विपक्षी एकता और अगले आम चुनाव के लिए रोडमैप साबित हो सकते हैं कर्नाटक के चुनावी नतीजे

कर्नाटक चुनाव के बाद बीजेपी विरोधी पार्टियां अगले आम चुनाव के लिए रणनीति बना रही हैं। उन्हें अंदाजा हो गया है कि बीजेपी को किस तरह चित किया जा सकता है। बीजेपी के लिए यह खतरे की घंटी तो है ही, साथ ही विपक्ष के लिए रणनीति का रोडमैप भी है।

कर्नाटक में कांग्रेस सरकार के शपथ समारोह में विपक्षी एकता की तस्वीर (फोटो सौजन्य - @INCIndia)
कर्नाटक में कांग्रेस सरकार के शपथ समारोह में विपक्षी एकता की तस्वीर (फोटो सौजन्य - @INCIndia)

कर्नाटक में विजय का मतलब कांग्रेस अब चार राज्यों की सत्ता में आ चुकी है। आम आदमी पार्टी सिर्फ दो राज्यों में सीमित है और विपक्ष का कोई भी अन्य दल एक से अधिक राज्य में सरकार में नहीं है। बीजेपी ने यूपी में मुख्यमंत्री के बारे में फैसला करने में एक हफ्ते का समय लिया था, जबकि कांग्रेस ने चुने हुए विधायकों के बीच गुप्त मतदान और विचार-विमर्श- दूसरी पार्टियों से अलग कई अवसरों पर खुली बातचीत- के बाद चार दिनों में ही मुख्यमंत्री का मुद्दा भी निबटा लिया। इन सारी बातों से पार्टी का आत्मविश्वास न सिर्फ बढ़ा है बल्कि इस साल के अंत में होने वाले मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में उतरने के पहले कुछ अतिरिक्त भरोसा भी जगा है। जाहिर है, इसने 2024 में होने वाले आम चुनावों के लिए भी एक नई तरह की ऊर्जा दे दी है। 

वैसे, बनावटी हंसी हंसते हुए लेकिन साफ तौर पर चिढ़े हुए दिख रहे चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने कांग्रेस समर्थकों से कर्नाटक में पार्टी की जीत को बढ़ा-चढ़ाकर न आंकने की सलाह दे डाली है। उनका कहना था कि न तो इसके आधार पर आने वाले चुनावों का आकलन करना चाहिए और न ही 2024 लोकसभा चुनावों में इसी किस्म के नतीजों की अपेक्षा करनी चाहिए। किशोर का कहना था कि आखिर, 2013 में भी तो कर्नाटक में कांग्रेस ने चुनाव जीता था, लेकिन अगले ही साल 2014 में उसे राज्य में 28 में से 9 सीटों पर सिमटना पड़ा था।

ठीक है कि राज्य विधानसभा चुनाव इस बात का संकेतक नहीं होते कि राष्ट्रीय स्तर पर होने वाले आम चुनावों में क्या हो सकता है, लेकिन कर्नाटक के नतीजे न सिर्फ कांग्रेस बल्कि पूरे विपक्ष के लिए अत्यधिक नैतिक प्रोत्साहन के तौर पर सामने आए हैं। इसने उस ‘अजेय’ वाली मनोवैज्ञानिक बाधा को भी बेधा है और इस बात पर आश्वस्त होने का बड़ा अवसर दिया है कि  बीजेपी और नरेंद्र मोदी को चुनाव में हराया जा सकता है, कि वे अपराजेय नहीं हैं।   


कर्नाटक और उससे पहले हिमाचल प्रदेश में बीजेपी की चुनावी हार ने बताया है कि बीजेपी आमने-सामने की लड़ाई में असुरक्षित हो जाती है। तिकोने या बहुकोणीय मुकाबले में बीजेपी वोटों के विभाजन और डाले गए वोट में से सबसे अधिक मत पाने वाले को विजेता का ताज मिलने के नियम का लाभ उठा ले जाती है। 2018 में कर्नाटक में उसे जितने- 36 प्रतिशत, मत मिले थे, इस बार भी उसे लगभग उतने ही मत मिले, लेकिन वह तीसरी पार्टी- जनता दल (सेकुलर) को कम मत मिलने की वजह से हार गई। इसने इस बात को मजबूती दी है कि व्यावहारिक तौर पर सीधी लड़ाइयों में बीजेपी के लिए जीत मुश्किल ही है।

