और सद्भाव कायम करने में मददगार साबित होगा।

फोटोः सोशल मीडिया
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मेराज नूरी

होली के त्योहार को जाहिरी तौर पर एक धर्म विशेष के पर्व के तौर पर देखा जाता है और मनाया जाता है। लेकिन इतिहास और देश की गंगा-जमुनी तहजीब के सिलसिले पर एक नजर डालने के बाद ये मिथक न सिर्फ टूट जाता है बल्कि इस पर्व की सभी धर्मों में स्वीकारोक्ति और हर्षोल्लास के साथ मनाए जाने की परंपरा का ऐसा ज्ञान प्राप्त होता है, जिससे भारत के संवैधानिक चरित्र यानी हिन्दू, मुस्लिम, सिख और ईसाई के परस्पर प्रेमपूर्वक रहने की गाथा को बल मिलता है।

कहते हैं कि राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक है। राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही पर इनको उत्कर्ष तक पहुंचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली का त्यौहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से फाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहू की बालियां इठलाने लगती हैं। बच्चे-बूढ़े सभी सारे संकोच और रूढ़ियों को भूलाकर ढोलक-झांझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ रंगों की फुहार फूट पड़ती है।

इस पर्व का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में मिलता है। इनमें प्रमुख हैं, जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा गार्ह्य-सूत्र। नारद पुराण और भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है। विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से 300 वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी इसका उल्लेख किया गया है। संस्कृत साहित्य में वसन्त ऋतु और वसन्तोत्सव अनेक कवियों के प्रिय विषय रहे हैं।

इन सब के इतर सूफी संतों के इस देश में ये भी इतिहास में दर्ज है कि जिस शिद्दत और जोश व जज्बे से हमारे हिन्दू भाई इस पर्व को मनाते हैं या मनाते आए हैं उसी जोश और जज्बे के साथ यहां के मुसलमानों ने भी इस में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया है। सुप्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबेरूनी ने अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है। भारत के अनेक मुस्लिम कवियों ने अपनी रचनाओं में इस बात का उल्लेख किया है कि होलिकोत्सव केवल हिंदू ही नहीं मुसलमान भी मनाते हैं। सबसे प्रमाणिक इतिहास की तस्वीरें हैं मुगल काल की और इस काल में होली के किस्से उत्सुकता जगाने वाले हैं। अकबर का जोधाबाई के साथ तथा जहांगीर का नूरजहां के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है। अलवर संग्रहालय के एक चित्र में जहांगीर को होली खेलते हुए दिखाया गया है। इतिहास में वर्णन है कि शाहजहां के जमाने में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहा जाता था। अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे।

अतीत में सूफी और भक्ति आंदोलनों ने भी दोनों समुदायों के बीच मेलजोल को बढ़ावा दिया था।अपनी बहुचर्चित और सर्वधर्म में प्रेम और भाईचारे का दीप जलाने वाली किताब ‘आलम में इंतिखाब: दिल्ली’ के लिए समाज सेवा के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन 1972 में पद्म भूषण से सम्मानित महेश्वर दयाल लिखते हैं, “होली एक पुराना हिंदुस्तानी त्यौहार है जो हर कोई खेलता है चाहे वह पुरुष हो या महिला। चाहे वह किसी भी धर्म और जाति का हो। भारत में आने के बाद मुसलमान भी जोश से होली खेलने लगे चाहे वह कोई बादशाह हो या फकीर।”

13वीं सदी में हुए अमीर खुसरो (1253-1325) ने होली के त्यौहार पर कई छंद लिखे हैं:

खेलूंगी होली, ख्वाजा घर आए
धन धन भाग हमारे सजनी
ख्वाजा आए आंगन मेरे

मुगल सम्राट अकबर ने भी सांस्कृतिक मेल-जोल और सहिष्णुता को बढ़ावा दिया था। अकबर के राज में सभी त्यौहार उत्साह के साथ मनाए जाते थे और यह परंपरा आने वाले शहंशाहों के समय भी जारी रही।

16वीं सदी में इब्राहिम रसखान (1548-1603) ने लिखा:

आज होरी रे मोहन होरी
कल हमरे आंगन गारी दे आयो सो कोरी
अब क्यों दूर बैठे मैय्या ढ़िंग, निकसो कुंज बिहारी

तुजुक-ए-जहांगीर में जहांगीर (1569-1627) ने लिखा है, “उनका (हिंदुओं का) जो होली का दिन है, उसे वे साल का आखिरी दिन मानते हैं। इसके एक दिन पहले शाम को हर गली-कूचे में होली जलाई जाती है। दिन में वे एक दूसरे के सिर और चेहरे पर अबीर लगाते हैं।”

इतिहास में दर्ज है कि रात को लाल किले में होली का बड़ा जश्न होता था। रात भर नाच-गाना चलता । देश के अलग-अलग हिस्सों से मशहूर तवायफों का भी इस मौके पर आना होता था। इस मौके पर स्वांग करने वालों के झुंड शाहजहांबाद में जगह-जगह घूमते और दरबारियों और अमीरों के घरों में जाकर उनका मनोरंजन करते। रात को शहर मे महफिलें सजती थीं। क्या सामंत, क्या दरबारी और क्या कारोबारी, सभी इनमें जुटते और खूब जश्न मनाते थे।

कुल मिलाकर कर ये कहा जा सकता है कि रंगो का ये पर्व न सिर्फ रंगों की अठखेलियों के सहारे जश्न मनाने का नाम है, बल्कि आपसी सौहार्द और भाईचारे को बढ़ावा देने और मुहब्बत को आम करने का एक सर्वमान्य मौका है। जरूरत इस बात की है कि इस पर्व के गर्भ में समाए मोहब्बत और भाईचारे के पैगाम को सार्थक करके आज की द्वेषपूर्ण और नफरत को बढ़ावा देने वाली तथाकथित मुठ्ठीभर ताकतों को एक ऐसा पैगाम दिया जाए कि उनकी चंद एक बेमानी हरकत इस देश की सदियों पुरानी परंपरा और तहजीब को नुकसान नहीं पहुंचा सकती। हमारा देश अपनी सदियों पुरानी सर्वधर्म स्वीकार्य वाली सभ्यता को जिंदा रखने में कामयाब रहे बस यही दुआ है। देश वासियों को होली की हार्दिक शुभकामनाएं।

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