मोदी को सत्ता तो मिल गई, लेकिन अगले तीन साल कई नई चुनौतियों से जूझना होगा

मोदी और बीजेपी पर अब यह बड़ी जिम्मेवारी आ गई है कि उनकी राष्ट्रवाद की परिभाषा क्या है और वे इसकी व्याख्या किस रूप में कर रहे हैं, ये साफ करें। समभाव की उनकी परिभाषा से एक बड़ा वर्ग अगर चिंतित है, तो इसके पीछे के भय को उन्हें अपने कामकाज से दूर करना होगा।

फोटोः सोशल मीडिया
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नवजीवन डेस्क

नरेंद्र दामोदर दास मोदी शुभकामनाओं के हकदार हैं क्योंकि जनता ने उनपर भरोसा किया है। लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास करने वाला कोई भी व्यक्ति तमाम किंतु-परंतु के बावजूद जनता के मत का सम्मान करेगा। जनता का फैसला चाहे जो और जैसा हो, उसे स्वीकार करना किसी भी लोकतंत्र में सर्वथा उचित है। और यह चुनाव मोदी ने बिल्कुल राष्ट्रपति प्रणाली (प्रेसिडेंशियल फार्म ऑफ इलेक्शन) की तरह लड़ा। वह विजयी भी रहे, इसलिए यह मानना गलत भी नहीं कि यह विजय उनकी अधिक है, पार्टी तो उनके साथ खड़ी है।

यह भी मानने में हर्ज नहीं है कि तमाम कमियों के बावजूद प्रधानमंत्री आवास योजना, उज्ज्वला योजना और स्वच्छता अभियान का असर जनता पर पड़ा। जाति-धर्म से ऊपर उठकर अगर लोगों के वोट मोदी को मिले, तो इसकी कुछ वजह यह रही कि इन योजनाओं ने उत्प्रेरक (कैटेलिस्ट) का काम किया। चुनावी पंडितों ने पिछले यूपी विधानसभा चुनावों के बाद भी माना था कि उज्ज्वला योजना ने गांवों तक बीजेपी को पहुंचाने में मदद की थी।

विपक्ष, विशेषतः कांग्रेस को नई पीढ़ी की आशाओं और अपेक्षाओं को समझकर एक नया विजन देना होगा जो जनता को पार्टी से जोड़ने का काम करे। पार्टी को गहरे मनन-चिंतन के साथ यह समझने का प्रयास करना होगा कि मोदी की शासकीय विफलताओं के बावजूद क्या कमी रह गई कि पार्टी जनता का विश्वास नहीं जुटा सकी। साथ ही क्षेत्रीय दलों को भी एक बात समझनी होगी कि सिर्फ क्षेत्रीय अहंकार के बल पर राजनीति अब दूर तक नहीं जा सकती।

मोदी ने इन चुनावों में राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद की बहुत चर्चा की है। संभवतः इस पर इतनी अधिक चर्चा आजादी के बाद किसी नेता ने नहीं की है। लेकिन इस टर्म का अधिक उपयोग उन्होंने पाकिस्तान के संदर्भ में किया है। मोदी एक नेता के तौर पर इसीलिए सफल हुए हैं। उन्होंने इस टर्म के सीमित अर्थ को जनता से वोट पाने के लिए इस्तेमाल किया और अपने प्रयास में सफल रहे।


इस बहाने उन्होंने अपने को मजबूत नेता के तौर पर प्रस्तुत किया और जनता ने उन्हें उस रूप में स्वीकार भी कर लिया। लेकिन मोदी और बीजेपी पर अब यह महती जिम्मेवारी आ गई है कि उनकी राष्ट्रवाद की परिभाषा क्या है और वे इसकी व्याख्या किस रूप में कर रहे हैं, यह साफ करें। यह गांधी, नेहरू, सुभाष की राष्ट्रवाद की परिभाषा से किस हद तक समान है और इस धारा से कहां जाकर यह विलग हो जाती है। समभाव की उनकी परिभाषा से एक बड़ा वर्ग अगर चिंतित है, तो इसके पीछे के भय को उन्हें अपने कामकाज से दूर करना होगा।

