‘स्वतंत्र और निष्पक्ष’ चुनाव की उम्मीद कैसे?

केंद्र सरकार ने एक के बाद एक, उन तमाम सुझावों को ताक पर रख दिया जिनसे चुनाव आयुक्त स्वतंत्र हो सकता था और लोकतंत्र के रक्षक के तौर पर उसकी साख मजबूत हो सकती थी।

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ए जे प्रबल

क्या एक लोकतंत्र में किसी राजनीतिक दल को चुनाव से ठीक पहले और चुनाव के दौरान करदाताओं के 40,000 करोड़ रुपये बांटने की इजाजत दी जा सकती है? बिहार और इससे पहले मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में हुए चुनावों ने दिखा दिया है कि सत्तारूढ़ पार्टियां ऐसा करके भी पाक-साफ बच सकती हैं।

ऐसा तभी हुआ है जब सत्ताधारी राजनीतिक पार्टियों को सत्ता का गलत इस्तेमाल करने से रोकने के लिए बनी संस्थाओं ने उन्हें ऐसा करने दिया, बल्कि यूं कहें कि वास्तव में वे इसमें शामिल रहीं। पहली बार वोट देने वालों को शायद पता भी न हो, एक समय था जब भारत के चुनाव आयोग ने स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के रखवाले के तौर पर दुनिया भर में नाम कमाया था। हालांकि, अगर आप देखें कि उस दौर से हम कितना आगे आ चुके हैं तो शायद वे दिन किसी खोई हुई सभ्यता के जान पड़ें। 

क्या भारत के चुनाव आयोग (ईसीआई) को चुनाव से ऐन पहले सरकारी पैसे के इस तरह इस्तेमाल की इजाजत देनी चाहिए थी? क्या यह बिल्कुल साफ नहीं था कि इसका मकसद चुनाव के नतीजों पर असर डालना था? क्या इससे कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए कि इस तथाकथित ‘चल रही’ स्कीम के लिए पहले से न तो कोई बजट बनाया गया था और न विधानसभा में इस पर कोई चर्चा ही हुई थी? क्या यह साफ नहीं है कि सिर्फ सत्ता में रहने वाली पार्टी, जिसकी सरकारी खजाने तक पहुंच हो, वह ही इस तरह से सरकारी पैसे का गलत इस्तेमाल कर सकती है? क्या यह ‘स्वतंत्र और निष्पक्ष’ चुनाव के सिद्धांत का उल्लंघन नहीं करता जो एक क्रियाशील लोकतंत्र में चुनाव कराने का आधार होना चाहिए?

क्यों नहीं लगी पैसे बांटने वाली योजना पर रोक!

क्या बिहार में 10,000 रुपये का नकद हस्तांतरण चुनाव आयोग के अपने आदर्श आचारसंहिता का उल्लंघन नहीं था? आयोग से लंबे समय से जुड़े एक पूर्व नौकरशाह ने कहा, ‘मुझे इस चुनाव आयोग से नफरत है।’ दिवालिया बिहार सरकार के पास पैसे कहां से आ गए? क्या उसने केंद्र सरकार से यह रकम उधार ली या फिर विशेष अनुदान के तौर पर? इनमें से कोई भी स्थिति हो, यह किसी भी लोकतंत्र में भ्रष्टाचार ही कहलाएगा। यह अपने आप में एक अलग विषय है, लेकिन फिर किस दिन! फिलहाल तो हम अपने चुनावों को उनके दावे की रोशनी में ही देखते हैं। 

‘नवजीवन’ से बातचीत में पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ओ पी रावत ने माना कि नकद हस्तांतरण बहुत बुरा और हैरान करने वाला था। उन्होंने कहा, ‘सत्ता में बैठी पार्टियां आदर्श आचार संहिता में मौजूद खामियों का फायदा उठाती हैं। आचार संहिता किसी भी नई स्कीम की घोषणा पर रोक लगाती है, लेकिन यह रोक पहले से ‘चल रही’ स्कीम पर लागू नहीं होती। आयोग को इस कमी को दूर करने के लिए आचार संहिता की समीक्षा कर इसमें बदलाव करने चाहिए।’ रावत चुनावी सालों में नई स्कीमों और परियोजनाओं पर पूरी तरह रोक लगाने के पक्षधर हैं।

अगर चुनाव आयोग ने अपना ही रिकॉर्ड देखा होता, तो उसे पता चलता कि उसने चुनाव के दौरान कई मौकों पर पहले से चल रही स्कीमों को भी रोका है। तमिलनाडु में आयोग ने किसानों को मुफ्त बिजली के बदले नकदी देने से रोक दिया था। उसने 2011 में तमिलनाडु में ही गरीब परिवारों को कलर टीवी सेट बांटना भी रोक दिया था, हालांकि यह भी एक ‘चल रही’ स्कीम थी।


