बिहार: चुनावी बिसात पर महागठबंधन और एनडीए-चुनाव आयोग गठजोड़ का मुकाबला !

बिहार चुनाव इसलिए भी रोमांचक है कि चुनाव आयोग की कारगुजारियां खुलकर सामने आ चुकी हैं। ऐसे में क्या बिहार की चुनावी बिसात पर मुकाबला अब कांग्रेस-आरजेडी के गठबंधन वाले INDIA और एनडीए-चुनाव आयोग गठबंधन के बीच होगा!

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अभी से बमुश्किल एक माह के भीतर बिहार में नई विधानसभा, नई सरकार और शायद नया मुख्यमंत्री भी होगा। जब यह आलेख लिखा जा रहा था, सभी की नजरें सीटों के लिए हो रही खींचतान पर थी कि किस पार्टी को कितनी सीटें मिलीं और ‘इंडिया’ या एनडीए में से कौन-सा गठबंधन ज्यादा उलझा लग रहा है। हकीकत तो यह है कि दोनों ही गठबंधनों को कई तरह की गांठें सुलझानी हैं। 

एक बार फिर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के भविष्य को लेकर अटकलों का बाजार गर्म है। लगभग 20 साल से बिहार में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर जमे नीतीश कुमार ने इस दौरान राजनीतिक हवा का रुख भांपने की कमाल की काबिलियत दिखाई। इस बार मुद्दा उनकी खराब सेहत का है, जिस कारण उनकी अपनी पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) पर उनकी कमजोर पकड़ से जुड़ी तरह-तरह की बातें हवा में तैर रही हैं। हाल ही में नीतीश के सार्वजनिक व्यवहार को ध्यान में रखते हुए बात करें, तो यही कहा जा सकता है कि ये सिर्फ अफवाहें नहीं।

16 अक्तूबर को एक टीवी चैनल से बातचीत में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने यह तो साफ कहा कि बिहार में 6 और 11 नवंबर को दो चरणों में होने वाला चुनाव एनडीए नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही लड़ेगा, लेकिन मुख्यमंत्री कौन होगा, इस पर उन्होंने कहा कि घटक दल चुनाव के बाद फैसला करेंगे। यह दो बातों का साफ संकेत है- पहला, कि बीजेपी अपने सहयोगी और उसके सबसे बड़े ‘चेहरे’ को कैसे आंक रही है, जिसके बिना आज भी वह बिहार में चल नहीं सकती और दूसरा, बेशक चुनाव तक उस व्यक्ति के साथ रहना उसकी बाध्यता है, लेकिन बाद में शायद वह उसकी पीठ में छुरा भोंक दे। 

दो जेडीयू

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार में कितना दम-खम बचा है, कोई नहीं जानता। कुछ विश्लेषक नीतीश की सत्ता में टिके रहने की काबिलियत, मौका ताड़कर पाला बदलने की छवि और उनकी संदिग्ध वैचारिक प्रतिबद्धता के आधार पर भविष्यवाणी कर रहे हैं कि नीतीश सत्ता के शीर्ष पर बने रहेंगे। कुछ जानकार कह रहे हैं कि नीतीश की राजनीतिक पारी अंत के कगार पर है। वह इसके लिए पार्टी में फैली गड़बड़ियों और पार्टी के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष संजय झा और ललन सिंह के नाम से जाने जाने वाले केंद्रीय मंत्री राजीव रंजन सिंह की हरकतों को संकेत बता रहे हैं। ललन सिंह जुलाई 2021 से दिसंबर 2023 तक जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। उन्हें नीतीश विरोधियों के साथ हाथ मिला लेने के आरोपों में अध्यक्ष पद से हटाया गया था। ये दोनों नेता अब भी जेडीयू के साथ हैं लेकिन बीजेपी के करीबी माने जाते हैं।

इस तरह की अफवाह है कि जेडीयू टूटने वाला है और पार्टी से खफा धड़े को चुनाव के बाद बीजेपी में जगह मिल जाएगी। पार्टी में नीतीश के वफादारों को इसका अंदाजा है और उनको डर है कि ऐसा न हो कि उनके पास मोलभाव करने का कोई रास्ता न रहे। एनडीए में सीटों के बंटवारे से पता चलता है कि नीतीश के कट्टर दुश्मन लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के चिराग पासवान को ऐसी सीटें दी गई हैं जिन पर जद(यू) का भी दावा है। इसी कारण नीतीश ने बागी तेवर अपना लिए हैं और चिराग की पार्टी को दी गई 29 सीटों में से कुछ पर जेडीयू के उम्मीदवार उतार दिए हैं।


