हजारों किमी पैदल चलकर घर लौट रहे मजदूरों का छलका दर्द- सरकार सिर्फ अमीरों की मदद कर रही है

उत्तराखंड के हरिद्वार में भूखे-प्यासे फंसे कई मजदूर और छात्र पैदल ही हजारों किमी दूर अपने घरों के लिए निकल पड़े हैं। भीषण गर्मी और पैरों में छालों के दर्द से बेहाल इन लोगों का कहना है कि मदद के नाम पर पुलिस ने उन्हें ट्रक में बिठाकर जंगल मे छोड़ दिया है।

फोटोः आस मोहम्मद कैफ
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आस मोहम्मद कैफ

उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जनपद के गंगनहर पटरी खतौली के पास प्रवासी मजदूरों और छात्रों की कुछ टोलियां बैठी सुस्ता रही हैं। इन सबके चेहरे पर थकन और माथे पर अनिश्चितता की लकीर साफ दिखाई देती है। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर बैठे ये सभी लोग अलग-अलग समूहों में उत्तराखंड के हरिद्वार से यहां पहुंचे हैं। ये सभी पैदल ही अपने घरों के लिए निकल पड़े हैं। हालांकि, ये कहने जितना आसान नहीं है। इनसे बात करने पर इनके मन की पीड़ा बाहर निकल आती है, जो आपको भावुक कर देती है।

इनमें से एक नंदन कुमार (29 साल) बात करते समय फूट-फुट कर रोने लगते हैं। वो प्रदेश के मऊ जिले के रहने वाले हैं और वहां से से करीब 1400 किमी दूर उत्तराखंड के हरिद्वार में दस हजार रुपये महीने की तनख्वाह पर नौकरी कर रहे थे। वो सिर्फ बारहवीं तक पढ़े-लिखे हैं। लॉकडाउन के शुरुआत में ही उनकी कंपनी बंद हो गई तो नौकरी ही खत्म हो गई। धीरे-धीरे कर के सारे जमा पैसे भी खत्म हो गए और एक टाइम के खाने पर भी आफत आ गई। तब उन्होंने पैदल ही घर लौटने का फैसला किया। लेकिन देश के मजदूरों के लिए अब अपने घर जाना इतना भी आसान नहीं।

नंदन यह बताते हुए बुरी तरह रोने लगते हैं कि वो एक घाट के पास गए थे, वहां से पानी दिख रहा था, लेकिन वहां मौजूद पुलिसकर्मियों ने उन्हें ट्रक में बिठाकर जंगल मे छुड़वा दिया। नंदन कहते हैं कि “सबको जबरदस्ती जंगल में छोड़ दिया। हम 4 किमी चलते हैं और पुलिस हमारे साथ खेल कर देती है। वो हमें वापस भेज देती है। अब हम सीधे रास्ते से नहीं जा रहे हैं, लेकिन ऐसे में कई बार भटक जाते हैं। पता नहीं घर पहुचेंगे भी या नहीं।” नंदन कहते हैं कि पैसे वाले लोग अपनी गाड़ियों से आ-जा रहे हैं और गरीब पैदल चल रहे हैं।

फोटोः आस मोहम्मद कैफ
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अब रात के आठ बजे रहे हैं। छोटी गंगनहर पटरी पर हरिद्वार से 150 किमी और दिल्ली से 140 किमी के मध्य में दर्जनों मजदूर बैठे हुए हैं। एक समूह हरिद्वार के एक स्किल डेवलपमेंट संस्थान में पढ़ाई कर रहे करीब 11 युवकों का है। दूसरा समूह हरिद्वार की एक फैक्ट्री में काम कर रहे कामगारों का है। इसमें 14 लोग हैं। इनसे बातचीत के दौरान एक तीसरा समूह साइकिल से आ जाता है। ये करीब 20 लोग हैं। पहले दो समूह हरिद्वार से आए हैं, जबकि तीसरा साइकिल वाला दल पंजाब से आया है। नंदन कुमार को मऊ जाना है और वो इन्ही में से एक है।

तीन दिन चलकर 250 किमी की दूरी तय करने वाले हरिद्वार में स्किल डेवलपमेंट सीखने गए इस दल के सबसे कम उम्र के सदस्य श्रवण कुमार पांव के छाले दिखाते हुए बताते हैं कि “जिसे दया आती है, वो खाने के लिए के लिए दे देता है। सड़क से नही जा सकते, इसलिए नहर के किनारे-किनारे चल रहे हैं।”

कन्नौज जा रहे श्रवण कुमार भी केंद्र सरकार की बहुप्रचारित योजना स्किल डेवलपमेंट इंडिया के अंतर्गत अपनी प्रतिभा को निखारने हरिद्वार पहुंचे थे। उत्तराखंड में कोर्स करने के बाद इनको निश्चित नौकरी मिलने का वादा किया गया था। यही कारण लगता है कि दर्जन भर युवक कन्नौज और मैनपुरी जैसी जगह से वहां पढ़ाई करने गए थे। 18 साल के श्रवण बताते हैं कि “वो परिवार में सबसे बड़े हैं। उनसे बात करके माता-पिता रोने लगते हैं। अब फोन भी चार्ज नहीं है। ऐसी जिंदगी के बारे में सोचा नहीं था कभी।”

हजारों किमी पैदल चलकर घर लौट रहे मजदूरों का छलका दर्द- सरकार सिर्फ अमीरों की मदद कर रही है

