अर्थव्यवस्था: बालाकोट धमाकों में छिपे झूठ की परतें उधड़ कर कड़वा सच आ गया है सामने

आर्थिक बदहाली पर बालाकोट एयरस्ट्राइक के धमाकों पर झूठ की परतें चढ़ाकर बीजेपी ने 2019 का चुनाव तो जीत लिया, लेकिन सच अब सामने आ चुका है और महाराष्ट्र-हरियाणा के नतीजों ने दिखा दिया है आइना।

 फोटो : सोशल मीडिया
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राहुल पांडे

इस साल जनवरी के आखिर में कुछ मीडिया में खबरें आईं कि देश में बेरोजगारी की दर 45 साल के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई है। सरकार ने इसका जोर-शोर से खंडन किया, लेकिन लोकसभा चुनाव खत्म होते ही माना कि यह आंकड़ा दुरुस्त था। अब इसी सप्ताह आए उपभोक्ता खर्च के आंकड़े बता रहे हैं कि लोग खर्च नहीं कर रहे हैं। सरकार एक बार फिर इसका खंडन कर रही है, लेकिन यह तय है कि आने वाले दिनों में क्या होगा और इसका देश के राजनीतिक माहौल पर क्या असर होने वाला है।

अर्थव्यवस्था की बदहाली की इबारत दीवार पर लिखी साफ नजर आ रही है। 1972 में मेरी पैदाइश से लेकर यह पहला मौका है जब उपभोक्ता खर्च में इतनी कमी आई है। खर्च के लाल निशान में पहुंचने के वैश्विक कारण ही नहीं हैं। 1972 में पूरी दुनिया में तेल का संकट था, और इससे पहले सिर्फ 1960 के दशक में ऐसा हुआ था, उस समय देश को भयंकर खाद्य संकट से दोचार होना पड़ा था। आंकड़े बता रहे हैं कि मोदी सरकार उसी किस्म के संकट में घिरी हुई है।

सबसे बड़ा संकेतक यह है कि ग्रामीण खर्च का स्तर 2009-10 के स्तर पर पहुंच गया है। शहरों की हालत भी बेहतर नहीं है क्योंकि खाद्य पदार्थों पर खर्च महज 0.2 फीसदी ऊपर हुआ है, यह सब मंदी के आसार हैं। बीजेपी का आर्थिक और राजनीतिक गुणा-भाग बुरी तरह नाकाम साबित हो रहा है।

सरकार भले ही इनकार करती रहे कि मंदी रूपी हाथी घर में घुस चुका है, लेकिन इससे कोई फायदा नहीं होने वाला। बीजेपी को भी इससे नुकसान ही होना है, भले ही वह उत्तर प्रदेश के अगले चुनाव के ऐन मौके पर अर्थव्यवस्था को रफ्तार देने के लिए तिकड़म लगाए। वैसे भी यूपी के चुनाव ही बीजेपी का अगला लक्ष्य हैं।

इससे पहले कि हम इसका आंकलन करना शुरु करें कि मौजूदा हालात किस तरह देश की राजनीति पर असर डालेंगे, हमें इसका विस्तार से अध्ययन करना होगा कि आखिर उपभोक्ता खर्च में कमी क्यों आ रही हैं। कई सालों से हम ग्रामीण मंदी की बात कर/सुन रहे हैं, लेकिन एनएसएसओ के आंकड़ों ने हमारी उस आशंका को सही साबित कर दिया है कि गांवों में लोग खर्च नहीं कर पा रहे हैं और वापस गरीबी में जाने को मजबूर हो रहे हैं।

यह एक खतरनाक स्थिति है, क्योंकि उपभोग में वृद्धि कम नहीं हुआ है, इसमें गिरावट दर्ज की गई है। और इससे भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि यह खुलासा एनएसएसओ के उस प्राइमरी डाटा से हुआ है जो उसने जमीनी स्तर पर जमा किया है। इसमें वह सेकेंडरी डाटा नहीं है जो सरकार दूसरे स्त्रोतों से हासिल करती है।

