एक जनहित याचिका ने बेपर्दा कर दी बिहार की खस्ताहाल स्वास्थ्य व्यवस्था, म्यूनिसपैलिटी से लेकर सरकार तक आई हरकत में

शिवानी कहती हैं कि हाईकोर्ट ने जब डेटा लेना शुरू किया, प्रमाण लेने शुरू किए तो उम्मीद जगी कि इसी बहाने जनकल्याण हो रहा है। कोरोना की गति रुकेगी। सरकार ने कितना किया, यह नहीं बता सकती लेकिन मुझे ताकत मिली कि तबीयत से उछाले पत्थर ने आसमां में सुराख तो किया।

फोटो : सोशल मीडिया
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शिशिर

क्या आपने बिहार से संबंधित इस तरह के शीर्षक डेढ़-दो महीने में पढ़े हैं?

- कोरोना मरीज अस्पताल में बेड बगैर मर रहे जबकि बिस्तर खाली हैं। कैसे?

- मरीजों के लिए ऑक्सीजन मंगाइए। कितना दिया हाईकोर्ट को रोज बताइए।

- जरूरी दवाओं का स्टॉक क्यों नहीं है? रोज का अपडेट हाईकोर्ट में जमा कराएं।

- श्मशानों पर कोरोना पीड़ित मरीजों से लूट बंद कराए राज्य सरकार।

- मरीज इतने कम मरे तो गंगा में इतनी लाशें कहां से आईं?

- मृतकों के आंकड़े सरकार क्यों छिपा रही, पक्की जानकारी हाईकोर्ट को दें।

कोरोना महामारी की दूसरी लहर में बिहार की डबल इंजन सरकार पर पटना हाईकोर्ट इसी तरह जोर का हथौड़ा चलाती रही। हाईकोर्ट में रोज सरकार की किसी-न-किसी मुद्दे पर भद्द पिटती रही। जब-जब जिस बात के लिए फटकार लगी, दिखाने लायक ही सही, काम तो करना पड़ा। एक तरफ भाजपाई मंत्री मंगल पांडेय के स्वास्थ्य विभाग के तमाम अफसरों को सुधार के लिए दिन-रात काम करना पड़ा, तो दूसरी तरफ, अपने ‘सिस्टम’ को बेपर्दा होता देख मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को ‘अज्ञातवास’ में जाना पड़ा।

दरअसल, 24 साल की एक लॉ स्टूडेंट शिवानी कौशिक की हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका ने नीतीश कुमार को नाकों चने चबवा दिए। इस पर अमूमन रोज सुनवाई होती रही। अब भी हो रही है। शिवानी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गृह जिले नालंदा की मूल निवासी हैं। वह वकील नहीं हैं और न ही परिवार में कोई विधि विशेषज्ञ है। उन्होंने साइंस से 12वीं किया और इंग्लिश ऑनर्स कर रही थीं। मगध विश्वविद्यालय की कार्यशैली से रिजल्ट में देर हो रही थी, तो लॉ में एडमिशन ले लिया। पहला सेमेस्टर निकला ही था कि कोरोना कहर मचाने लगा। शुरुआत में जब कोरोना मरीज इलाज से भाग रहे थे और डॉक्टरों से उलझ रहे थे तो सरकार ने डॉक्टरों को ‘वारियर’ घोषित किया, कुछ सुविधाएं भी दीं। लड़ाई पुलिसकर्मी भी लड़ रहे थे, पत्थर खा रहे थे, पिट रहे थे, लेकिन इन्हें कुछ नहीं मिला।

शिवानी को यह कुछ अजीब लगा। इन्हें इन्सेंटिव दिलाने के लिए वह जनहित याचिका लेकर पटना हाईकोर्ट पहुंच गईं। यह चल ही रहा था कि कोरोना की गति बढ़ गई और हर तरफ कोविड-19 का मेडिकल वेस्ट जहां-तहां उड़ता नजर आने लगा। कचरा बीनने वाले बच्चों को कूड़े के ढेर से निकला मास्क और ग्लव्स पहने देखकर फिर शिवानी ने लड़ाई आगे बढ़ाई। हाईकोर्ट में यह मामला आया और सख्त निर्देश पर नगर निगम को सफाई पर ताकत लगानी पड़ी जबकि स्वास्थ्य विभाग को अपना सिस्टम सुधारने के लिए विवश होना पड़ा।


