भूमि का तेजी से हो रहा है विनाश 

पिछले 300 वर्षों के दौरान 87 प्रतिशत से अधिक दलदली भूमि को नष्ट किया जा चुका है, इसमें से 54 प्रतिशत का नाश तो पिछले 100 वर्षों के दौरान ही हुआ है।

फोटो: महेन्द्र पांडे
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महेन्द्र पांडे

‘इंटरगवर्नमेंटल साइंस पालिसी प्लेटफार्म ऑन बायोडायवर्सिटी एंड इकोसिस्टम सर्विसेज’ की एक नयी रिपोर्ट के अनुसार मानवीय गतिविधियों के कारण भूमि की बर्बादी से विश्व की 40 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या, लगभग 3.2 अरब लोग प्रभावित हो रही हैं। अधिकांश प्रजातियां विलुप्तिकरण की तरफ बढ़ रही हैं और जलवायु परिवर्तन में तेजी आ रही है। यह संस्था 129 देशों का समूह है और संयुक्त राष्ट्र की 4 संस्थाएं - यूनेस्को, यूनेप, एफएओ और यूएनडीपी इसके पार्टनर हैं। इस रिपोर्ट को 45 देशों के 100 विशेषज्ञों ने तैयार किया है। रिपोर्ट के अनुसार, भूमि का विकृतीकरण वर्तमान में मानव विस्थापन का सबसे बड़ा कारण है और इस कारण संघर्ष और युद्ध हो रहे हैं।

वर्तमान में लगभग 25 प्रतिशत भूमि ऐसी है जहां सघन मानवीय गतिविधियां नहीं हैं, पर वर्ष 2050 तक केवल 10 प्रतिशत भूमि ही ऐसी रह जायेगी। अभी पृथ्वी के एक-तिहाई से अधिक क्षेत्र में कृषि की जा रही है। वर्ष 2014 तक 1.5 अरब हेक्टेयर प्राकृतिक संपदा वाले क्षेत्र को खेती करने लायक क्षेत्र में बदल दिया गया। यह सब इतने बड़े पैमाने पर हो रहा है कि वैज्ञानिकों के अनुसार अधिकतर प्रजातियों का विलुप्तिकरण हो जाएगा। पिछले 300 वर्षों के दौरान 87 प्रतिशत से अधिक दलदली भूमि को नष्ट किया जा चुका है, इसमें से 54 प्रतिशत का नाश तो पिछले 100 वर्षों के दौरान ही हुआ है। भूमि विकृतीकरण का यही हाल रहा तो अनुमान है कि वर्ष 2050 तक 5 से 70 करोड़ के बीच आबादी विस्थापित होगी और फिर खानाबदोश का जीवन व्यतीत करेगी। विश्व की लगभग 75 प्रतिशत भूमि मरूभूमिकरण, प्रदूषण, खेती के काम में आने और जंगलों के कटने से प्रभावित है, वर्ष 2050 तक 95 प्रतिशत भूमि इन प्रभावों की चपेट में होगी।

फोटो: महेन्द्र पांडे
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विश्व स्तर पर भूमि के विकृतीकरण और मरूभूमिकरण के कारण प्रतिवर्ष 120 लाख हेक्टेयर भूमि का नाश होता है और एक अरब व्यक्ति, विशेष तौर पर सबसे गरीब, भूमि उत्पादकता में गिरावट से प्रभावित हो रहे हैं। मरूभूमिकरण का एक प्रभाव धूल और रेत भरी आंधी है जिससे करोड़ों व्यक्ति प्रभावित हो रहे हैं। सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्र उत्तरी अफ्रीका और पश्चिम एशिया हैं। भूमि और पारिस्थितिकी तंत्र का विनाश, भू-अपरदन, सूखा, भूमि और जल संसाधनों का अवैज्ञानिक उपयोग, शहरीकरण और जलवायु परिवर्तन के कारण धूल भरी आंधी की संभावनाएं बढ़ती हैं। मवेशियों के लिए चारागाह का अत्यधिक उपयोग भी इसे बढ़ाता है। धूल भरी आंधी से वायु प्रदूषण बढ़ता है जिससे 65 लाख व्यक्ति प्रति वर्ष मरते हैं। भूमि की उत्पादकता गिरने से लोग पलायन कर रहे हैं। वर्तमान में 50 करोड़ हेक्टेयर भूमि, जो चीन के कुल क्षेत्र का लगभग आधा है, पूरी तरह से वीरान है। इसका कारण सूखा, मरूभूमिकरण और भूमि का कुप्रबंधन है। अनुमान है कि अगले दशक तक पूरे विश्व में 14 करोड़ व्यक्ति अपना घर-बार छोड़ कर विस्थापित हो जायेंगे।