लेकिन क्या अभी तक बिखरा हुआ कहा जाने वाला विपक्ष बीजेपी के खिलाफ संयुक्त विपक्षी उम्मीदवार देने पर सहमत हो सकेगा? बीजेपी और उसके सहयोगी 'विपक्षी एकता' की किसी भी बात को बेकार बताते हैं। बिहार में राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी के उपेन्द्र कुशवाहा 'विपक्ष में एका' के बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के प्रयास का मजाक उड़ाते हैं। इस माह के आरंभ में कुशवाहा ने कहा कि 'आप विपक्षी नेताओं को बैठक करते पाएंगे लेकिन वे अपने-अपने राज्य में लौटेंगे और एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ेंगे।'

केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह भी इस बात को लेकर लगभग उतने ही निश्चिंत नजर आते हैं। उन्होंने भी व्यंग्य किया कि '2024 में प्रधानमंत्री-पद के लिए कोई वैकेंसी नहीं है। नीतीश कुमार मुंगेरीलाल के हसीन सपने देख रहे हैं।'

इस विचार को मीडिया भी हवा देता है कि विपक्ष कभी भी एक नहीं हो सकता। विभिन्न विपक्षी नेताओं से लगभग उकता देने के तौर पर इस तरह का सवाल नियमित तौर पर पूछा जाता है कि 'क्या राहुल गांधी प्रधानमंत्री के तौर पर स्वीकार्य होंगे?' जब शरद पवार ने कहा कि राहुल गांधी को वी डी सावरकर के बारे में अपमानजनक बातें नहीं करनी चाहिए या जब बीजू जनता दल के नवीन पटनायक ने कहा कि उनकी पार्टी 2024 का चुनाव 'अकेले' लड़ेगी और किसी 'तीसरे मोर्चे' की कोई संभावना नहीं है, तो मीडिया इस नतीजे पर पहुंच गया कि विपक्षी एकता मरीचिका है।

लगभग विडंबनापूर्ण तरीके से, संसद से राहुल गांधी को अयोग्य घोषित किए जाने के बाद उन्हें 2024 में विपक्ष के 'चेहरे' के तौर पर पेश किए जाने की अटकलों पर फिलहाल विराम लग गया है। बीजेपी मोदी और राहुल गांधी या किसी अन्य विपक्षी नेता के बीच राष्ट्रपति चुनाव-जैसी स्थिति चाहेगी, लेकिन चतुर विपक्ष ने इस जाल की अनदेखी करना सीख लिया है।

राहुल गांधी ने भी दूरी बना रखी है। उन्होंने गुजरात या हिमाचल में चुनाव प्रचार नहीं किया क्योंकि उस वक्त भारत जोड़ो यात्रा चल रही थी। एक डेलिवरी ब्वॉय की मोटरसाइकिल पर बैठकर या सार्वजनिक बसों में सवार होकर कर्नाटक में उत्साहपूर्वक प्रचार करते हुए उन्होंने सुनिश्चित किया कि केंद् में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और प्रमुख क्षेत्रीय नेता ही फ्रंट पर रहें।


विपक्षी नेता इस बात पर जोर देते हैं कि 2024 में बीजेपी से मुकाबले के लिए चुनाव-पूर्व गठबंधन जरूरी नहीं है। 2004 में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) चुनाव के बाद बना था। इस चुनाव में बीजेपी की जीत का अनुमान लगाया गया था। महत्वपूर्ण यह है कि विपक्षी पार्टियां समान न्यूनतम कार्यक्रम पर सहमत हों, कि वे संविधान, संसद और संघीय संरचना पर खतरे की बात करें; कि वे खराब शासन और लोगों की चिंताओं से संबधित मुद्दों को उठाएं।

