क्या अब पश्चिम बंगाल के विभाजन की तैयारी में है मोदी सरकार? केंद्र की बैठक से फिर उभरा गोरखालैंड विवाद

टीएमसी के अलावा सभी गैर-बीजेपी दल भी अचानक बुलाई केंद्र की इस बैठक से हैरत में हैं। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के विनय तामंग गुट का कहना है कि बीजेपी को सिर्फ चुनाव से पहले ही गोरखालैंड की याद आती है। बीजेपी इसी मुद्दे पर 11 साल से दार्जिलिंग सीट जीतती रही है।

फाइल फोटोः सोशल मीडिया
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DW

पश्चिम बंगाल में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले केंद्र सरकार ने दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र और गोरखालैंड टेरीटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (जीटीए) से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर बातचीत के लिए बुधवार को दिल्ली में एक त्रिपक्षीय बैठक बुलाई। लेकिन ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली राज्य सरकार ने इसे चुनावी स्टंट करार देते हुए इसके बॉयकॉट का फैसला किया है। पहले यह बैठक गोरखालैंड के मुद्दे पर बुलाई गई थी, लेकिन राज्य सरकार की आपत्ति के बाद इसका एजेंडा बदल कर जीटीए कर दिया गया। बावजूद इसके सरकार ने बैठक में शामिल नहीं होने का फैसला किया है। उसका आरोप है कि केंद्र सरकार पश्चिम बंगाल के विभाजन का प्रयास कर रही है।

केंद्रीय गृह मंत्रालय ने शनिवार को भेजे एक पत्र में कहा था कि गोरखालैंड से जुड़े मुद्दों पर विचार-विमर्श के लिए सात अक्टूबर को दिल्ली में एक बैठक आयोजित की जाएगी। बैठक की अध्यक्षता केंद्रीय गृह राज्य मंत्री जी किशन रेड्डी करेंगे। लेकिन राज्य सरकार की आपत्ति के बाद सोमवार शाम को इसके एजंडे में संशोधन करते हुए इसे जीटीए से जुड़े मुद्दों पर चर्चा के लिए बुलाई गई बैठक करार दिया गया। लेकिन बावजूद इसके राज्य सरकार ने उक्त बैठक में शामिल नहीं होने का ऐलान कर दिया। दूसरी ओर, एजेंडा बदलने की वजह से पर्वतीय क्षेत्र के ज्यादातर राजनीतिक दलों ने भी इसे सियासी कवायद मानते हुए इसे कोई अहमियत देने से इंकार कर दिया है।

राज्य के अधिकार में अतिक्रमण का आरोप

पश्चिम बंगाल सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं, "बैठक के एजंडे में संशोधन के बावजूद राज्य सरकार उसमें हिस्सा नहीं लेगी। हमें बैठक बुलाने के तरीके पर घोर आपत्ति है। केंद्र बैठक की सूचना राज्य सरकार को दे सकता है, लेकिन वह यह तय नहीं कर सकता कि उसमें पश्चिम बंगाल से कौन-कौन हिस्सा लेगा। उक्त बैठक में दार्जिलिंग के जिलाशासक को भी न्योता दिया गया है। बैठक में सरकारी प्रतिनिधियों के शामिल होने के बारे में राज्य सरकार ही फैसला कर सकती है।"

ममता बनर्जी सरकार ने कहा है कि केंद्र ने बैठक बुलाने से पहले उससे सलाह-मशविरा नहीं किया था। राज्य सरकार की अनुमति के बिना केंद्र सीधे किसी अधिकारी को बैठक का न्योता नहीं दे सकता। एक अन्य अधिकारी बताते हैं, "अब तक ऐसी किसी तितरफा बैठक के बारे में केंद्र की ओर से मुख्य सचिव या गृह सचिव को पत्र भेजने की परंपरा रही है। लेकिन इस बार केंद्र ने सीधे दार्जिलिंग के जिलाशासक और जीटीए के प्रमुख सचिव को पत्र भेजकर उनसे बैठक में शामिल होने को कहा है। यह राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में सीधा अतिक्रमण है। इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।”

बंगाल के विभाजन की कोशिश का आरोप

बैठक में गोरखा जनुमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) के अध्यक्ष विमल गुरुंग को भी न्योता दिया गया है। यहां इस बात का जिक्र प्रासंगिक है कि गोरखा मोर्चा पहले ही दो-फाड़ हो चुका है। एक गुट की कमान बरसों से भूमिगत चल रहे विमल गुरुंग के हाथों में है और दूसरे की तृणमूल कांग्रेस के करीबी विनय तामंग के हाथों में है। लेकिन तामंग गुट को न्योता नहीं दिया गया है। उधर, गुरुंग गुट ने बैठक में शामिल होने का संकेत दिया है।

