किसानों को ऐसे ही नहीं खोलना पड़ा है मोर्चा, सरकार ने खुद ही अलग-अलग सुर में बयान देकर पैदा किया है शक

कोई इससे इनकार नहीं कर सकता कि किसान मुसीबत में नहीं हैं। किसानों की पीठ दीवार से जा सटी है, इसीलिए वे आगे बढ़ने को मजबूर हैं। और अब किसानों ने सरकार को जता दिया है कि बिना उनकी सहमति के उनके बारे में कोई भी फैसला नहीं ले सकती।

फोटो : Getty Images
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उनका नाम हैप्पी सिंह है लेकिन वह कहीं से खुश नहीं लग रहे थे। वह दिल्ली के कुछ रिपोर्टरों को एक किसान से बातचीत रिकॉर्ड करते देख रहे थे। उनके चेहरे पर खीज का भाव स्पष्ट दिख रहा था और बीच-बीच में असहमत होने के अंदाज में सिर को झटक रहे थे। एक रिपोर्टर ने पूछा कि जब प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि किसानों को परेशान होने की जरूरत नहीं है क्योंकि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) और मंडी व्यवस्था- दोनों बनी रहेंगी, तो क्या दिक्कत है? क्या आपको प्रधानमंत्री की बातों पर यकीन नहीं? इसके जवाब में वह किसानों की मांगों के बारे में बताने लगा। हैप्पी सिंह से नहीं रहा गया। वह बीच में ही बोल पड़ते हैं- आप पूछते हैं कि प्रधानमंत्री की बातों पर यकीन है या नहीं, मैं पूछता हूं- “पंद्रह लाख मिल गए क्या?” बात तो सौ टका सही है। देश का प्रधानमंत्री कुछ कहे और लोगों को भरोसा न हो तो कहीं-न-कहीं तो कुछ गहरे फंसा तो है।

हैप्पी सिंह एक जागरूक किसान हैं। कहते हैं कि 2011 में जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने एमएसपी को कानूनी अधिकार बनाने की मांग की थी। बाद में जब हमने रिसर्च किया तो हैप्पी सिंह की बात सही निकली। हैप्पी सिंह कहते हैं, अरुण जेटली ने रिटेल में एफडीआई का यह कहते हुए संसद में विरोध किया था कि अमेरिका से सीख लेनी चाहिए जहां बड़े कॉरपोरेट ने किसानों को समृद्ध नहीं होने दिया। फिर उन्होंने नोटबंदी के फैसले पर सवाल खड़े करते हुए बड़े ही नाराज अंदाज में उस रिपोर्टर से ही उलटा सवाल किया, “आप बताएं, हमें क्यों प्रधानमंत्री पर यकीन करना चाहिए?” उन्होंने अपने मोबाइल फोन में मोदी के वादों के तमाम वीडियो सेव कर रखे थे और एक के बाद एक उन्हें दिखाते हुए कहते हैं- हमारी आय तो दूनी नहीं हुई?

मेरे हाथ के मोबाइल की ओर इशारा करते हुए हैप्पी सिंह ने पूछा- “जियो”.. और व्यंग्य से हंस पड़े। हमें यह समझने में थोड़ा समय लग गया कि उनका मतलब जियो मोबाइल कनेक्शन से था। रिलायंस ने लान्च करते समय तो इसे मुफ्त में दिया था और अब इसकी सेवाओं के पैसे लेने लगी है। हैप्पी सिंह का मानना है कि कॉरपोरेट पर भरोसा नहीं किया जा सकता। वह कहते हैं, “उनकी जेब में नेता, पुलिस, वकील से लेकर अदालत तक हैं। आप उनसे नहीं लड़ सकते।” फिर मीडिया की बात उठाते हैं, “पत्रकार हो? पगार कितनी है? एक लाख? बोलने का एक लाख, और मेहनत करने का क्या? ”


