झारखंड: आखिर आदिवासी बहुल सीटों पर क्यों पड़ते हैं नोटा के लिए ज्यादा वोट !

झारखंड में बहुत सी आदिवासी बहुल सीटें ऐसी हैं जहां वोटर सबसे ज्यादा नोटा पर वोट डालते हैं। क्या यह राजनीतिक दलों से विरक्ति का संकेत है? या फिर राजनीतिक दल इन इलाकों के आदिवासियों की समस्याओं को समझ ही नहीं पाएं हैं?

फोटो: सोशल मीडिया 
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ऐशलिन मैथ्यू

इस लोकसभा चुनाव में झारखंड का युद्ध तीन सीटों पर मतदान के साथ 29 अप्रैल को शुरु हो चुका है। झारखंड आज भी भूमि अधिकार कानून में बदलाव और वनाधिकार कानून को कमजोर करने जैसे मुद्दों से जूझ रहा है। इन दोनों मुद्दों पर झारखंड के आदिवासी कई साल से अपनी जमीनें कब्जाए जाने के विरोध में आंदोलन कर रहे हैं।

लेकिन, इस चुनाव में कोई भी पार्टी इन दोनों ही मुद्दों की बात करती नजर नहीं आ रही है। 2014 के चुनाव में भी किसी दल ने इन दोनों मुद्दों को नहीं उठाया था। संभवत: यही कारण है कि सुरक्षित सीटों पर मतदाता नोटा का इस्तेमाल ज्यादा करते रहे हैं।

झारखंड की 14 सीटों में से राजमहल, दुमका, सिंहभूम, खूंटी और लोहरदगा अनुसूचित जनजाति के लिए और पलामू अनुसूचित जातियों के लिए सुरक्षित हैं।

इन 6 सीटों का विश्लेषण करें तो सामने आता है कि इन सीटों पर सामान्य वर्ग की सीटों के मुकाबले नोटा वोट कहीं अधिक रहे हैं। कई जागह तो नोटा के वोट कुछ उम्मीदवारों को मिले वोटों से ज्यादा रहे हैं।

2014 के चुनाव में झारखंड की 14 सीटों पर 240 उम्मीदवार मैदान में थे, इनमें से सिर्फ 31 की ही जमानत बची थी। बाकी 209 में से 128 को नोटा से कम वोट मिले थे।

राजमहल

राजमहल में 12 उम्मीदवार थे। यह उन दो सीटों में से एक थी जहां बीजेपी जीत नहीं पाई थी। इस सीट से 2014 में झारखंड मुक्ति मोर्चा के विजय कुमार हंसदक को 3.8 लाख वोट मिले थे। लेकिन इस सीट पर 19,875 वोट नोटा के खाते में गए थे। यहां 7 उम्मीदवार ऐसे थे, जिन्हें नोटा से कम वोट मिले थे। इनमें आजसू और बीएसपी उम्मीदवार भी शामिल हैं।

इस सीट की मुख्य समस्याएं लोगों के घर उजड़ना, पीने के पानी की कमी और कुपोषण है। सालों से यही मुद्दे इस सीट पर छाए हुए हैं।


दुमका

2014 के चुनाव में दुमका सीट भी बीजेपी के खाते में नहीं आई थी। यहां से जेएमएम प्रमुख शिबू सोरन जीते थे। सोरेन को 3.35 लाख वोट मिले थे, जबकि नोटा के खाते में 18,325 वोट गए थे। यहां से मैदान में उतरे कुल 15 उम्मीदवारों में से 10 को नोटा से कम वोट मिले थे।

जेएमएम प्रमुख की सीट होने के बावजूद इस सीट पर पानी की समस्या बहुत विकराल है। इसके अलावा लोगों के घर उजड़ने का मुद्दा भी छाया हुआ है। इसी सीट पर काथीकुंड फायरिंग की घटना भी हुई थी, जब प्रदर्शनकारी कोलकाता की आरपीजी ग्रुप की सीईएसी लिमिटेड के पॉवर प्लांट के खिलाफ आंदोलन कर रहे थे।

सिंहभूम

इस सीट पर 2014 में सबसे ज्यादा नोटा वोट पड़े थे। बीजेपी के लक्ष्मण गिलुवा ने 3.03 लाख वोटों के साथ यहां से जीत हासिल की थी, लेकिन यहां नोटा के वोट भी 27,037 थे। यहां से कुल 13 उम्मीदवार थे, जिनमें से 8 को नोटा से भी कम वोट मिले थे।

