आज रंग है, ए मा रंग है री...खुसरो, रसखान और बुल्लेशाह की होली....
आज होली है।लेकिन इस बार होली अन्य राजनीतिक उहापोह में भिगोने के साथ ही हिंदी-उर्दू की बहस भी छेड़ने की कोशिश हुई। तो आइए याद करते हैं उन मुस्लिम शायरों, कवियों और सूफी-संतो के होली पर लिखे कलाम जिन्होंने इसमें न मजहब की परत जमने न दी और न भाषा की।

जिस दिन अमीर खुसरो अपने आध्यात्मिक गुरु निज़ामुद्दीन औलिया से मिले और उनकी तारीफ़ में लिखा- ‘आज रंग है ए मां, रंग है री / मेरे ख्वाजा के घर रंग है री…’ तो उन्होंने ख़्वाब भी न आया होगा कि जिस होली के दिन मिलन होने पर वह यह सब लिख रहे हैं, वही होली कभी हिन्दी और उर्दू के बीच उलझ जाएगी।
सोचा तो महबूब शायर नजीर अकबराबादी ने भी नहीं रहा होगा वरना वह होली के ‘रंगों की बहार’ और ‘झमकते रंग’ भला कैसे महसूस करते। उन्हें तो ‘दीवाली की अदायें भी खूब भाती’ थीं। यूपी में कांवड़ यात्रा के दौरान ‘हिन्दू-मुसलमान’ होना या अब ब्रज क्षेत्र में होली के दौरान मुसलमानों की एंट्री पर बैन की बेतुकी मांग का उछलना, अमीर खुसरो याद आने ही थी, बुल्ले शाह और नजीर अकबराबादी भी याद आए। हसरत मोहानी और कुछ अन्य शायर भी जिनकी उर्दू से होली के रंग बिखरे और खूब बरसे-
तो शुरुआत अमीर खुसरो की होली से:
होली के खुसरो, खुसरो की होली
आज रंग है, ऐ मा रंग है री, मोरे महबूब के घर रंग है री।
मोहे पीर पायो निजामुद्दीन औलिया, जब देखो मोरे संग है री।
दिल्ली में हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह में अमीर खुसरो की यह रचना आज भी पूरे सम्मान के साथ गाई जाती है। इतिहास गवाह है कि हजरत निजामुद्दीन औलिया के मुरीद और शायर अमीर खुसरो ने सूफीयाना परंपरा से बसंत और होली मनाने की शुरूआत की।
खुसरो खुद भी होली खेलते थे। उनकी होली गुलाबजल और फूलों के रंग से होती थी। खुसरो ने कई सूफियाना होली गीत भी लिखे। कहते हैं कि सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया ने सबसे पहले अपने मठ में होली मनाई, जिसके बाद तो होली सूफी संतों का पसंदीदा त्योहार और सूफी संस्कृति का अहम हिस्सा बन गया।
क़िस्सा यह भी है कि एक बार हजरत निजामुद्दीन को भगवान कृष्ण ने सपने में दर्शन दिए। तब उन्होंने खुसरो को बुलाकर श्रीकृष्ण पर हिंदवी (तब की लोक भाषा) में दीवान लिखने को कहा और ‘हालात एक कन्हैया और किशना’ जैसे दीवान की रचना हुई। इसमें श्रीकृष्ण के जीवन दर्शन के साथ खुसरो के लिखे होली गीत भी थे और हजरत के साथ होली खेलते वह यही गीत गाते। खुसरो होली के रंग को महारंग कहते थे।
गंज शकर के लाल निजामुद्दीन चिश्त नगर में फाग रचायो,
ख्वाजा निजामुद्दीन, ख्वाजा कुतबुद्दीन प्रेम के रंग में मोहे रंग डारो
सीस मुकुट हाथन पिचकारी, मोरे अंगना होरी खेलन आयो,
खेलो रे चिश्तियो होरी खेलो, ख्वाजा निजाम के भेस मे आयो।
अपने रंगीले पे हूं मतवारी, जिनने मोहे लाल गुलाल लगायो
ख्वाजा निजामुद्दीन चतुर खिलाड़ी बईयां पकर मोपे रंग डारो,
धन धन भाग वाके मोरी सजनी, जिनोने ऐसो सुंदर प्रीतम पायो।
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की