हैप्पी सिंह गुरदासपुर से आए हैं। जीप, ट्रक और ट्रैक्टर की सवारी करते हुए 464 किलोमीटर की दूरी तय की। ज्यादातर किसान 200 से 400 किलोमीटर की दूरी तय करके हरियाणा से लगती दिल्ली की सीमाओं तक पहुंचे हैं। दिल्ली की सीमाओं पर डटे किसानों के तौर-तरीके में सटीक योजना साफ झलकती है। इसकी वजह भी है। ज्यादातर परिवारों से एक-दो लोग सेना में हैं और लगभग हर परिवार का कोई-न-कोई सदस्य विदेश में। इसका नतीजा यह हुआ कि इन किसानों को पता चल सका कि ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका में कैसे एकजुटता के साथ विरोध प्रदर्शन होते हैं। और ये किसान जिस रवानगी के साथ अंग्रेजी बोलते हैं, उससे तो दिल्ली का मीडिया दंग ही है।

इन किसानों तक पहुंचने वाला हर रिपोर्टर यह सवाल जरूर करता है कि दूसरे राज्यों के किसान कहां हैं और केवल पंजाब और हरियाणा के किसानों तक यह सिमटा हुआ क्यों है? इसमें संदेह नहीं कि हरियाणा और पंजाब के किसान इस आंदोलन में फ्रंट पर हैं और इसकी वजह यह है कि पंजाब में 95 फीसदी तो हरियाणा में 70 फीसदी धान एफसीआई खरीदता है इसलिए एमएसपी में किसी भीबदलाव का सबसे ज्यादा असर इन्हीं पर पड़ेगा। फिर भी यह कहना सही नहीं होगा कि केवल पंजाब और हरियाणा के किसान ही आंदोलन कर रहे हैं। आंदोलन तो देश भर में हो रहा है लेकिन मीडिया, खासतौर पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया उसे दिखा नहीं रहा है।

ठेके का खेल, किसानों के लिए फांस

कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को लेकर भी संदेह अकारण नहीं हैं। किसानों को कहना है कि जब ठेके का कागज तैयार होगा तो उसमें हजार तरह के नियम-कायदे होंगे जिन्हें पढ़ना-समझना वैसे ही असंभव- सा काम होगा और जाहिर है, इसका खामियाजा तो किसानों को ही उठाना पड़ेगा। किसानों के एक समूह ने कहा, “मान लीजिए हम किसी कंपनी के साथ कान्ट्रैक्ट करते हैं। अगर बारिश नहीं हुई और उपज नहीं हुई तो हम उस समझौते को पूरा करने की हालत में नहीं होंगे लेकिन अगर बंपर फसल हुई तो कंपनी सौ बहाने बनाकर तय दर पर अनाज लेने से इनकार कर सकती है कि नमी ज्यादा है, ज्यादा काला है, दाने टूटे हैं, दाने छोटे हैं।” साफ है कि सूखा हो या बाढ़, किसी भी प्रतिकूल स्थिति में हानि तो किसानों की ही होगी। साफ कहें तो उपज कम हो तो किसान फंसेगा, ज्यादा हो तो भी फंसेगा। दिक्कत की बात यह भी है कि वादाखिलाफी को लेकर किसान कंपनियों से अदालत में दो-दो हाथ तो नहीं ही कर सकता।


सब्सिडी खत्म करने की साजिश

तमाम नेता इस मामले में खुलकर अपनी बात रख रहे हैं। जब बंगाल में क्रांतिकारी ब्रिटिश शासन के खिलाफ खड़े हुए तो लोगों ने कहा कि केवल बंगाली औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ हैं। इस बारे में स्वराज इंडिया के संस्थापक योगेंद्र यादव कहते हैं, “वे लड़ तो रहे थे देश की आजादी के लिए लेकिन तब क्रांतिकारियों पर बंगाली होने का ठप्पा लगा देना आसान था। उसी तरह देश के किसानों की ओर से पंजाब के किसानों ने एतिहासिक संघर्ष छेड़ा है।” किसानों का कहना है कि अलग-अलग राज्यों में किसानों की समस्याएं अलग हैं और सबकी समस्या के लिए एक उपाय निकालने के केंद्र सरकार के नजरिये से यहां काम नहीं चलने वाला। फिर भी कुछ मामले हैं, जो हर जगह के किसानों के लिए आम हैं, जैसे- जमीन, पानी और बिजली। किसानों में यह आशंका घर कर गई है कि सरकार किसी-न-किसी बहाने हर तरह की सब्सिडी को खत्म करने का षड्यंत्र कर रही है। किसान कहते हैं, “हम तो गले तक कर्ज में डूबे हैं, हमारी उपज से लागत भी निकलना मुश्किल हो रहा है। हमारे बच्चों के पास काम नहीं। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा का निजीकरण ही हो गया है और ये हमारी पहुंच के बाहर हो गए हैं.... आखिर हम कहां जाएं?”