बिहार के मामले में और भी चौंकाने वाली बात यह है कि नकद हस्तांतरण से लाभान्वित होने वालों- इस हस्तांतरण से मशहूर हुईं 1.8 लाख जीविका दीदियों को- वोटिंग के दिनों में चुनाव ड्यूटी पर लगा दिया गया! चुनाव आयोग ने सरकारी मदद के प्रत्यक्ष लाभार्थियों को ‘वॉलंटियर’ के तौर पर तैनात करने से हुए हितों के टकराव को कैसे नजरअंदाज कर दिया? आयोग को चुनाव के बाद प्रेस नोट में उनकी तैनाती की बात बताने में भी कोई दिक्कत नहीं दिखी। सीपीआई-एमएल (लिबरेशन) के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य के शब्दों में- ‘यह पक्का करने के लिए कि (कैश) बांटने से सच में वोट मिलें और चुनावी फसल कायदे से काटी जा सके।’

चुनाव आयोग और सत्ता का गठजोड़

मौजूदा चुनाव आयोग के साथ सत्तारूढ़ दल का 'अच्छा' रिश्ता खुला राज है। जब विपक्ष चुनाव कराने के तरीके पर शक करता है, जब वह गलत कामों को सामने लाता है- जैसा कि उसने मतदाता सूची और एसआईआर (स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन) प्रक्रिया के बारे में लगातार किया है- तो पहले चुनाव आयोग सफाई नहीं देता, खंडन नहीं करता या जवाब नहीं देता, बल्कि यह काम बीजेपी करती है। क्या यह अजीब नहीं है?

स्वर्गीय टी.एन. शेषन ने एक बार कहा था कि मुख्य चुनाव आयुक्त के तौर पर वह ‘सरकार का हिस्सा जरूर थे लेकिन सरकार के मातहत नहीं थे’, कि वह राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री- दोनों को रिपोर्ट करते थे लेकिन वह उनके ‘सबऑर्डिनेट नहीं थे’। मौजूदा मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार, जिनका मौजूदा केंद्रीय गृह मंत्री के पीछे चलने का इतिहास रहा है (भक्तों, आप ग्रोक से पूछकर इसकी पुष्टि कर सकते हैं), के कार्यकाल में चुनाव आयोग एक खास म्यूजिक ब्रांड की याद दिलाता है- एचएमवी यानी हिज मास्टर्स वॉयस, … कुछ याद आया?

चुनाव आयोग कार्यालय की जरूरत के हिसाब से एक हाथ की दूरी बनाए रखने के बजाय, मौजूदा मुख्य चुनाव आयुक्त/चुनाव आयोग कदम-कदम पर सत्तारूढ़ पार्टी की सहूलियत का ध्यान रख रहा है और विपक्ष के खिलाफ रहा है। ऐसे चुनाव आयोग से, जो मौजूदा व्यवस्था में सरकार के मातहत एक महकमा बनकर रह गया हो, यह उम्मीद करना भी शायद नादानी है कि वह संतुलन बनाएगा। चुनाव आयुक्तों को अब तीन लोगों की कमेटी नियुक्त करती है, जिसमें प्रधानमंत्री, प्रधानमंत्री द्वारा केन्द्रीय मंत्रिमंडल से नामित सदस्य, और नेता प्रतिपक्ष होते हैं। दूसरे शब्दों में, सत्तारूढ़ पार्टी के पक्ष में 2:1 का बहुमत। ऐसे में भला क्या संभव है कि चुनाव आयोग पूरी तरह निष्पक्ष होगा?

बिहार में एसआईआर को ही लीजिए। 23 जून को अचानक घोषणा करने से पहले राजनीतिक पार्टियों के साथ कोई सलाह-मशविरा नहीं किया गया था। एसआईआर को इतनी जल्दी क्यों घोषित करना पड़ा? अगर चुनाव आयोग के भीतर इस पर बातचीत हुई थी, तो ऐसा कोई विवरण पब्लिक डोमेन में मौजूद नहीं है- न कोई फाइल नोटिंग और न बैठक के मिनट्स। अचानक यह फैसला किसने और क्यों लिया? अगर जनवरी 2025 की वोटर लिस्ट, जो रूटीन समरी रिवीजन के बाद तैयार की गई थी, उसमें इतनी बड़ी गलती थी, तो 2024 के लोकसभा के जनमत के बारे में उसका क्या कहना है?

चुनाव आयोग ने 2003 में बिहार में इसी तरह की प्रक्रिया में आठ महीने लगाए थे- बिना एन्यूमरेशन फॉर्म भरने या कोई कागज जमा करने की जरूरत के। इस बार आयोग पूरे काम को तीन महीने में खत्म करना चाहता था- और लगता है कि वह इंतजार नहीं कर सकता था क्योंकि सूची से ‘घुसपैठियों’ को हटाना जो था! एक महीने की मशक्कत, जिसमें असली मतदाता को ऐसे कागजात के लिए भटकना पड़ा जो उनके पास नहीं थे, आयोग ने मसौदा सूची से 65 लाख मतदाताओं (एसआईआर खत्म होने तक 69 लाख) को हटा दिया। सबसे बड़ा सवाल, चुनाव आयोग को कितने ‘घुसपैठिये’ मिले? एक भी नहीं!

