‘हर इंसान को सम्मान से मरने का अधिकार’, ‘इच्छा मृत्यु’ को सुप्रीम कोर्ट से सशर्त मंजूरी

कोमा में जा चुके या मौत की कगार पर पहुंच चुके लोगों को वसीयत के आधार पर निष्क्रिय इच्छा मृत्यु का हक होगा। सुप्रीम कोर्ट ने 9 मार्च को यह अहम फैसला सुनाया।

फोटो: सोशल मीडिया 
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नवजीवन डेस्क

सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने इच्छा मृत्यु के मामले में बड़ा फैसला सुनाते हुए कुछ शर्तों के साथ इसे इजाजत दे दी है। कोर्ट ने याचिका पर सुनवाई करते कहा कि हर व्यक्ति को गरिमा के साथ मरने का अधिकार है और किसी भी इंसान को इससे वंचित नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने इच्छा मृत्यु के लिए एक गाइडलाइन जारी की है, जो कि कानून बनने तक प्रभावी रहेगी। दीपक मिश्रा की अगुवाई में पांच जजों की संवैधनिक पीठ ने यह ऐतिहासिक फैसला सुनाया।

कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि इच्छा मृत्यु की मांग करने वाले शख्स के परिवार की अर्जी पर लिविंग विल को मंजूर किया जा सकता है लेकिन इसके लिए एक्सपर्ट डॉक्टर्स की टीम को भी यह लिखकर देना होगा कि बीमारी से ग्रस्त शख्स का स्वस्थ होना असंभव है।

‘लिविंग विल’ एक लिखित दस्तावेज होता है जिसमें कोई मरीज पहले से ये निर्देश देता है कि मरणासन्न स्थिति में उसके पहुंचने या रजामंदी नहीं दे पाने की हालत में उसे किस तरह का इलाज दिया जाए।

‘पैसिव यूथेनेशिया’ (इच्छा मृत्यु) वह स्थिति है जब किसी मरणासन्न व्यक्ति की मौत की तरफ बढ़ाने की मंशा से उसे इलाज देना बंद कर दिया जाता है।

चीफ जस्टि दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच जजों की पीठ ने पिछले साल 11 अक्टूबर को इस याचिका पर अपना फैसला सुरक्षित रखा था।

एक एनजीओ ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर कहा था कि संविधान के आर्टिकल 21 के तहत जिस तरह नागरिकों को जीने का अधिकार दिया गया है, उसी तरह उन्हें मरने का भी अधिकार है। इस पर केंद्र सरकार ने कहा था कि इच्छा मृत्यु की वसीयत (लिविंग विल) लिखने की अनुमति नहीं दी जा सकती, लेकिन मेडिकल बोर्ड के निर्देश पर मरणासन्न का सपॉर्ट सिस्टम हटाया जा सकता है।

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Published: 09 Mar 2018, 11:53 AM