वक्फ विधेयक पर जेपीसी अध्यक्ष की मनमानी: विपक्ष के असहमति नोट और प्रक्रिया खामियों का उल्लेख हटाया
राज्यसभा सांसद सैयद नसीर हुसैन का आरोप है कि वक्फ संशोधन विधेयक पर जेपीसी के अध्यक्ष ने बिल के प्रावधानों पर व्यापक चर्चा से इनकार किया, विपक्ष के असहमति नोटों को हटाया और हितधारकों के बयानों, जेपीसी की बैठक के मिनट्स और मंत्रालय के जवाबों को रोक लिया।

वक्फ विधेयक पर 31 सदस्यीय संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) ने 30 जनवरी को लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला को अपनी 914 पन्नों की रिपोर्ट सौंपी। इस रिपोर्ट के इसी सप्ताह संसद में किए जाने की संभावना है। पिछले साल अगस्त में इस विधेयक को जेपीसी के पास भेजा गया था। इस दौरान हुई जेपीसी की बैठकों के दौरान भी विपक्षी सदस्यों ने समिति के अध्यक्ष जगदंबिका पाल के आचरण पर गंभीर आपत्ति जताई थी। और, अध्यक्ष पर एनडीए के सांसदों द्वारा पेश किए गए संशोधनों को स्वीकार करने और विपक्षी सदस्यों द्वारा पेश किए गए सभी संशोधनों को खारिज करने का आरोप लगाया गया था। विपक्ष ने उन पर परंपरा और नियमों के खिलाफ जाकर जेपीसी के सदस्यों को निलंबित करने का भी आरोप लगाया गया था।
विपक्ष के कई सांसदों ने अब जेपीसी अध्यक्ष द्वारा बिना उन्हें बताए उनके द्वारा प्रस्तुत असहमति नोटों को मनमाने ढंग से संपादित करने पर आपत्ति जताई है। सोमवार को द न्यू इंडियन एक्सप्रेस ने अध्यक्ष के हवाले से कहा कि असहमति नोट बहुत लंबे थे और उनके संशोधनों को खारिज किए जाने के बाद उनका कोई महत्व नहीं रह गया। उन्होंने उन आरोपों पर कोई टिप्पणी नहीं की कि जेपीसी विधेयक के खंड-दर-खंड (क्लॉज बाय क्लॉज) पर विचार-विमर्श करने में नाकाम रही और सदस्यों से महत्वपूर्ण जानकारी छिपाई। इतना ही नहीं अध्यक्ष ने विधेयक पर कायदे से चर्चा के बजाय सदस्यों द्वारा पेश किए गए संशोधनों को बिना किसी विचार-विमर्श के मतदान के लिए रखने का फैसला किया।
कांग्रेस सांसद सैयद नसीर हुसैन ने रविवार को एक्स पर एक पोस्ट में कहा कि, "जेपीसी पहले ही एक तमाशा बन चुकी थी, लेकिन अब इसका और भी पतन हो गया है, विपक्षी सांसदों की असहमति की आवाज़ों को सेंसर किया जा रहा है! वे किस बात से इतने डरे हुए हैं? हमें चुप कराने की यह कोशिश क्यों? मैं अपने असहमति नोट के सेंसर किए गए हिस्से को जनता के पढ़ने के लिए संलग्न कर रहा हूँ। सच सामने आना चाहिए!" नसीर हुसैन ने अपनी पोस्ट में दो अन्य कांग्रेस सांसदों मोहम्मद जावेद और इमरान मसूद द्वारा जेपीसी अध्यक्ष को लिखा गया एक पत्र भी संलग्न किया।
नसीर हुसैन ने नेशनल हेराल्ड को बताया कि उन्होंने प्रस्तावित विधेयक में सभी 46 संशोधनों पर 30 पन्नों का असहमति नोट दिया था। उन्होंने बताया, "मेरा मूल रुख यह था कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, अल्पसंख्यकों को संविधान द्वारा गारंटीकृत अधिकार प्राप्त हैं। पार्टी का यह भी मानना है कि सभी धर्मों की धार्मिक संपत्तियों के शासन और प्रशासन से संबंधित कानूनों में समानता होनी चाहिए।"
गंभीर प्रक्रियागत खामियों की ओर इशारा करते हुए हुसैन ने दावा किया कि हितधारकों के बयान, जेपीसी की बैठक के मिनट्स और मंत्रालय के जवाब जैसे ज़रूरी दस्तावेज़ सदस्यों से छिपाए गए। उन्होंने कहा, "मैंने इन सभी प्रक्रियागत खामियों की ओर इशारा किया था, जिन्हें अब रिपोर्ट में हटा दिया गया है।"
नेशनल हेराल्ड के पास मौजूद जगदम्बिका पाल को लिखे पत्र में हुसैन ने विधेयक के प्रति सदस्यों द्वारा उठाए गए असहमति के बिंदुओं को खंड दर खंड (क्लॉज बाय क्लॉज) फिर से सामने रखा है। विपक्षी सदस्यों ने जिन प्रमुख खंडों पर आपत्ति जताई है, उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:
आगा खानी और बोहरा के लिए अलग-अलग वक्फ बनाना: सदस्यों का मानना है कि चूंकि बोहरा और आगा खानी दोनों ही मुस्लिम समुदाय के शिया संप्रदाय के उप-संप्रदाय हैं और वक्फ अधिनियम, 1995 में पहले से ही शिया वक्फ को स्पष्ट रूप से मान्यता दी गई है, इसलिए आगा खानी और बोहरा वक्फ के लिए अलग-अलग प्रावधान बनाने का कोई औचित्य नहीं है। व्यापक शिया संप्रदाय के भीतर विशिष्ट उप-संप्रदायों की मान्यता आगे विखंडन के लिए एक मिसाल कायम करती है क्योंकि शिया और सुन्नी संप्रदायों के भीतर कई उप-संप्रदाय हैं। यह असमान दृष्टिकोण जो चुनिंदा उप-संप्रदायों की पहचान करता है, एक भेदभावपूर्ण ढांचा बनाता है। इसलिए, यह विशेष प्रावधान अनुचित और निरर्थक है।
वक्फ संपत्ति के दानकर्ताओं को पांच साल तक इस्लाम का पालन करना चाहिए: मुसलमानों पर पांच साल की पाबंदी इस्लामी सिद्धांतों के विपरीत है, जो इस तरह के समर्पण के लिए अस्थायी योग्यता नहीं लगाते हैं जब तक कि वे इस्लाम द्वारा मान्यता प्राप्त उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं। यह शर्त वक्फ एक्ट में 2013 में किए गए संशोधन में पुष्टि की गई समावेशिता का भी खंडन करती है और विभिन्न अन्य धार्मिक बंदोबस्ती अधिनियमों के साथ असंगत है। एकमात्र अनिवार्य आवश्यकता यह है कि दानकर्ता को संपत्ति का सही मालिक होना चाहिए।
नामित अधिकारी किसी विवाद के बाद अधिनियम के लागू होने से पहले या बाद में वक्फ से संबंधित घोषित या पहचानी गई किसी भी सरकारी संपत्ति की जांच करेगा: यह ध्यान देने योग्य है कि हितधारकों द्वारा गंभीर आपत्तियों के बाद, सत्ता पक्ष के सांसदों ने कलेक्टर से नामित अधिकारी को शक्ति हस्तांतरित करने के लिए आंशिक रूप से सहमति व्यक्त की है। हालांकि, प्रस्तावित संशोधन नामित अधिकारी के लिए आवश्यक योग्यता या प्रासंगिक अनुभव जैसे महत्वपूर्ण पहलुओं को संबोधित करने में विफल रहता है, खासकर वक्फ संपत्तियों के प्रशासन के संबंध में।
वक्फ परिषद के बोर्ड में दो गैर-मुस्लिम होंगे: कई धार्मिक बंदोबस्ती कानूनों में, जैसे उत्तर प्रदेश काशी विश्वनाथ मंदिर अधिनियम, 1983 (धारा 3), तमिलनाडु हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती अधिनियम, 1959 (धारा 10), आंध्र प्रदेश धर्मार्थ और हिंदू धार्मिक संस्थान और बंदोबस्ती अधिनियम, 1987 (धारा 3 (2)), और उड़ीसा हिंदू धार्मिक बंदोबस्ती अधिनियम, 1951 (धारा 6), आदि में यह अनिवार्य है कि मुख्य कार्यकारी अधिकारी या समकक्ष भूमिकाओं जैसे प्रमुख पदों पर हिंदू धर्म को मानने वाले व्यक्तियों को ही होना चाहिए।
वक्फ बोर्ड के लिए इसी तरह के प्रावधान से इनकार करना भेदभावपूर्ण है और वक्फ संस्थाओं के धार्मिक चरित्र और स्वायत्तता को कमजोर करता है। हिंदू धार्मिक अधिनियमों के लगभग सभी स्थानों पर केवल अपने धर्म का पालन करने वाला व्यक्ति ही बोर्ड में हो सकता है, फिर यहां गैर-मुस्लिमों को शामिल करने का प्रावधान क्यों?
अविश्वास प्रस्ताव के ज़रिए अध्यक्ष को हटाने के प्रावधान को खत्म करना: अविश्वास प्रस्ताव के ज़रिए वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष को हटाने से जवाबदेही के लिए लोकतांत्रिक प्रक्रिया सुनिश्चित हुई। इस लोकतांत्रिक तत्व को हटाने का प्रस्ताव वक्फ संपत्तियों के प्रशासन में प्रतिनिधि शासन, पारदर्शिता और विश्वास को कमज़ोर करता है। इस तरह का बदलाव जवाबदेही के सिद्धांतों को नष्ट करता है, जो वक्फ बोर्डों के प्रभावी कामकाज के लिए महत्वपूर्ण हैं। यह संशोधन प्रतिगामी है और इस पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए।
नसीर हुसैन ने कहा कि जेपीसी ने वक्फ संपत्तियों के उपयोग को लेकर एक नया दृष्टिकोण देने का सुनहरा अवसर खो दिया है। उनके अनुसार जेपीसी भूमि सीलिंग और इनाम उन्मूलन अधिनियम के तहत वक्फ भूमि के पुनर्वितरण को लेकर राज्य सरकारों के सामने आने वाले संघर्ष को हल कर सकती थी, जिसमें भूमि पर कब्जा करने वालों को पंजीकरण कराना अनिवार्य था।
इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया है कि वक्फ की जमीन "सदाबहार" है, जिसका मतलब है कि एक बार घोषित होने के बाद, यह भगवान को समर्पित है और इसे न तो छोड़ा जा सकता है और बेचा जा सकता। उन्होंने कहा, "जेपीसी यह तय कर सकती थी कि राज्यों को अधिनियम या अदालत के फैसले का पालन करना चाहिए या प्रभावित पक्ष को मुआवजा देकर समझौता करना चाहिए।"
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