नजीर अकबराबादी
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।
ख़म शीशए, जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की।
महबूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली की।।
हो नाच रंगीली परियों का बैठे हों गुलरू रंग भरे।
कुछ भीगी तानें होली की कुछ नाज़ो-अदा के ढंग भरे।
दिल भूले देख बहारों को और कानों में आहंग भरे।
कुछ तबले खड़के रंग भरे कुछ ऐश के दम मुंहचंग भरे।
कुछ घुंघरू ताल झनकते हों तब देख बहारें होली की।।
सामान जहां तक होता है इस इशरत के मतलूबों का।
वो सब सामान मुहैया हो और बाग़ खिला हो ख़ूबों का।
हर आन शराबें ढलती हों और ठठ हो रंग के डूबों का।
इस ऐश मज़े के आलम में इक ग़ोल खड़ा महबूबों का।
कपड़ों पर रंग छिड़कते हों तब देख बहारें होली की।।
गुलज़ार खिले हों परियों के, और मजलिस की तैयारी हो।
कपड़ों पर रंग के छीटों से ख़ुशरंग अजब गुलकारी हो।
मुंह लाल, गुलाबी आंखें हों, और हाथों में पिचकारी हो।
उस रंग भरी पिचकारी को, अंगिया पर तककर मारी हो।
सीनों से रंग ढलकते हों, तब देख बहारें होली की ।।
यह धूम मची हो होली की और ऐश मज़े का छक्कड़ हो।
उस खींचा-खींच घसीटी पर और भडुए रंडी का फक्कड़ हो।
माजून शराबें, नाच, मज़ा और टिकिया, सुलफ़ा, कक्कड़ हो।
लड़-भिड़के ‘नज़ीर’ फिर निकला हो कीचड़ में लत्थड़-पत्थड़ हो।
जब ऐसे ऐश झमकते हों तब देख बहारें होली की ।।
(ख़म=सुराही, छकते=मस्त, गुलरू=फूलों जैसे मुखड़े वाली,
आहंग=गान, इशरत=ख़ुशी, मतलूबों=इच्छुक, मयनोशी=शराबनोशी,
भड़ुए=वेश्याओं के साथ नकल करने वाले, भड़ुवा=मज़ाक, भवैयों=
भावपूर्ण ढंग से नाचने वाले, माजून=कुटी हुई दवाओं को शहद या
शंकर क़िवाम में मिलाकर बनाया हुआ अवलेह, टिकिया=चरस गांजे
वगैरह की टिकिया, सुलफ़ा=चरस)
मियां तू हमसे न रख कुछ गुबार होली में
नजीर अकबराबादी
मियां तू हमसे न रख कुछ गुबार होली में।
कि रूठे मिलते हैं आपस में यार होली में।
मची है रंग की कैसी बहार होली में।
हुआ है ज़ोरे चमन आश्कार होली में।
अजब यह हिन्द की देखी बहार होली में॥
अब इस महीने में पहुंची हैं यां तलक यह चाल।
फ़लक का जामा पहन सुखऱी शफ़क़ से लाल।
बनाके चांद और सूरज के आस्मा पर थाल।
फरिश्ते खेले हैं होली बना अबीरो गुलाल।
तो आदमी का भला क्या शुमार होली में॥
सुनाके होली जो जहरा बजाती है तंबूर।
तो उसके राग से बारह बरूज हैं मामूर।
छओं सितारों के ऊपर पड़ा है रंग का नूर।
सभों के सर पै हरदम पुकारती हैं हूर।
कि रंग से कोई मत कीजो आर होली में॥
जो घिर के अब्र कभी इस मजे़ में आता है।
तो बादलों में वह क्या-क्या ही रंग लाता है।
खुशी से रांद भी ढोलक की गत लगाता है।
हवा की होलियां गा-गा के क्या नचाता है।
तमाम रंग से पुर है बहार होली में॥
चमन में देखो तो दिन रात होली रहती है।
शराब नाब की गुलशन में नहर बहती है।
नसीम प्यार से गुंचे का हाथ गहती है।
और बाग़वान से बुलबुल खड़ी यह कहती है।
न छेड़ मुझको तू ऐ बदशिआर होली में॥
गुलों ने पहने हैं क्या क्या ही जोड़े रंग-बिरंग।
कि जैसे लड़के यह माशूक पहनते हैं तंग।