प्रक्रिया पूरी होने के बाद कई ‘मृत’ घोषित वोटर सुप्रीम कोर्ट में यह सबूत देने आए कि वे अभी जिंदा हैं। कुछ ‘मृत’ वोटर राहुल गांधी से मिलने आए, कुछ उनकी प्रेस कॉन्फ्रेंस में आए और शिकायत की कि उनके गांव के 178 वोटरों के नाम हटा दिए गए हैं। चुनाव आयोग ने नाम हटाने का कोई कारण या बहाना भी नहीं बताया।


2 जून 1949 को संविधान के मसौदे पर चर्चा करते हुए (खासकर अनुच्छेद 289 पर जो बाद में संविधान का अनुच्छेद 324 बना, यानी चुनाव आयोग से संबंधित) डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने सदन में जताई गई इस शंका को दूर करने की कोशिश की थी कि चुनाव आयुक्तों का कार्यकाल सुरक्षित करना ही उनकी आजीदी की गारंटी के लिए काफी नहीं। तब आंबेडकर ने कहा थाः ‘यह कहा गया है कि अगर आप चुनाव आयुक्त का कार्यकाल तय और सुरक्षित कर दें, तो भी यह काफी नहीं क्योंकि कोई नासमझ या कुटिल या ऐसा व्यक्ति हो सकता है जो कार्यपालिका के नियंत्रण में हो। … एक आम सिविल सर्वेंट, चाहे वह कितने भी ऊंचे पद पर क्यों न हो, उसके कार्यकाल के लिए कोई संवैधानिक सुरक्षा नहीं है। उसे कार्यपालिका कभी भी हटा सकती है; इसलिए वह पूरी तरह से कार्यपालिका के नियंत्रण में है। लेकिन चुनाव आयुक्त की स्थिति अलग है। उनका कार्यकाल तय और सुरक्षित है। उन्हें सुप्रीम कोर्ट के जज को हटाने के तरीके के अलावा किसी और तरह से नहीं हटाया जा सकता। इसलिए, कार्यपालिका द्वारा उनके कामकाज को प्रभावित करने की आशंका बहुत कम है।’

साफ है कि आंबेडकर को अंदाजा नहीं था कि एक दिन चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति कार्यपालिका करेगी। चुनाव आयोग ने खुद, मुख्य चुनाव आयुक्त समेत चुनाव आयुक्तों को नियुक्त करने के तरीके पर टिप्पणी करने से बचते हुए अपनी आजादी बचाने के लिए पहले भी सिफारिशें की हैं, लेकिन स्थायी कैडर और एक अलग सचिवालय जैसे जरूरी प्रस्तावों को एक के बाद एक सरकारों ने नजरअंदाज किया है।

1990 में दिनेश गोस्वामी कमेटी, 2002 में पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एम.एन. वेंकटचलैया की अध्यक्षता वाले संविधान के कामकाज से जुड़े राष्ट्रीय आयोग, 2007 में दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग और 2015 में विधि आयोग की सिफारिशों को काफी हद तक नजरअंदाज किया गया है। 2015 में विधि आयोग की 255वीं रिपोर्ट में सिफारिश की गई थी कि भारत के मुख्य न्यायाधीश, लोकसभा अध्यक्ष, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष, राज्यसभा अध्यक्ष और प्रधानमंत्री की सदस्यता वाला कॉलेजियम चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति करे।

2023 में जस्टिस के.एम. जोसेफ की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संवैधानिक खंडपीठ ने सरकार को निर्देश दिया कि वह प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष को शामिल करके एक कॉलेजियम बनाए जो तब तक इन नियुक्तियों को करे जब तक संसद एक स्वतंत्र चुनाव आयोग बनाने के लिए कानून पास नहीं कर देती। लेकिन इस निर्देश की भावना का मजाक बनाते हुए सरकार ने इन नियुक्तियों का पूरा नियंत्रण प्रधानमंत्री को देने वाला कानून जबरदस्ती पास कर दिया। जब जनवरी 2024 में 2023 एक्ट को चुनौती दी गई (जया ठाकुर बनाम भारतीय संघ), तो सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून पर रोक लगाने से इनकार कर दिया, हालांकि मामला अब भी संविधान पीठ के पास लंबित है। 

तृणमूल कांग्रेस सांसद महुआ मोइत्रा ने 2025 में 2023 एक्ट को चुनौती देते हुए एक और याचिका दायर की। ​​उन्होंने अपनी याचिका में कहा कि 142 सांसदों को बिल के प्रावधानों पर चर्चा करने और उस पर वोट करने का मौका नहीं दिया गया। लिहाजा, जब बिल पास हुआ, तो लोकसभा में 97 विपक्षी सदस्य और राज्यसभा में 45 सदस्य हिस्सा नहीं ले सके क्योंकि उन्हें 2023 के शीत सत्र में सस्पेंड कर दिया गया था।

क्या भारत का सुप्रीम कोर्ट इस पर ध्यान देगा? हमें अब भी उम्मीद है। 

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