काफी सारी क्षेत्रीय पार्टियां हैं, इसलिए यह देखना आसान है कि राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन थोड़ा अव्यावहारिक और कठिन है। सैद्धांतिक तौर पर बीजेपी विरोधी राजनीतिक पार्टियां कई जगह राज्यों में भी राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी हैं और राष्ट्रीय परिदृश्य में क्षेत्रीय वास्तविकताओं के साथ तालमेल बिठाने में मुश्किल में रहती हैं।

ममता बनर्जी की अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस इसका एक उदाहरण है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने विधानसभा चुनाव में बीजेपी को हराने के लिए कर्नाटक के 'लोगों' को खास तौर पर बधाई दी। उन्होंने मीडिया से अगले दिन कहा कि उन्हें तब तक कांग्रेस से समस्या नहीं है जब तक यह राष्ट्रीय पार्टी राज्य में उन्हें अकेला छोड़ देती है। उन्होंने कहा कि 'जहां भी कांग्रेस मजबूत है, उन्हें लड़ने दीजिए। हम उन्हें समर्थन देंगे। (इसमें) कुछ भी गलत नहीं है। लेकिन उन्हें भी अन्य राजनीतिक दलों को समर्थन देना होगा.... मजबूत क्षेत्रीय पार्टियों को प्राथमिकता देनी होगी.... मैं कर्नाटक में कांग्रेस का समर्थन कर रही हूं लेकिन उसे भी बंगाल में मेरे खिलाफ नहीं लड़ना चाहिए।' यह बात दूसरी है कि उनकी पार्टी ने गोवा और त्रिपुरा में जाकर वहां चुनाव लड़ा था।

वैसे, उनकी मजबूरियां समझी जा सकती हैं। 2019 में लोकसभा में उनकी पार्टी की सदस्य संख्या घटकर 22 हो गई थी। बीजेपी ने पश्चिम बंगाल में चमत्कारिक तौर पर 40 प्रतिशत मत हासिल किए थे और राज्य की 42 में से 18 सीटें जीत ली थीं। बीजेपी ने 2021 विधानसभा चुनावों में ममता बनर्जी को सत्ता से हटाने की भरपूर कोशिश की थी लेकिन विफल रही थी। ममता का लक्ष्य 2024 में राज्य से 30-35 सीटें जीतने का है जिसके लिए उन्हें सभी या अधिकतर 42 सीटों पर उम्मीदवार उतारने होंगे। अपनी जमीन वापस पाने के लिए जूझ रहा वाम मोर्चा राज्य में तृणमूल का मुख्य प्रतिद्वंद्वी है जबकि 2021 की हार के बाद बीजेपी राज्य में खुद ही परेशानी में है।

इस साल मार्च में सागरदीही उपचुनाव में वाम मोर्चा-समर्थित कांग्रेस प्रत्याशी ने तृणमूल कांग्रेस उम्मीदवार को हराकर अनपेक्षित जीत हासिल की थी। वाम मोर्चा ममता बनर्जी पर आक्रामक है और 2024 से पहले पंचायत चुनावों में उनके प्रमुख प्रतिद्वंद्वी के तौर पर उभर रहा है। ऐसे में, वहां तीनों पार्टियों का एकसाथ आना कठिन लग रहा है। बीजेपी निश्चित तौर पर तिकोने मुकाबले में वोटों, खास तौर से अल्पसंख्यक मतों का बंटवारा चाहेगी। राज्य में अल्पसंख्यकों के करीब 30 प्रतिशत वोट हैं। अभी तो वाम मोर्चा और कांग्रेस का यहां कम असर है और दोनों को बंगाल में तालमेल बिठाने में कठिनाई नहीं होगी लेकिन केरल में उनका इस किस्म का गठबंधन असंभव है। ये विषमताएं समान एक्शन प्लान के समन्वय में कठिनाइयों को सामने लाती हैं।


लेकिन लोग बात कर रहे हैं और इस महीने के अंत में पटना में बीजेपी विरोधी अन्य पार्टियों के साथ कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल (यूनाइटेड), झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो), समाजवादी पार्टी, एनसीपी, शिव सेना (उद्धव ठाकरे), डीएमके (द्रमुक), आम आदमी पार्टी, सीपीआई, सीपीएम और सीपीआई (एमएल) के नेताओं की बैठक की उम्मीद है।