हवा से पत्तों के बजते हैं ताल और मरदंग।
तमाम बाग़ में खेले हैं होली गुल के संग।
अजब तरह की मची है बहार होली में॥
मजे़ की होती है होली भी राव राजों के यां।
कई महीनों से होता है फाग का सामां।
महकती होलियां गाती हैं गायनें खड़ियां।
गुलाल अबीर भी छाया है दर ज़मीनों ज़मां।
चहार तरफ़ है रंगों की मार होली में॥
अमीर जितने हैं सब अपने घर में है खु़शहाल।
क़ब़ाऐं पहने हुए तंग तंग गुल की मिसाल।
बनाके गहरी तरह हौज़ मिल के सब फिलहाल।
मचाते होलियां आपस में ले अबीरो गुलाल।
बने हैं रंग से रंगी निगार होली में॥
यह सैर होली की हमने तो ब्रज में देखी।
कहीं न होवेगी इस लुत्फ़ की मियां होली।
कोई तो डूबा है दामन से लेके ता चोली।
कोई तो मुरली बजाता है कह ‘कन्हैयाजी’।
है धूमधाम यह बेइख़्तियार होली में॥
घरों से सांवरी और गौरियां निकल चलियां।
कुसुंभी ओढ़नी और मस्ती करती अचपलियां।
जिधर को देखें उधर मच रही है रंगरलियां।
तमाम ब्रज की परियों से भर रही गलियां।
मज़ा है, सैर है, दर हर किनार होली में॥
जो कोई हुस्न की मदमाती गोरी है वाली।
तो उसके चेहरे से चमके हैं रंग की लाली।
कोई तो दौड़ती फिरती है मस्त रुखवाली।
किसी की कुर्ती भी अंगिया भी रंग से रंग डाली।
किसी को ऐश सिवा कुछ न कार होली में॥
जो कुछ कहाती है अबला बहुत पिया-प्यारी।
चली है अपने पिया पास लेके पिचकारी।
गुलाल देख के फिर छाती खोल दी सारी।
पिया की छाती से लगती वह चाव की मारी।
न ताब दिल को रही ने क़रार होली में॥
जो कोई स्यानी है उनमें तो कोई है नाकंद ।
वह शोर बोर थी सब रंग से निपट यक चंद।
कोई दिलाती है साथिन को यार की सौगंद।
कि अब तो जामा व अंगिया के टूटे हैं सब बंद।
‘फिर आके खेलेंगे होकर दो चार होली में'॥
कोई तो शर्म से घूंघट में सैन करती है।
और अपने यार के नैनों में नैन करती है।
कोई तो दोनों की बातों को गै़न करती है।
कोई निगाहों में आशिक़ को चैन करती है।
ग़रज तमाशे हैं होते हज़ार होली में॥
‘नज़ीर’ होली का मौसम जो जग में आता है।
वह ऐसा कौन है होली नहीं मनाता है।
कोई तो रंग छिड़कता है कोई गाता है।
जो ख़ाली रहता है वह देखने को जात है।
जो ऐश चाहो सो मिलता है यार होली में॥
(गुबार=मनोमालिन्य, आश्कार=प्रकट, फ़लक=
आकाश, शफ़क़=उषा,शाम की लाली, नाब=
खालिस, नसीम=ठंडी और धीमी हवा, गुंचे=
कली, बदशिआर=दुष्प्रकृति वाले, क़ब़ाऐं=दोहरा
लंबा अंगरखा, चोग़ा, निगार=समान, दामन=
कार=कार्य, ताब=शक्ति, नाकंद=नादान)
होली पिचकारी
नजीर अकबराबादी
हां इधर को भी ऐ गुंचादहन पिचकारी।
देखें कैसी है तेरी रंगबिरंग पिचकारी।।
तेरी पिचकारी की तक़दीद में ऐ गुल हर सुबह।
साथ ले निकले है सूरज की किरण पिचकारी।।
जिस पे हो रंग फिशां उसको बना देती है।
सर से ले पांव तलक रश्के चमन पिचकारी।।
बात कुछ बस की नहीं वर्ना तेरे हाथों में।
अभी आ बैठें यहीं बनकर हम तंग पिचकारी ।।
हो न हो दिल ही किसी आशिके शैदा का ‘नज़ीर’ ।
पहुंचा है हाथ में उसके बनकर पिचकारी ।।
(गुंचादहन=कली जैसे सुन्दर और छोटे मुंह वाली,
तक़दीद=स्वागत में, फिशां=रंग छिड़का हुआ)
होरी खेलूंगी कहकर बिस्मिल्लाह
बुल्ले शाह