भूमि विकृतीकरण का हमारे देश में व्यापक प्रभाव पड़ रहा है। भारत सरकार के स्पेस एप्लीकेशन सेंटर द्वारा वर्ष 2016 में प्रकाशित “डेजर्टीफिकेशन एंड लैंड डिग्रेडेशंन एटलस ऑफ इंडिया” के अनुसार देश में भूमि विकृतीकरण और मरुभूमिकरण का क्षेत्र तेजी से बढ़ रहा है। वर्ष 2011 से 2013 के दौरान 9.64 करोड़ हेक्टेयर भूमि यानी देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 29.32 प्रतिशत, विकृतीकरण के रास्ते पर है, जबकि 2003 से 2005 के बीच देश की 28.76 प्रतिशत यानी 9.453 करोड़ हेक्टेयर भूमि बेकार हो रही थी।

फोटो: महेन्द्र पांडे
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वर्ष 2011-2013 के दौरान 8.264 करोड़ हेक्टेयर भूमि रेगिस्तान बनने की कगार पर थी, जबकि 2003-2005 के दौरान 8.148 करोड़ हेक्टेयर भूमि पर यह असर था। भूमि विकृतीकरण वाले क्षेत्रों में से 24 प्रतिशत क्षेत्र राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, जम्मू और कश्मीर, कर्नाटक, झारखण्ड, ओडिशा, मध्य प्रदेश और तेलंगाना में स्थित हैं। झारखण्ड, राजस्थान, दिल्ली, गुजरात और गोवा के 80 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र में भूमि का विकृतीकरण हो रहा है। दूसरी तरफ केरल, असम, मिजोरम, हरियाणा, बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब और अरुणाचल प्रदेश के 10 प्रतिशत से भी कम क्षेत्र में यह समस्या है।

भूमि उपयोग नीति 2013 के अनुसार भूमि का तात्पर्य पृथ्वी से जुड़ी तमाम स्थाई वस्तुएं और इनसे होने वाले फायदे हैं। जीवन तंत्र के लिए भूमि सबसे आवश्यक है, मृदा और पानी के कारण सबसे मूल्यवान प्राकृतिक संसाधन है और जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों के कारण यह ऐसा पारिस्थितिकी तंत्र है जिस पर मनुष्य की सारी गतिविधियां आधारित हैं। देश के विकास के साथ ही सामाजिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय कारणों के लिए भी भूमि की आवश्यकता है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान भूमि पर विभिन्न कारणों से अतिरिक्त बोझ पड़ा है, जिससे सतत विकास प्रभावित हो रहा है। भारत के संविधान के अनुसार भूमि का उपयोग, प्रबंधन और विकास राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है।

वर्ष 2030 तक हमारा देश सबसे अधिक जनसंख्या वाला होगा, तब भूमि की प्रतिव्यक्ति उपलब्धता और भी कम हो जायेगी। जलवायु परिवर्तन के कारण बाढ़ और सूखे की आवृत्ति बढ़ रही है और भूमि उपयोग बदलता जा रहा है। भूमि उपयोग परिवर्तन से वन क्षेत्र के कृषि या औद्योगिक क्षेत्र में बदलने के कारण जलवायु परिवर्तन सबसे प्रभावी कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन बढ़ रहा है। शहरीकरण, औद्योगिकीकरण और कृषि में रसायनों के बढ़ते उपयोग के कारण भूमि पर प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। जहरीले कचरे के भंडारण और परिवहन, जहरीले गैसों के उत्सर्जन, मलजल के उत्सर्जन, जल संसाधनों के प्रदूषण भी भूमि को प्रभावित कर रहे हैं। भूमि पर बढ़ते खतरे से जैव-विविधता प्रभावित हो रही है।

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