ललन भले मजाक बन गए, लेकिन उनके सवालों ने बिहार की उच्च शिक्षा को दिखा दिया आईना

डॉ. ललन को ऐसे पेश किया जा रहा है जिसने कॉलेज से तबादले के लिए यह सब किया। लेकिन उनकी इस बात पर कोई बात नहीं कर रहा कि जबसे नियुक्ति हुई है, कॉलेज मे पढ़ाई का माहौल नहीं देखा। 1,100 विद्यार्थथियों का हिन्दी में एडमीशन तो है लेकिन उपस्थिति लगभग शून्य है।

फोटोः सोशल मीडिया
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नवजीवन डेस्क

बिहार में मुजफ्फरपुर के नीतीश्वर कॉलेज मे हिन्दी के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. ललन कुमार के कथित झूठ का आप चाहे जितना मजाक उड़ा लें, इस प्रकरण ने बिहार मे नीतीश कुमार सरकार की शिक्षा व्यवस्था की कुछ मूलभूत समस्याओं की ओर तो ध्यान खींचा ही है। ललन कुमार ने 2 साल 9 महीने की सैलरी, यानी 23 लाख रुपये का चेक इस आधार पर बीआरए बिहार विश्वविद्यालय के कुलसचिव को लौटा दिया कि इस दौरान उन्होंने एक भी स्टूडेंट को नहीं पढ़ाया इसलिए वह इसे लौटा रहे हैं। अब डॉ. ललन को ऐसे व्यक्ति के तौर पर पेश किया जा रहा है जिन्होंने इस कॉलेज से अपने तबादले के लिए यह सबकुछ किया। लेकिन उनके आवेदन की इस बात पर कोई बात नहीं कर रहा कि ‘जबसे नियुक्ति हुई है, कॉलेज मे पढ़ाई का माहौल नहीं देखा। 1,100 विद्यार्थथियों का हिन्दी में एडमीशन तो है लेकिन उपस्थिति लगभग शून्य है।’

दरअसल, बिहार के ज्यादातर कॉलेजों का हाल यही है। यहां विद्यार्थी एडमिशन तो ले लेते हैं लेकिन क्लास करने नहीं आते। लेकिन ये सवाल न पूछिए, तो बेहतर कि जब उनकी उपस्थिति 50 फीसदी भी नहीं पूरी होती है तो फिर उनको परीक्षा फॉर्म भरने कैसे दे दिया जाता है; जिन विषयों मे एक भी स्टटूडेट नहीं हैं, वहां प्रोफेसर को वेतन किस काम के लिए दिया जा रहा है या यह कि इन बातों को जमीन पर जाकर मॉनिटर करने वाला बिहार में कोई है भी या नहीं?


इन सवालों के जवाब तलाशते हुए कुछ बातें देखनी चाहिए। करीब एक माह पहले शिक्षा मंत्री विजय कुमार चौधरी कुलाधिपति फागू चौहान से मिले और उन्होंने विभिन्न विश्वविद्यालयों के शैक्षणिक सत्र के विलंब से चलने की स्थिति के बारे में जानकारी दी। उन्होंने राज्यपाल को जो पत्र सौंपा, उसमें भी बताया कि कोरोना महामारी के कारण विश्वविद्यालय लगातार बंद रहे, पर अब स्थिति सामान्य हो गई है। पिछले साल 9 सितंबर को राज्यपाल की अध्यक्षता मे हुई बैठक में भी परीक्षाएं नियमित करने के लिए विशेष पहल करने की बात हुई थी लेकिन हुआ कुछ नहीं। कई परीक्षाएं अभी तक नहीं होने से छात्रों का भविष्य अधर में लटका हुआ है।

भागलपुर विश्वविद्यालय में हिंदी पीजी के हेड डॉ. योगेन्द्र सोशल एक्टटिविस्ट भी हैं। वह कहते हैं कि कॉलेजों में पढ़ाई की वास्तविक हालत किसी से छिपी नहीं है। वह बताते हैं कि उनके यहां हिंदी पीजी में दो शिक्षक हैं और आठ क्लास लेना है। हम ले रहे हैं। लेकिन कई बार कुलपति को इस बारे में लिख चुके हैं। भागलपुर यूनिवर्सिटी के कुछ कॉलेजों मे तो ऑनर्स की पढ़ाई हो रही है, परीक्षा और रिजल्ट भी आ रहा है, पर उस विषय में शिक्षक ही नहीं हैं। भागलपुर यूनिवर्सिटी मे तो कुलपति ही नहीं आ रहे हैं।

एकेडमिक सत्र देर से चलने को लेकर राज्य में कमोबेश सभी विश्वविद्यालयों का एक जैसा हाल है। हाल यह है कि पटना विश्वविद्यालय तक में एकेडमिक सत्र विलंब से चल रहा है। यहां छात्रों की संख्या लगभग 22 हजार है। शिक्षकों के स्वीकृत पद 810 हैं लेकिन स्थायी शिक्षक यहां 300 ही हैं। कर्मचारियों के स्वीकृत पद 1,450 हैं लेकिन कर्मचारी यहां 645 ही हैं।


शिक्षाविद प्रो. नवल चौधरी तो कहते हैं कि दरअसल, पिछले लगभग 30 सालों से राज्य सरकार की प्राथमिकता में शिक्षा है ही नहीं। ज्यादातर कॉलेजों मे क्लासेज नहीं होते हैं, सिर्फ परीक्षाएं ली जाती हैं और वह भी शुद्ध नहीं। इससे युवाओं के अंदर क्वालिटी एजुकेशन खत्म हो गई है। सभी विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की खासी कमी है। जो शिक्षक हैं, उनकी क्वालिटी भी खराब है। जाति-धर्म के आधार पर बहाली होगी तो क्या होगा? उस पर भी एक कुलपति के हवाले चार-चार विश्वविद्यालय कर दिए जाएं, तो कैसे चलेंगे विश्वविद्यालय?

बिहार मे 17 में से 6 यूनिवर्सिटी में कुलपति नहीं हैं। इनके प्रभार उन कुलपतियों के पास हैं जो किसी अन्य यूनिवर्सिटी में कुलपति हैं। जहां के प्रभार इनके पास हैं, वहां वे बड़े फैसले नहीं ले पाते और इन्हें वित्तीय अधिकार नहीं होते। सच यह भी है कि विश्वविद्यालयों के सिलेबस समय के हिसाब से पुराने पड़ गए हैं। उसकी पढ़ाई कर नौकरी की संभावनाएं कम हैं। छात्र-छात्राओं ने भी समझ लिया है कि कॉलेज जाकर पढ़ाई की जरूरत ही क्या है। घर पर ही नोट्स से पढ़ाई हो सकती है। वे अपने समय का बेहतर इस्तेमाल किसी तरह की वैसी डिग्री लेने में लगाने लगे हैं जहां जल्दी नौकरी की संभावना है। आप कभी रेलवे में नौकरी या अग्निवीर योजना पर बिहार के छात्रों मे जो गुस्सा देखते हैं, उसकी असल जड़ यहां है। जो हाल है, उसमें उन्हें पता है कि पढ़ने-लिखने से कुछ हासिल नहीं होगा इसलिए सिर्फ किसी भी किस्म की नौकरी उनकी प्राथमिकता है।

(नवजीवन के लिए शिव कुमार गुप्ता की रिपोर्ट)

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