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह
नाम नबी की रतन चढ़ी बूंद पड़ी अल्लाह अल्लाह
रंग-रंगीली ओही खिलावे जो सखी होवे फ़ना-फ़िल्लाह
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह
अलस्तो-बे-रब्बेकुम पीतम बोले सब सखियों ने घुंघट खोले
क़ालू-बला ही यूं कर बोले ला-इलाहा इल-लल्लाह
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह
नहनो-अक़रब की बंसी बजाई मन-अरफ़-वफ़्सह की कूक सुनाई
फ़सम्मा वज्हुल्लाह की धूम मचाई विच दरबार रसूलल्लाह
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह
हाथ जोड़ कर पांव पड़ूँ गी आजिज़ हो कर बिंती करूंगी
झगड़ा कर भर झोली लूंगी नूर मोहम्मद सल्लल्लाह
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह
सिब्गतुल्लाह की भर पिचकारी अल्लाहुस-समद पिया मुंह पर मारी
नूर नबी दा हक़ से जारी नूर मोहम्मद सल्लल्लाह
‘बुल्लिहा’ शौह दी धूम मची है ला-इलाहा इल-लल्लाह
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह
मो पे रंग न डार मुरारी
हसरत मोहानी
मोपे रंग न डार मुरारी
मिन्ती करत हूं तोहारी
पनिया भरन काह जाये न देहीं
श्याम भरे पिचकारी
थर-थर कांपत लाजन ‘हसरत’
देखत हैं नर-नारी
बेगम अख्तर की होली
बेगम अख्तर अकसर यह ठुमरी गाती थीं....बहुत बार महफिलों में, और अकसर रेडियो कार्यक्रमों में
होरी खेलन कैसे जाऊं सखी री, बीच में ठाढ़ो कन्हैया रे दईया
ए री कैसे जाईं सखी री, राहे-बाट में रोकत-टोकत
कैने गांव की रीत रे दईया,
होरी खेलन कैसे जाऊं सखी री.
रसखान की होली
फागुन लाग्यौ जब ते तब ते ब्रजमंडल धूम मच्यौ है।
नारि नवेली बचै नहिं एक विसेख यहै सवै प्रेम अच्यौ है।
साँझ सकारे वही रसखानि सुरंग गुलाल लै खेल रच्यौ है।
को सजनी निलजी न भई अब कौन भटू जिहिं मान बच्यौ है॥
(भावार्थ - कोई गोपी अपनी सखी से कहती है कि हे सखि! जबसे फागुन का महीना लगा है, तब से सारे ब्रज-मंडल से धूम मची हुई है। कोई भी युवती इस धूमधाम से नहीं बची है और सभी ने एक विशेष प्रकार का प्रेम पी लिया है। प्रातः और सांय आनंद-सागर कृष्ण लाल गुलाल लेकर फाग का खेल खेलते रहते हैं। हे सजनी! इस फागुन के महीने में कौन ऐसी ब्रजबाला है जो जो इससे बची रह गयी है?)
रात सपने मैं आए पिया मोसे खेलन होरी
मुज़्तर खैराबादी
रात सपने मैं आए पिया मोसे खेलन होरी
केसर पाग सीस पर बाँधै ता पर रंग पड़ो री
हाथ लै रंग पिचकारी अबरा की डारै झोरी
दे पग चोरी चोरी
रात सपने में आए पिया मोसे खेलन होरी
सोवत मा अबरा मुख मल के रंग देहिन सब चोरी
दुलरी की तुलरी कर डालन पत नग बसेर तोरी
केहिन सब गत मोरी
रात सपने मैं आए पिया मोसे खेलन होरी
सोवत मा मोहे चेत दिलाइन चूम के अंखियां मोरी
जाग पड़ूं तौ कुछ न पाउं का भए ‘मुज़्तर’ गोरी
अभी खेलत थे होरी
रात सपने में आए पिया मोसे खेलन होरी
बहार होली की पर्दे में रंग लाई है
शाह अकबर दानापूरी
बहार होली की पर्दे में रंग लाई है
ख़िजां की फ़स्ल पे फ़ौज-ए-चमन चढ़ आई है
बुतान-ए-हिन्द अ’बीर-ओ-गुलाल उड़ाते हैं
उन्हीं की चारों तरफ़ हिन्द में दुहाई है
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