अर्थव्यवस्था बल खाते हुए नीचे की तरफ लुढ़क रही है और इसमें सुधार या उछाल की कोई उम्मीद नजर नहीं आती, ऐसे में देश का राजनीतिक माहौल और मंशा भी बदलता दिख रहा है। हाल में हुए महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा के चुनाव नतीजे इसकी तस्दीक भी करते हैं। बीजेपी इन दोनों राज्यों में बड़ी जीत की आस लगाए बैठी थी, लेकिन जीत तो दूर उसके हिस्से के वोट शेयर में ही 20 फीसदी से ज्यादा की गिरावट हो गई। वैसे वोट शेयर में कुछ गिरावट का अंदाज़ा कुछ विश्लेषकों ने लगाया थालेकिन जमीनी स्तर पर ऐसा हाल होगा इसका अनुमान किसी को नहीं था।

सत्ताधारी बीजेपी के लिए अब देश का आर्थिक माहौल सबसे बड़ी चिंता होनी चाहिए। अपने दूसरे कार्यकाल के पहले छह महीने में ही आर्थिक और राजनीतिक स्थितियां ऐसी हो जाएंगी यह बात पचाने में बीजेपी को दिक्कत हो रही है। लेकिन राजनीति में तो छह महीने का वक्त काफी माना जाता है, और अब इसके प्रभाव सीधे-सीधे नजर आने लगे हैं।

छह महीने पहले तक देश बीजेपी के साथ नजर आ रहा था, हालांकि अर्थव्यवस्था की हालत तो उस समय भी इतनी ही खराब थी, लेकिन पुलवामा और बाला कोट के दम पर बीजेपी ने जीत हासिल कर ली। यह माना गया था कि किसानों को 6000 रुपए सालाना देने वाली प्रधानमंत्री कृषि सम्मान योजना से ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार आएगा। लेकिन समस्या जितनी बड़ी होकर सामने आई है, उससे स्पष्ट है कि यह योजना अपना प्रभाव छोड़ने में नाकाम साबित हुई है।

देशकी कुल जीडीपी इस समय अनुमानत: 130 लाख करोड़ की है और इसमें कृषि की हिस्सेदारी करीब 15 फीसदी है। यानी मोटे अनुमान से देखें तो खेती-किसानी अर्थव्यवस्था में करीब 20 लाख करोड़ का योगदान देती है। सरकार ने प्रधानमंत्री कृषि सम्मान योजना में करीब 80,000 करोड़ रुपए खर्च करने का लक्ष्य रखा था, लेकिन अब इस योजना का खर्च घटाकर 50,000 करोड़ कर दिया गया है। इस हिसाब से कृषि क्षेत्र के विकास के लिए इस योजना से सिर्फ 2.5 फीसदी का ही योगदान होगा और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को रफ्तार देने के लिए यह पर्याप्त नहीं है, क्योंकि पहली तिमाही में कृषि क्षेत्र में महज 2.75 फीसदी की ही तरक्की हुई है। कुल मिलाकर बात यह है कि 2023 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने का दावा भी खोखला ही साबित होने वाला है।

करीब 66 महीने पहले नरेंद्र मोदी सरकार ने कुछ स्मार्ट आइडिया और तेज आर्थिक विकास के वादों के साथ सत्ता संभाली थी। लेकिन आज न तो कोई आइडिया ही स्मार्ट साबित हो रहा है और न ही तेज़ आर्थिक विकास हो रहा है। 2019 के चुनाव में बीजेपी ने अर्थव्यवस्था को चुनाव का मुद्दा बनने ही नहीं दिया, लेकिन आखिर कब तक इसे झुठलाया जाता रहेगा।

झूठ की परतें उधड़ रही हैं, और आखिरकार सच कड़वे तथ्यों के रूप में सामने खड़ा है।

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