क्या विपक्ष एक साथ आएगा और विश्वसनीय चुनौती दे पाएगा? शिव सेना (उद्धव बालासाहब ठाकरे) नेता और सांसद संजय राउत कहते हैं कि 'बंटे हुए विपक्ष' का बीजेपी का भ्रम अगले आम चुनावों में टूट जाएगा। समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव भी कहते हैं कि 'नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, के चंद्रशेखर राव और विभिन्न राजनीतिक पार्टियां रास्ता तलाश करने का प्रयास कर रही हैं। जहां भी कोई पार्टी मजबूत है, उन सभी स्थानों में उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ा जाएगा।'

आरजेडी के राज्यसभा सदस्य मनोज कुमार झा याद करते हैं कि 2015 में ही बिहार ने 'ब्रैंड मोदी' और बीजेपी की अपराजेयता का मिथ तोड़ दिया था। 2020 में एनडीए में बीजेपी और जेडीयू साथ थे और उन लोगों ने आरजेडी-लेफ्ट-कांग्रेस गठबंधन की तुलना में महज 0.3 प्रतिशत अधिक मत पाए थे। अब जेडीयू-आरजेडी-लेफ्ट-कांग्रेस के साथ है और 2024 में भिन्न स्थिति होगी।

2019 आम चुनाव के बाद से राजनीतिक परिदृश्य में काफी बदलाव हो गए हैं। scroll.in के राजनीतिक संपादक शोएब दानियाल का मानना है कि भले ही राष्ट्रीय चुनावों में बीजेपी बड़ी जीत हासिल करती रही हो, कर्नाटक परिणामों के बाद राज्यों में उसकी मौजूदगी सिमट रही है। 30 विधानसभाओं (इनमें 28 प्रदेश और 2 केंद्र शासित हैं) में से अब सिर्फ 15 में बीजेपी सत्ता में है। इनमें से 7 ही प्रमुख राज्य हैं। तीन प्रदेशों- महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और गोवा में 'ऑपरेशन लोटस' की वजह से पालाबदल के कारण बीजेपी सरकारें हैं। कर्नाटक में चुनाव हारने के बाद बीजेपी सरकारों की देश की आबादी में से लगभग 45 प्रतिशत पर ही शासन है। वह कहते हैं कि अगर महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश को अलग कर दें, तो यह 30 प्रतिशत ही रह जाएगा।

बीजेपी के संघवाद पर प्रहार, राज्यों को कमजोर करने के प्रयास, राज्यों की आमदनी के हस्तांतरण में कटौती और केंद्रीय सेस में बढ़ोतरी जो केंद्र के पास ही रह जाता है और राज्यों की शक्तियों को केंद्र सरकार द्वारा हड़पने (हालांकि कृषि राज्य का विषय है, तीन कृषि कानून बनाना) के बाद गैर-बीजेपी पार्टियों के बीच एकसाथ बैठने और संघीय संरचना पर बात करने की इच्छा बढ़ती जा रही है।


मनोज झा कहते हैं कि सीबीआई और ईडी-जैसी केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाइयां पहले भी हुई हैं लेकिन पिछले नौ साल में यह जिस तरह ढिठाई से और व्यापक तौर पर हुई हैं, वैसा पहले कभी नहीं हुआ है। संसद निष्क्रिय कर दिया गया है और 'गुमनाम' चुनावी बॉन्ड तथा भ्रष्टाचार के केंद्रीकरण ने सिर्फ बीजेपी को धन देना बिजनेस हाउस एवं कॉरपोरेट के लिए आसान और फायदेमंद बना दिया है। राष्ट्रीय राजधानी और बीजेपी-शासित राज्यों में टीवी चैनलों और मुख्य धारा की मीडिया की धमकियों, परेशान करने की जुगत से बांहें मरोड़ी जाती हैं और सरकारी विज्ञापन चुनकर जारी किए जाते हैं तथा जरा भी आलोचना करने पर उन्हें बंद कर दिया जाता है।

विपक्ष इस बात को समझ गया है कि अब सभी को समान अवसर देने वाली स्थिति नहीं रह गई है, कि वे केंद्रीय एजेंसियों की रहम पर हैं। विनाश कर देने वाली सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद की चाशनी में पगे हुए हिन्दूवाद ने राजनीति को विषैला बना दिया है। विपक्ष के नेताओं के बीच यह आवाज बराबर उठती है कि 'जब प्रधानमंत्री राष्ट्रवाद, सेना और शहीदों के नाम पर वोट मांगते हैं, तब क्या विपक्ष महंगाई और बेरोजगारी पर बोलने का खतरा उठा सकता है.... कौन सुनने जा रहा है?'