पासवान ने 2020 का विधानसभा चुनाव अकेले लड़ा था। हालांकि वह सिर्फ एक ही विधानसभा सीट जीत पाए, लेकिन माना जाता है कि उनकी पार्टी ने तब जेडीयू को अच्छा-खासा नुकसान पहुंचाया जिससे बीजेपी को गठबंधन और सरकार में तोलमोल की ज्यादा ताकत मिल गई। इस बात की मजबूत आशंकाओं को देखते हुए कि अगर एनडीए जीतता है, तो नीतीश को मुख्यमंत्री पद से हटाया जा सकता है। उनके वफादारों ने बराबर मांग की है कि नीतीश को चुनाव के पहले ही मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित किया जाए। लेकिन अब तक तो ऐसा नहीं हुआ है और आगे भी ऐसा होता नहीं दिख रहा। ऐसे में यह जानने के लिए इंतजार करना होगा कि क्या नीतीश के पास अब भी कोई तुरुप का इक्का है?

ईबीसी पर दांव 

इंडिया ब्लॉक के सामने भी सीटों के तालमेल से जुड़ी अपनी चुनौतियां हैं। लेकिन अगर आप गोदी मीडिया के कोरस को सुनेंगे, तो आपको इनका आकार जरूरत से ज्यादा बड़ा दिखेगा, क्योंकि ऐसा मीडिया इंडिया ब्लॉक के घटक दलों में मतभेद का बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहा है। उदाहरण के लिए, विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) के मुकेश सहनी ज्यादा सीटें मांगने के कारण सुर्खियों में रहे। अफवाह तो यहां तक थी कि वह बीजेपी के ‘धनकुबेरों’ से तोलमोल कर रहे थे।

कांग्रेस ने 24 सितंबर को राज्य के अति पिछड़ा समुदायों (ईबीसी) के लिए अपना 10-बिंदुओं वाला घोषणापत्र ‘अति पिछड़ा न्याय संकल्प’ जारी किया। पार्टी के लिए ईबीसी की आवाज, उनका प्रतिनिधित्व और उन्हें मजबूत करने की प्रतिबद्धता सिर्फ कहने की बात नहीं। ‘न्याय संकल्प’ उस नजरिये को जाहिर करने और नीतिगत इरादे का ऐलान है। कांग्रेस और इंडिया ब्लॉक के उसके साथी ईबीसी वोट की रणनीतिक कीमत समझते हैं। राज्य में इस समुदाय के वोटर एक तिहाई से ज्यादा हैं। 

यह समझदारी मुकेश सहनी को अपने साथ रखने की कोशिशों में साफ दिखी। हालांकि, इस आलेख को लिखे जाने तक इंडिया ब्लॉक ने सीटों पर तालमेल की कोई आधिकारिक घोषणा नहीं की थी, लेकिन साहनी ने राहुल गांधी को लिखे एक पत्र में गठबंधन के लिए अपनी प्रतिबद्धता जरूर जताई। उन्होंने साफ तौर पर लिखा कि मुद्दा यह नहीं था कि उनकी पार्टी को कितनी सीटें मिलें, बल्कि “सांप्रदायिक और विभाजनकारी ताकतों से लड़ना” था।

सीपीआई-एमएल नेता दीपांकर भट्टाचार्य ने भी सहनी को साथ रखने की कोशिशों पर जोर देते हुए कहा कि बड़ी पार्टियों को गठबंधन की एकता बनाए रखने के लिए एक-दो सीटों को छोड़ना चाहिए और उनकी पार्टी भी ऐसा करने को तैयार है। कांग्रेस ने इस रुख का समर्थन किया। कहा जा रहा है कि राहुल गांधी के दखल के बाद, आरजेडी सहनी को 15 सीटें देने पर तैयार हो गया है। कुछ अन्य रिपोर्ट्स के मुताबिक, सहनी को एक राज्यसभा सीट और दो एमएलसी देने की भी पेशकश की गई।

हिन्दी फिल्मों में कभी सेट डिजाइनर के तौर पर काम करने वाले मुकेश सहनी ने 2015 के विधानसभा चुनाव से पहले ‘निषाद विकास संघ’ बनाकर बीजेपी के लिए प्रचार किया था। लेकिन निषाद समुदाय को अनुसूचित जाति की सूची से बाहर रखने के मामले में वह बीजेपी से अलग हो गए। 2018 में उन्होंने ‘विकासशील इंसान पार्टी’ शुरू की। 