शिवानी इसे ऐसे कहती हैं, ‘मुझे यह समझ आ रहा था कि इससे गरीब तबका कोरोना संक्रमित होगा और यह घूम-घूमकर दूसरों को भी संक्रमित कर सकता है। मैं एमिटी यूनिवर्सिटी में पढ़ रही हूं। यहां के प्रो वाइस चांसलर विवेकानंद पांडेय ने मनोबल बढ़ाया कि गलत को गलत कहना भी लॉ स्टूडेंट के लिए चैलेन्जिंग होता है। मैंने बहुत सोचा और फिर इस पर एक जनहित याचिका दायर कर दी। इस पर सुनवाई में सरकार ने हाईकोर्ट को जब बताया कि कैसे उसने मेडिकल वेस्ट को लेकर संजीदा कदम उठाए तो अच्छा महसूस हुआ। कोर्ट ने डेटा लेना शुरू किया, प्रमाण लेने शुरू किए तो उम्मीद जागी कि इसी बहाने जनकल्याण हो रहा है। कोरोना की गति रुकेगी। सरकार ने कितना किया, यह नहीं बता सकती लेकिन मुझे एक ताकत मिली कि तबीयत से उछाले पत्थर ने आसमां में सुराख तो किया।’

सरकार की परेशानी बढ़ती गई

पटना हाईकोर्ट में पूरे कोरोना काल में ‘शिवानी कौशिक बनाम बिहार सरकार’ की गूंज रही। अब भी लगभग रोजाना सुनवाई हो ही रही है। हर दिन सरकार की ओर से कोई-न-कोई जवाब दाखिल हो रहा है। जैसे, अभी कोरोना से मौत के आंकड़ों पर सरकार को दिन-रात काम करना पड़ रहा है। दरअसल, मेडिकल वेस्ट पर दाखिल जनहित याचिका में ही सप्लीमेंट्री पीआईएल जुड़ते गए और यह लड़ा बढ़ती गई। कोरोना के ही मुद्दे एक-एक कर आते गए और सरकारी सिस्टम की परतें भी खुलीं और हाईकोर्ट की सख्ती के कारण सरकार काम करने को मजबूर भी हुई।

शिवानी कहती हैं- ‘मेरी लड़ाई सरकार से नहीं, सरकारी सिस्टम से थी। सप्लीमेंट्री पीआईएल के जरिये यह लड़ाई आगे बढ़ाने में पटना हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और न्यायाधीशों की पूरी बेंच ने मुझे संबल दिया। अपना केस या जनहित याचिका हो तो कोई आम आदमी कोर्ट में पैरवी कर सकता है, इस आधार पर एक महीने पहले तक मैं खुद अपना पक्ष रख रही थी। जब हाईकोर्ट ने सरकार से ऑक्सीजन, बेड, दवा, आईसीयू, वेन्टिलेटर, मौत, श्मशान आदि का एक-एक कर डेटा और प्रमाण मांगना शुरू किया और सरकार को भी यह देना पड़ा तो अपने केस के पक्षकार के रूप में मुझे यह सब संभालना मुश्किल लगने लगा। मेरे एग्जाम पेपर भी करीब आने लगे तो हाईकोर्ट ने अपनी ओर से मेरे लिए एक वकील नियुक्त कर दिया। मैं पेपर की तैयारियों के बीच ही वर्चुअल हीयरिंग में शामिल होकर नजर रखती हूं कि यह लड़ाई कहां तक पहुंची।’


डॉक्टर मानते हैं, बहुत कुछ बदला

पटना मेडिकल कॉलेज के एक प्रोफेसर कहते हैं कि ‘ऑक्सीजन की जरूरत हम बताते रहते हैं लेकिन हाईकोर्ट खुद एक्टिव रहा तो इसमें तेजी आई। इंडस्ट्रियल सप्लाई रोक मेडिकल सप्लाई देनी पड़ी। दूसरे राज्यों से मंगाई गई। उत्पादन से लेकर अस्पतालों को सप्लाई तक में सरकारी अफसरों को जिम्मेदारी दी गई। इसका फायदा साफ दिखा। हम लॉकडाउन जरूरी बताते रहे, लेकिन सरकार को इसकी जरूरत नहीं दिख रही थी। जिस दिन हाईकोर्ट ने पूछ दिया कि लॉकडाउन आप लगाएंगे कि हम देख लें, सरकार ने तत्काल घोषणा कर दी।’

इसी तरह कोरोना कहर के बीच पटना के एनएमसीएच में जब बेड खाली नहीं बताया जा रहा था, तब हाईकोर्ट ने टीम भेजकर अचानक जांच कराई तो आधे बेड खाली मिले। समाजसेवी रोहन आनंद कहते हैं कि ‘कोर्ट ने झूठ भी पकड़ा, छिपाए जा रहे सच और नहीं किए जा रहे काम को भी करने के लिए मजबूर किया। यह सब नहीं होता तो पता नहीं बिहार की हालत क्या हो जाती!’

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Published: 03 Jun 2021, 8:00 PM
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