एनआरसी: महिलाओं के साथ कुछ ज्यादा ही हुआ है भेदभाव, बेशुमार परिवारों के बिखरने का है खतरा

असम में एनआरसी की अंतिम सूची में बेशुमार महिलाओं के नाम नहीं हैं, जबकि उनके पति और बच्चों के नाम लिस्ट का हिस्सा हैं। दरअसल पूरी प्रक्रिया में महिलाओं के साथ कुछ ज्यादा ही भेदभाव हुआ है। ऐसे में बेशुमार परिवारों के बिखरने का खतरा पैदा हो गया है।

फोटो : Getty Images
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ऐशलिन मैथ्यू

“मेरी पत्नी सीता देवी का नाम लिस्ट में नहीं है। उसके दस्तावेज उसके पिता के घर से आने हैं, लेकिन वह अब नहीं रहे। पहले तो किसी पास जन्म प्रमाण पत्र होता नहीं था। मेरे बेटे और बहू के नाम लिस्ट में हैं।” यह कहना है 60 साल के रहेंद्र हजोंग का, जो कैम्प बाजार की झुग्गियों में रहते हैं। उनके पास 1966 के बाद के दस्तावेज हैं, हालांकि यह सभी लोग यहां 1966 से पहले से बसे हुए हैं।

कैम्प बाजार गोआलपाड़ा इलाके का ऐसा शरणार्थी शिविर है जिसमें हजोंग, कोच, बनाई और गारो समुदाय के लोग रहते हैं। इनमें से ज्यादातर पूर्वी पाकिस्तान (जो अब बांग्लादेश है) से 1964 के आसपास यहां आए थे।

गोआलपाड़ा के कैम्प बाजार में अपने पति के साथ सीतादेवी
गोआलपाड़ा के कैम्प बाजार में अपने पति के साथ सीतादेवी

सीता का मामला अकेला नहीं है। यहां के ज्यादातर परिवारों की महिलाओं के नाम अंतिम एनआरसी सूची में नहीं आ पाए हैं। सीता देवी के पति कहते हैं, “हम गरीब लोग हैं। हम कभी न तो स्कूल गए और न ही पढ़ाई-लिखाई की, तो कैसे हम कागजात इकट्ठा कर पाते। हमारे पास कुछ दस्तावेज थे, जो हमने जमा करा दिए थे। लेकिन अब ऐसा लगता है कि अधिकारी उन कागजातों को मिलने की बात तक मानने को तैयार नहीं हैं।”

दरअसल एनआरसी की प्रक्रिया में महिलाओं को बाहर कर दिया गया और उनके साथ भेदभाव भी हुआ है। पूरी प्रक्रिया के दौरान लिंग अनुपात का या न्याय का कोई पैमाना पूरा ही नहीं किया गया। एक तरह से एकतरफा फैससा कर महिलाओं को सूची से बाहर कर दिया गया है।


दो-एक दशक पहले तक असम में बाल विवाह आम बात थी। जिन महिलाओं के विवाह 18 से कम उम्र में हो गए, उनके नाम वोटर लिस्ट में आ गए और उनका एकमात्र रिश्ता उनके पतियों से दिखाया गया है। लेकिन एनआरसी की प्रक्रिया में ऐसे दस्तावेज़ों की कोई अहमियत नहीं है। ऐसे में एनआरसी से परिवारों के टूटने का खतरा पैदा हो गया है और महिलाओं के बडे पैमाने पर वोट देने के अधिकार से वंचित किया जा रहा है। भारत जैसे पुरुषवादी समाज में आमतौर पर महिलाओं की पहचान उनके पतियों से होती है, लेकिन एनआरसी इसे मानने को तैयार नहीं है।

इनमें से कुछ महिलाएं प्राइमरी स्तर तक स्कूलों में गई भी हैं, लेकिन एनआरसी नियम ऐसे दस्तावेजों को मानते ही नहीं।

असम विधानसभा में विपक्ष और कांग्रेस नेता देवव्रत सैकिया बताते हैं, “पूरी प्रक्रिया की यह बड़ी समस्या है। बहुत सी महिलाएं, खासतौर से गरीब तबके की महिलाओं को दस्तावेज़ों के अभाव में एनआरसी से बाहर कर दिया गया है। असम में जन्म या मृत्यु को पंजीकृत कराना 1985 तक जरूरी नहीं था। एनआरसी प्रक्रिया इसे नहीं मानती है। कई महिलाओं की शादी 18 से कम उम्र में हो गई थी, ऐसे में उनके माता-पिता के साथ उनका नाम वोटर लिस्ट में नहीं हो सकता।“

उन्होंने बताया कि वे कई ऐसी मारवाड़ी महिलाओं को जानते हैं जिनके नाम एनआरसी में नहीं हैं। वे इस बारे में कुछ बोल भी नहीं सकतीं क्योंकि मारवाड़ियों में लड़कियों की शादी 18 साल से पहले हो जाती है। ऐसे में वे क्या दस्तावेज देंगी, हालांकि वे भारतीय नागरिक हैं।


महिलाओं के एनआरसी से बाहर किए जाने का असर हर समुदाय पर है। रिमी सेन (बदला हुआ नाम) कहती हैं, “मेरी मां का नाम लिस्ट में नहीं है। हमारे दादा-दादी 1950 पूर्वी पाकिस्तान से आकर सिलचर में बसे थे, उस समय हमारे माता-पिता युवा थे। मेरी मां की 18 साल से कम उम्र में शादी हो गई थी। उनके पास कोई जन्म प्रमाण पत्र नहीं है। जब दादा-दादी यहां आए थे तो उनके पास मामूली दस्तावेज थे और एक शरणार्थी दस्तावेज भी था। हमने सभी दस्तावेज विदेश न्यायाधिकरण को दे दिए हैं। हम एक बार फिर कोशिश करेंगे।”

वह कहती हैं, “मेरी बेहद खौफ में हैं कि उन्हें बंदी गृह में डाल दिया जाएगा। वह बीमार पड़ गई हैं। मेरे माता-पिता नहीं चाहते कि मैं इस बारे में बात भी करूं।” रिमी एक बंगाली हिंदू परिवार से हैं जो 1959 से सिलचर में रह रहा है।


गोरखा समुदाय की समस्या भी यही है। करीब 80,000 गोरखा लोगों के नाम एनआरसी में नहीं आए हैं। इनमें से करीब 10,000 महिलाएं है, जिन पर दस्तावेजों के अभाव में अपने परिवारों से बिछड़ने का खतरा मंडरा रहा है।

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