बिहार में ईबीसी के तांती-तंतवा यानी पान समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले इंजीनियर इंद्र प्रकाश गुप्ता भी इंडिया ब्लॉक में शामिल हो गए हैं। एक वीडियो बयान में गुप्ता ने कहा कि उनकी इंडियन इंक्लूसिव पार्टी (आईआईपी) को तीन सीटें दी गई हैं, जिन पर उनके उम्मीदवार पार्टी के ‘करणी’ चिह्न पर चुनाव लड़ेंगे। इसके अलावा, ‘तीन से चार’ आरजेडी/कांग्रेस के चिह्न पर चुनाव लड़ेंगे। उन्होंने खुद सहरसा सीट से अपना नामंकन दाखिल किया है। यह याद रखा जाना चाहिए कि अप्रैल 2025 में गुप्ता ने पटना के गांधी मैदान में एक बड़ी ‘पान समाज अधिकार रैली’ आयोजित करके अपनी ताकत दिखाई थी। वरिष्ठ पत्रकार अब्दुल कादिर का कहना है कि इंडिया ब्लॉक की रणनीति प्रतिनिधित्व के जरिये समावेशिता का संदेश देने की है।

बदलाव की चाह

यह चुनाव बिहार में असली बदलाव की चाहत का भी टेस्ट हो सकता है। जहां आरजेडी नेता तेजस्वी यादव हर परिवार के लिए एक सरकारी नौकरी का वादा कर रहे हैं, नीतीश कुमार चुनाव के ऐन पहले महिलाओं को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं। 29 अगस्त को महिला रोजगार योजना की घोषणा की गई और महिलाओं के बैंक खाते में सीधे 10,000 रुपये भेजना सबसे बड़ा आकर्षण है। 

दूसरी तरफ, हालांकि यह आलेख लिखते समय इंडिया ब्लॉक का घोषणापत्र जारी नहीं हुआ था, लेकिन ऐसी जानकारी आ रही है कि इसमें शहरी और ग्रामीण, दोनों इलाकों के ऐसे लोगों को जमीन देने का वादा किया गया है जिनके पास कोई जमीन नहीं है। इसके अलावा, प्रदेश की आबादी में करीब 36 फीसद की हिस्सेदारी रखने वाले ईबीसी समुदाय के लिए राज्य के निजी क्षेत्र और शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण जैसी बड़ी पहल को भी घोषणापत्र में शामिल किए जाने की बात सामने आ रही है। 

लेकिन हमें इंतजार करना होगा और यह देखना होगा कि क्या बिहार सच में बदलाव चाहता है। अगर आप 2020 के चुनाव का फैसला करने वाले 12,000 वोटों के मामूली अंतर को देखें, तो माना जा सकता है कि हां, बिहार के लोग बदलाव के लिए तैयार हैं। 

सबसे बड़ा मुद्दा

हमें यह भी देखना होगा कि चुनाव आयोग ने और कौन-कौन से बुरे सरप्राइज छिपा रखे हैं? क्या अस्पष्ट और धोखेबाजी से भरी एसआईआर प्रक्रिया चलाकर आयोग अपने राजनीतिक आकाओं को फायदा पहुंचाने के सारे दांव खेल चुका है? हमने मसौदा मतदाता सूची में शक के आधार पर नाम हटाने, उसके बाद अंतिम सूची में बिना सबूत नाम जोड़ने और आखिरकार तकरीबन 76 लाख वयस्कों को सूची से बाहर किए जाने पर काफी कुछ लिखा है। 

मतदाता सूची की ‘सघन’ पुनरीक्षण प्रक्रिया के बाद जो अंतिम सूची तैयार की गई है, उसमें तमिल, तेलुगु और कन्नड़ में रहस्यमयी एंट्री हैं, और कई पते हैशटैग और अजीब कैरेक्टर में हैं। एक ही पते पर अब भी सैकड़ों वोटर रजिस्टर्ड हैं, जबकि चुनाव आयोग की अपनी रूल बुक कहती है कि एक ही पते पर 10 से ज्यादा वोटर होने पर उन्हें संदिग्ध मानकर उनका फिजिकल वेरिफिकेशन किया जाना चाहिए। चुनाव आयोग ने रिपोर्टर्स कलेक्टिव के इस आरोप का जवाब देने की भी जहमत नहीं उठाई कि उसने बिहार की मतदाता सूची की ‘सफाई’ के लिए 2018 से उसके पास उपलब्ध डी-डुप्लीकेशन सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल क्यों नहीं किया।

यह मानने की काफी वजहें हैं कि मतदाता सूची साफ नहीं हैं। तो क्या यह सबसे बड़ा मुद्दा नहीं है?

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