वहीं, दार्जिलिंग के बीजेपी सांसद राजू बिष्टा ने संसद के मानसून अधिवेशन के दौरान गोरखालैंड का मुद्दा उठाया था। बीजेपी का कहना है कि वह गोरखालैंड समस्या के स्थायी समाधान के पक्ष में है। प्रदेश बीजेपी महासचिव सायंतन बसु कहते हैं, "हम बंगाल का विभाजन नहीं, बल्कि दार्जिलिंग समस्या के एक स्थायी राजनीतिक समाधान का प्रयास कर रहे हैं।”

चुनाव से पहले बीजेपी को आई गोरखालैंड की याद

दूसरी ओर, तृणमूल कांग्रेस ने इसे बंगाल के विभाजन का प्रयास बताया है। दार्जिलिंग जिले के पार्टी के वरिष्ठ नेता और राज्य सरकार में मंत्री गौतम देब कहते हैं, "केंद्र सरकार अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले अपने सियासी फायदे के लिए बंगाल को बांटने का प्रयास कर रही है। लेकिन हम किसी भी कीमत पर ऐसा नहीं होने देंगे। बीजेपी अपनी इस साजिश में कामयाब नहीं हो सकेगी।”

तृणमूल कांग्रेस के अलावा दूसरे गैर-बीजेपी राजनीतिक दल भी अचानक बुलाई गई इस बैठक से हैरत में हैं। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के विनय तामंग गुट का कहना है कि केंद्र और बीजेपी को सिर्फ चुनावों से पहले ही गोरखालैंड की याद आती है। बीजेपी इसी मुद्दे पर 11 साल से दार्जिलिंग सीट जीतती रही है। तामंग गुट के नेता और जीटीए प्रशासक बोर्ड के अध्यक्ष अनित थापा कहते हैं, "केंद्र सरकार इलाके के गोरखा लोगों को मूर्ख बना रही है। अगले साल के चुनावों से पहले बैठक बुलाने से उसकी मंशा साफ है। आखिर अकेले विमल गुरुंग को बैठक का न्योता क्यों भेजा गया है?”

दार्जिलिंग के लेफ्ट फ्रंट नेता जे सरकार कहते हैं, "बीजेपी के दिल में हर चुनाव से पहले अचानक दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र के प्रति प्रेम उमड़ने लगता है। गोरखालैंड का मुद्दा उठा कर वह एक बार फिर अलगाववादी आंदोलन को हवा देने का प्रयास कर रही है। हम ऐसे प्रयासों के खिलाफ आंदोलन करेंगे।

वहीं, प्रदेश कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अब्दुल मन्नान कहते हैं, "हम पर्वतीय क्षेत्र की समस्या के स्थायी राजनीतिक समाधान के पक्ष में हैं। उस इलाके को और स्वायत्तता दी जानी चाहिए। लेकिन यह राज्य की सीमा के भीतर ही होना चाहिए। इस मुद्दे पर कोई फैसला करने से पहले केंद्र को सर्वदलीय बैठक बुलाना चाहिए।”

सौ साल से भी पुरानी गोरखालैंड की मांग

दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र में गोरखालैंड की मांग सौ साल से भी ज्यादा पुरानी है। इस मुद्दे पर बीते लगभग चार दशकों के दौरान कई बार हिंसक आंदोलन हो चुके हैं। तीन साल पहले गोरखालैंड की मांग में आंदोलन के दौरान इन पहाड़ियों में बड़े पैमाने पर हुई हिंसा और आगजनी ने तमाम समीकरण को उलट-पुलट दिया है। उस दौरान 104 दिनों तक चली हड़ताल और राज्य सरकार की ओर से विभिन्न धाराओं में कई मामले दर्ज होने के बाद गिरफ्तारी के डर से मोर्चा के अध्यक्ष विमल गुरुंग भूमिगत हैं। मोर्चा के एक अन्य नेता विनय तामंग ने अब पार्टी के एक बड़े गुट की कमान संभाल ली है और वह ममता बनर्जी के साथ हैं।

अस्सी के दशक में गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएप) के प्रमुख सुभाष घीसिंग के दौर से ही पर्वतीय इलाके में चुनावी बयार जस की तस रही है। यहां सबसे ताकतवर स्थानीय दल जिसका समर्थन करता है, जीत का सेहरा उसके माथे ही बंधता रहा है। इंद्रजीत खुल्लर से लेकर सीपीएम के आरबी राई और कांग्रेस के दावा नरबुला हों या फिर बीजेपी के जसवंत सिंह, एसएस आहलुवालिया या फिर पिछली बार जीतने वाले राजू बिष्टा, तमाम लोग इसी फार्मूले से जीतते रहे हैं। बीच में सियासी फायदे के लिए खासकर बीजेपी रह-रह कर गोरखालैंड का मुद्दा उभारती रही है। अब एक बार फिर इस मुद्दे पर विवाद तेज होने का अंदेशा है।

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