संदेह तो वाजिब है

किसानों के भय की वाजिब वजहें हैं। प्रधानमंत्री मोदी दावा कर रहे हैं कि नए कानूनों ने किसानों को आजाद कर दिया है और अब वे उपनी उपज को देश में कहीं भी अपनी मर्जी की कीमत पर बेच सकते हैं। लेकिन किसानों को इसकी हकीकत का अंदाजा हो गया है। वे कहते हैं कि भाजपा-शासित उत्तर प्रदेश और हरियाणा बाहर से अनाज आने नहीं दे रहे। एक अन्य भाजपा-शासित प्रदेश मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इसी हफ्ते ऐलान किया कि उनके यहां दूसरे राज्यों के अनाज को बिक्री के लिए नहीं आने दिया जाएगा। प्रधानमंत्री ‘एक देश, एक बाजार’ की बात करते हैं जबकि उन्हीं के मुख्यमंत्री अलग सुर में बोलते हैं। ऐसे में किसानों की यह शंका वाजिब ही है कि आखिर वे ऐसी सरकार की बातों पर कैसे यकीन कर सकते हैं। कृषि मंत्री कहते हैं कि बाजार समिति और मंडी व्यवस्था से छेड़छाड़ नहीं की जाएगी, फिर वे मंडी द्वारा लिए जाने वाले टैक्स और शुल्क को खत्म कर देते हैं। सोचने की बात है कि जब मंडी शुल्क नहीं लेंगी तो जिंदा कैसे रहेंगी?


उसके बाद अजीब स्थिति यह है कि मोदी सरकार के मंत्री उल्टे-सीधे बयान दे रहे हैं। कोई कहता है कि उसे भीड़ में कोई किसान नहीं दिखता तो कोई ट्रोल कहता है कि अंग्रेजी बोलने वाले युवा किसान नहीं हो सकते। हरियाणा के कृषि मंत्री जे पी दलाल कहते हैं कि पाकिस्तान-जैसी विदेशी ताकतें जो प्रधानमंत्री मोदी को देखना नहीं चाहतीं, किसानों को उकसा रही हैं। तो कर्नाटक के कृषि मंत्री बी सी पाटिल कहते हैं कि “खुदकुशी करने वाले किसान कायर हैं। एक कायर ही अपनी पत्नी और बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी नहीं उठाकर खुदकुशी कर सकता है।” जानी-मानी मोदी-भक्त कंगना रनौत ट्वीट करती हैं कि किसानों को बरगलाया जा रहा है और भीड़ में शामिल बूढ़ी औरतों को कुछ सौ रुपये के भाड़े पर लाया गया होगा।

कोई भी इससे इनकार नहीं कर सकता कि किसान मुसीबत में नहीं हैं। यहां तक कि एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि 2018 से 2019 के बीच 20 हजार से ज्यादा किसानों ने खुदकुशी की। किसानों की पीठ दीवार से जा सटी है, इसीलिए वे आगे बढ़ने को मजबूर हैं। अच्छी बात यह है कि किसानों ने सरकार को झुकने के लिए मजबूर कर दिया है। उन्होंने बता दिया है कि सरकार बिना उनकी सहमति के उनके बारे में कोई भी फैसला नहीं ले सकती।

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