वे कहते हैं कि 2024 का आम चुनाव किसी अन्य की तरह नहीं होगा। यह सिर्फ सरकार चुनने का प्रयास नहीं होगा बल्कि यह अगले कई दशकों में देश की दशा-दिशा निश्चित करने के लिए होगा। यह तय करेगा कि क्या भारत धर्मशासित बन जाएगा या यहां लिबरल लोकतंत्र बना रहेगा। मनोज झा कहते हैं कि विपक्षी नेता इस बात को जानते हैं कि वे एक ही नाव में सवार हैं, कि वे सहयात्री हैं।

विपक्षी नेता कहते हैं कि पहले हिमाचल और अब कर्नाटक में बीजेपी की लगातार दो हार इसलिए आशा जगाने वाली है। इन दो राज्यों में मतदाताओं ने दिखाया कि सुशासन, रोटी-रोजगार के मुद्दे, भ्रष्टाचार और कल्याणकारी कदम धर्म से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। वोटर यह बात समझने लगे हैं कि अनवरत और ऊंची आवाज में किया जाने वाला सांप्रदायिक वाक्चातुर्य उनकी बेहतरी सुनिश्चित नहीं करने जा रहा है।

विपक्ष को इस बात के बढ़ते प्रमाण भी मिल रहे हैं कि नरेंद्र मोदी अपने दम पर बीजेपी की जीत सुनिश्चित नहीं कर सकते। कर्नाटक में बीजेपी ने प्रधानमंत्री के लिए वोट मांगे। बीजेपी अध्यक्ष जे पी नड्डा ने यह तक कहा कि अगर लोग बीजेपी को वोट नहीं करते हैं, तो वे प्रधानमंत्री के 'आशीर्वाद' से वंचित रह जाएंगे। विश्लेषण के रूप में चापलूसी करने वाले ओपीनियन आलेखों में प्रधानमंत्री की रैलियों में भारी भीड़ और ’ब्रैंड मोदी' के जादू की बातें कही गईं। उनमें कहा गया कि प्रधानमंत्री के अभियान ने हवा का रुख बदल दिया है और इस वजह से बीजेपी रणनीतिकारों को यकीन है कि कर्नाटक में बीजेपी चुनाव में 110 सीटों को पार कर जाएगी। ऐसा चुनाव के चार दिन पहले भी कहा जा रहा था!


प्रधानमंत्री ने खुद भी विक्टिम कार्ड खेला और लगभग रिरियाए कि कांग्रेस नेताओं ने उन्हें 91 बार अपमानित किया है। आश्चर्यचकित विपक्षी नेताओं ने कहा कि क्या प्रधानमंत्री को इस बात की याद दिलाई जा सकती है कि उन्होंने कितनी बार विपक्षी नेताओं का अपमान किया है।

चुनाव आयोग ने प्रधानमंत्री के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। वह चुनावों में अपने दुखदायी स्तर से भी नीचे चले गए जब उन्होंने सभाओं में लोगों से बजरंग बली की जय के नारे लगवाए और कहा कि बजरंग बली के नाम पर बीजेपी को वोट दें। यह जन प्रतिनिधित्व कानून, चुनाव आचार संहिता और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का खुला उल्लंघन था।

लेकिन यह सब भी काम न आया। प्रधानमंत्री ने कर्नाटक में 16 चुनाव क्षेत्रों में रैलियों को संबोधित किया, भाजपा को उनमें से सिर्फ दो में जीत मिली।

(सुजाता आनंदन, ऐशलीन मैथ्यू, सैयद खुर्रम और राम शिरोमणि शुक्ल के इनपुट के साथ)

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