इस इलाके में खारकी नदी पर बनने वाले इच्छा बांध के खिलाफ आंदोलन होते रहे हैं। इस बांध के लिए 184 गांवों के लोगों को उजाड़ा गया था। आंदोलन की अगुवाई जेएमएम नेता हेमंत सोरने ने की थी, जो बांध परियोजना को रद्द करने की मांग कर रहे हैं। इस बार जेएमएम ने अपने घोषणा पत्र में इच्छा बांध और मंडल बांध जैसी परियोजनाओं को रद्द करने का वादा किया है।


खूंटी

इस सीट पर 2014 में 23,816 नोटा वोट पड़े थे और बीजेपी के करिया मुंडा ने 2.7 लाख वोटों के साथ जीत हासिल की थी। यहां से मैदान में उतरे 15 में से 9 उम्मीदवारों के वोट नोटा से कम थे। बाबूलाल मरांडी की झारखंड विकास मोर्चा और आजसू को उम्मीदवारों को नोटा से कुछ ही ऊपर वोट हासिल हुए थे।

यहां के मुद्दों में गरीबी के अलावा पथलगढ़ी आंदोलन भी शामिल है। खूंटा को आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा की जन्म भूमि भी माना जाता है।

लोहरदगा

2014 के चुनाव में यहां से बीजेपी के सुदर्शन भगत 2.26 लाख वोटों से जीते थे और नोटा के नाम पर 16,764 वोट पड़े थे। यहां से चुनाव लड़ने वाले 10 में से 5 उम्मीदवारों के हिस्से में नोटा से कम वोट आए थे।

यहां के मुद्दों में सबसे अहम बॉक्साइट माइनिंग का मुद्दा है। इसके अलावा नेतारघाट रेंज में फायरिंग प्रैक्टिस के लिए बनी रेंज बनाने के सेना के फैसले का भी काफी विरोध है। सेना ने यहा अविभाजित बिहार में 1992 में गुमला और लातेहार की नेतरहाट पहाड़ियों पर फायरिंग रेंज बनाई थी। आदिवासियों को तभी से लगता है कि इस रेंज के कारण उन्हें बेघर कर दिया जाएगा और उन्होंने 1994 में ही इसका विरोध शुरु कर दिया था। 2004 में तत्कालीन रक्षा मंत्री ने नेतारहाट में फायरिंग रेंज बंद करने का ऐलान किया था।


पलामू

उत्तर प्रदेश और बिहार की सीमा से लगी इस सीट से बीजेपी के विष्णु दयाल ने 2014 में 4.76 लाख वोटों के साथ जीत हासिल की थी। तब भी यहां 18,287 नोटा वोट पड़े थे। यहां से कुल 14 उम्मीदवार थे, जिनमें से 8 को नोटा से कम वोट हासिल हुए थे। पलामू अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित सीट है।

इसके अलावा अनारक्षित सीटों पर भी अच्छे खासे नोटा वोट पड़े थे। इनमें से सबसे ज्यादा 15,629 जमशेदपुर में और सबसे कम 4,879 गिरिडीह में पड़े थे।

जमशेदपुर लोकसभा सीट में विधानसभा की 6 सीटें आतीं है। इनमें से घाटशिला और पोटका अनुसूचित जनजातियों और जगसलाई अनुसूचित जातियों के लिए सुरक्षित है। इसी तरह गोड्डा की 6 विधानसभा सीटों में से एक देवघर अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है।


चुनाव विश्लेषक मानते हैं कि ऐसा इसलिए है क्योंकि कोई भी राजनीतिक दल हाशिए पर पड़े झारखंड के आदिवासियों की नहीं सुनता है। एक पूर्व पत्रकार ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि, “हर कोई विकास के पीछे दौड़ रहा है। लेकिन इनके लिए कोई आवाज़ नहीं उठाता। इनके जमीनों के अधिकारों के लिए कोई आवाज़ नहीं उठाता।”

विकास अर्थशास्त्री जां देरेज़ कहते हैं कि, “अगर आप के पास अमेरिकन, जर्मन या जापानी सांसद चुनने का विकल्प हो तो आप नोटा का इस्तेमाल करना चाहेंगे। या यूं कहें कि हमें लगेगा कि यह कोई सही पसंद नहीं है और शायद सिस्टम से छेड़छाड़ है। लेकिन वोट न करने का मतलब है कि हम राजनीतिक शक्तियों के सामने समर्पण कर रहे हैं, लेकिन भले इसकी संख्या कम हो, नोटा एक बेहतर विकल्प तो है ही। शायद यहां के आदिवासी ऐसा ही सोचते हैं।”

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