साख बनाने के लिए अमेरिकी गैस का सौदा: खाड़ी देशों के मुकाबले ज्यादा पैसे देकर होगी अमेरिकी एलपीजी की सप्लाई
भारतीय कंपनियां अब अमेरिका से एलपीजी खरीदेंगी। वैसे तो यह खरीद कुल एलपीजी खपत का महज 10 फीसदी होगा, लेकिन माना जा रहा है कि इस बहाने अमेरिका के सामने साख बनाने की कोशिश की जा रही है।

भारत की तेल कंपनियों ने देश में एलपीजी खपत का 10 फीसदी अमेरिका से खरीदने पर सहमति जताई है। कहा जा रहा है ऐसा अमेरिका के साथ साख स्थापित करने और अमेरिका के साथ अन्य वस्तुओं के व्यापार में संतुलन बनाने के लिए किया गया है। वैसे तो यह गैस खरीद लागत के हिसाब से महंगा सौदा है, फिर भी इसे 'ऊर्जा सुरक्षा' और अन्य नामों के साथ उचित ठहराया जा रहा है।
इस सहमति को वाजिब ठहराने में भारतीय अधिकारियों को मशक्कत करना पड़ रही है और वे यह सफाई नहीं दे पा रहे हैं कि गैस खरीद की इस सहमति का दोनों देशों के बीच निष्पक्ष व्यापार समझौते पर पहुंचने के लिए चल रही बातचीत से कोई लेना-देना नहीं है। उनका कहना है कि भारत लंबे समय से इस विकल्प पर विचार कर रहा था और अब जब अवसर आया है, तो भारत ने अमेरिका से एलपीजी के लिए बाज़ार खोलने का फैसला किया है।
दिलचस्प बात यह है कि चीन ने अमेरिका से एलपीजी खरीदना बंद कर दिया है और गैस सप्लाई के लिए मध्य पूर्व की तरफ रुख कर लिया है, जबकि भारत ने इसके उलट कथित ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करने और आपूर्ति के स्रोतों में विविधता लाने के लिए अमेरिका की तरफ कदम उठाया है। वैसे विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि चीन को सप्लाई में रुकावटों के बाद अमेरिकी एलपीजी की कीमतों में कमी का भारत फायद उठा सकता है। चीन इससे पहले जापान के साथ अमेरिका से एलपीजी का मुख्य खरीदार था।
भारत इससे पहले कतर, बहरीन और सऊदी अरब से एलपीजी हासिल करता रहा है। हालांकि, इज़राइल और ईरान के बीच संघर्ष, गाजा में इज़राइली नरसंहार और फ़िलिस्तीन पर आक्रमण के विरोध में हूतियों द्वारा लाल सागर मार्ग को खतरे में डालने के बाद, भारत ने एक वैकल्पिक स्रोत की तलाश शुरु कर दी थी। और उसे अमेरिका में यह सोर्स मिल गया है। अधिकारियों की सफाई है कि अमेरिका से एलपीजी आयात केवल लागत बचत के लिए नहीं किया जाएगा।
तर्क दिए जा रहे हैं कि यूं तो मध्य पूर्व के गैस सप्लायर भारत से नजदीकी के कारण सस्ते बने रह सकते हैं, लेकिन अमेरिकी समझौते से ऊर्जा सुरक्षा बढ़ती है, आपूर्ति श्रृंखलाओं में विविधता आती है और अमेरिका के साथ व्यापारिक संबंध बेहतर होते हैं। संक्षेप में कहें तो, भारत एलपीजी के लिए थोड़ा ज़्यादा भुगतान कर रहा है, लेकिन लंबे समय में इससे रणनीतिक नर्मी हासिल हो सकती है।
समझौते के तहत 2026 तक अमेरिका से कुल 23 मिलियन टन एलपीजी आयात में से केवल 2.2 मिलियन टन (मिलियन टन प्रति वर्ष) आयात किया जाएगा। इससे संकेत मिलता है कि इस समझौते को लेकर भारत सतर्क है। विशेषज्ञों का कहना है कि नई दिल्ली व्हाइट हाउस में अपनी साख बनाने की कोशिश ज़रूर कर रही है, लेकिन वह हालात का जायज़ा लेने में भी धीमी गति से आगे बढ़ रही है।
भारतीय घरेलू उपभोक्ताओं द्वारा चुकाई जाने वाली रसोई गैस की कीमतों पर सरकार द्वारा सब्सिडी दी जाती है, जिसने पिछले साल उपभोक्ताओं के लिए रसोई गैस की कीमतें स्थिर रखने के लिए 40,000 करोड़ रुपये खर्च किए थे। एलपीजी सिलेंडर की कीमतें 1,100 रुपये की बजाय 800 से 900 रुपये के बीच रखने से अंतरराष्ट्रीय बाजार में उतार-चढ़ाव के बावजूद कीमतों को स्थिर रखने में मदद मिली।
अमेरिका से मिलने वाली एलपीजी की कीमत मॉन्ट बेलवियू, टेक्सास के मानक के अनुसार तय की जाएगी, जबकि मध्य पूर्व से मिलने वाली एलपीजी की कीमत सऊदी तेल कंपनी अरामको द्वारा निर्धारित मानक के अनुसार तय की जाएगी।
इस साल की शुरुआत में ग्लोबल एलपीजी बाजार में उथल-पुथल मची हुई थी, क्योंकि अमेरिकी आयातों पर ऊंचे टैरिफ के कारण चीनी खरीदारों को अमेरिकी माल की जगह मध्य पूर्व के विकल्प अपनाने पड़े, और इसी दौरान अमेरिकी शिपमेंट यूरोप और एशिया की तरफ मोड़ दिए गए। इसके बाद, चीनी आयातकों ने मध्य पूर्व के सप्लायर को चुना और जापान और भारत के एलपीजी खरीदारों ने कीमतों में गिरावट का फायदा उठाने की कोशिश की।
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