इसी तरह फर्रुखाबाद के बाद अनूप कुमार (20) हरिद्वार अपने हुनर का विकास करने पहुंचे थे।अनूप बताते हैं कि उनके दोस्त पहले से वहां थे, इसलिए वो भी चले गए। वो पहुंचे ही थे कि लॉकडाऊन लग गया। जब तक पैसा था, वे सब खाना खाते रहे। उसके बाद एक पूर्व प्रधान ने एक टाइम का खाना देना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे वो भी थकने लगे, तो हमें भी लगा कि बोझ नहीं बनना चाहिए। हमनें वहां से लौटने का इरादा किया और हम पैदल ही चल दिए।

कोटा के छात्रों और हरिद्वार के स्किल डेवलपमेंट सेंटर के इन बच्चों में वही फर्क है जो हिंदी और अंग्रेजी में होता है। आकाश राजपूत बताते हैं जब उन्होंने खबर सुनी कि कोटा के छात्रों के लिए बसें भेजी गई हैं, तो उनकी उम्मीदें बढ़ गईं। सरकार ने भी कहा कि वो अब फंसे हुए लोगों को उनके घर पहुंचा रही है। हम लोग हरिद्वार में एक अधिकारी के पास गए और अपनी हालत बताई तो उन्होंने आवेदन करने के लिए कहा।

आकाश के अनुसार, “इसके बाद हमें बताया गया कि आपको भेजवाने के लिए हमारे पास फिलहाल कोई सुविधा नहीं है। आपको 15 दिन इंतेजार करना पड़ेगा। अब 15 दिन बहुत भारी थे। मुश्किल से एक टाइम खाना खा रहे थे सब। बहुत ज्यादा कहने पर अधिकारी ने कहा कि अब वह कुछ नहीं कर सकते। उन्होंने कहा कि मैंने आपकी समस्या 'ऊपर' बता दी है। कम से कम 15 दिन तो लगेंगे। आप जो करना चाहे कर सकते हैं। इसके बाद हमने तय किया हम पैदल ही चलेंगे। 11 छात्रों के इस दल में कन्नौज, मैनपुरी और फर्रुखाबाद के युवक हैं।

हजारों किमी पैदल चलकर घर लौट रहे मजदूरों का छलका दर्द- सरकार सिर्फ अमीरों की मदद कर रही है

गंगनहर की पटरी के दूसरी तरफ एक और समूह बैठा है। उनके चेहरे थोड़ा अधिक परेशान दिखते हैं। यह बात हमें थोड़ा सा चकित करती है। नजदीक जाकर बात समझ में आती है। ये सभी पढ़े- लिखे मजदूर हैं। इनकी कंपनी बंद हो गई, तो नौकरी खत्म हो गई। 14 लोगों का यह दल भी हरिद्वार से ही आ रहा है और इन्हें प्रयागराज, मऊ और वाराणसी जाना है। एक और तकलीफ़ की वजह यह है कि तीनों ही जगह यहां से अभी एक हजार किमी से भी ज्यादा दूर है।

इनमें से प्रयागराज जा रहे 24 वर्षीय कृष्ण कुमार बताते हैं कि वो शिवम ऑटोटेल्क लिमिटेड में सीएलसी मशीन चलाते थे। कंपनी बंद हो चुकी है। कोई तनख्वाह नहीं दी जा रही है। वहां के प्रशासन ने हमारी कोई मदद नहीं की। कष्ट यह है कि मालिकों के द्वारा हमसे किराया भी मांगा गया, इसलिए मजबूर होकर हम पैदल ही निकल गए।

कृष्ण और उनके साथी अब तक 250 किमी चल चुके और उन्हें अभी 700 किमी और जाना है। वो एक हैरतंगेज बात बताते हुए कहते हैं, “मदद के नाम पर उन्हें ट्रक में बैठाकर जंगल मे छोड़ दिया गया। सरकार अमीरों की मदद कर रही है। पता नहीं वो क्यों ऐसा कर रही है! अब तक खाना भी गांव के लोग ही पहुंचाते हैं। अभी भी कुछ लोग कह कर गए हैं कि वो खाना लेकर आ रहे हैं। हम उनका इंतेजार कर रहे हैं। आज सिर्फ बिस्कुट खाएं है और पानी पिया है।”

तभी इसी दौरान एक तीसरा समूह यहां साइकिल से आ पहुंचता है। ये हरियाणा और पंजाब से आए कामगार लोग हैं। फैक्ट्री में मजदूरी करते थे। इनमें से 39 वर्षीय ननकू को बहराइच जाना है। 400 किमी वो चल चुके हैं। अभी 600 किमी और जाना है। उनके साथी जिलेदार (36) रास्ता नहीं समझ पा रहे। इस दल में कोई भी अच्छा पढ़ा-लिखा नहीं है। इनमें किसी को रास्तों की जानकारी नहीं है। इनका सकारात्मक पहलू यह है कि इनके पास साइकिल है। जिलेदार बताते हैं, “साइकिल होने का तभी लाभ है जब उसे सड़क पर चलाने दिया जाए और वहां तो पुलिस हमें जाने ही नहीं देती। जंगल के न हम रास्ते जानते हैं और न जंगल में साइकिल से चलाना आसान है। वो कहते हैं, “बीमारी से पहले तो एक युद्ध हम खुद से लड़ रहे हैं।”

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Published: 09 May 2020, 5:02 PM