अब जैसे, मालेगांव विस्फोटों की आरोपी साध्वी प्रज्ञा ने चुनावों के दौरान ही गांधी जी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को जिस तरह देशभक्त बताया, उसका संदेश दूर तक गया है। पांच साल के दौरान पहली बार प्रेस कॉन्फ्रेंस करने (बल्कि शाह की कॉन्फ्रेंस में शामिल होने) वाले मोदी ने कहा था कि इस बात के लिए वह प्रज्ञा को कभी माफ नहीं कर पाएंगे। जब संसद में प्रज्ञा सदस्य होंगी, तो इस बात पर लोगों की निगाह होगी कि राष्ट्रपिता की बार-बार हत्या करने वाले प्रज्ञा-जैसे ‘राष्ट्रवादियों’ पर वह क्या कार्रवाई करते हैं।

इस तरह के तत्वों से मोदी को दूसरे टर्म में ज्यादा चुनौतियों से जूझना होगा। मोदी की अच्छी फॉलोइंग है, लकिन वह अपनी भाव-मुद्राओं और भाषा से कई दफा अलग-अलग कारणों से डराते हैं। संघ और उसके आनुषांगिक संगठनों के उन लोगों पर उन्हें लगाम लगानी होगी जो जनादेश को अपनी मनमर्जी चलाने की जनसहमति मानने की भूल कर सकते हैं।

जनादेश का सम्मान तब ही है जब सबका साथ, सबका विकास की बात वास्तविक तौर पर धरातल पर उतरे। यह तब ही संभव है जब सरकार ऐसे तत्वों पर कार्रवाई करे जो किसी इस या किसी उस कारण से दलित, मुस्लिम, आदिवासी-जैसे तबके के लोगों पर हिंसक आक्रमण कर बैठते हैं। ऐसे ही तत्व मॉब लिंचिंग- जैसी घटनाओं को अंजाम देते हैं और इन पर वास्तविक कार्रवाई की गति काफी धीमी है।


जिन चुनौतियों पर अब तक बात नहीं की गई है, वे इनसे भी बड़ी हैं, लेकिन ये बातें इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि वे देश की दशा-दिशा तय करने वाली होंगी। खैर। सबसे चिंता की बात अर्थव्यवस्था है। अगले तीन माह बाद से इसका असर दिखने लगने की आशंका है। तेल के दाम लगातार बढ़ाने पड़ रहे हैं। वैश्विक मंदी के नए फेज की आशंकाओं के बादल मंडरा रहे हैं और हमें उनसे जूझना होगा। वित्त मंत्री के रूप में अरुण जेटली कितने सफल रहे हैं, यह सब जानते हैं। मोदी को भी इसका अंदाज है। बीजेपी की दिक्कत यह है कि उसकी टीम में अर्थव्यवस्था के बढ़िया जानकारों की वास्तविक कमी है। ये वैसी कमी है जिसे कैसे दूर किया जाए, इस बारे में मोदी को खुद सोचना होगा।

विदेश नीति का मसला भी महत्वपूर्ण है। जैसा कि मोदी कहते रहे हैं, कई विदेशी राष्ट्राध्यक्षों के साथ तू-तड़ाक वाले रिश्ते रहे हैं, यह ठीक भी हो, तब भी यह तो मानना ही होगा कलरफुल इवेंट्स से इतर अपने रिश्ते कई देशों से ठीक करने और किए रखने की जरूरत है।

पाकिस्तान से अपने रिश्ते शायद सबसे खराब हालत में हैं। चीन से जैसे रिश्ते हैं, वह कब बिगड़ जाए, कहना मुश्किल है। श्रीलंका में कट्टरपंथी तत्वों ने जिस तरह अपने पैर हाल के दिनों में फैलाए हैं, वे हमारे लिए चिंता का सबब हैं। जब तक सुषमा थीं, आश्वस्त हुआ जा सकता था कि एक समझदार, गंभीर और पढ़ी-लिखी राजनेता विदेश मंत्री हैं। इस बार सुषमा ने चुनाव नहीं लड़ा और वह मंत्री रहेंगी या नहीं, कहना मुश्किल है।

और अंतिम बात। मोदी ने पिछले पांच साल के दौरान जिस तरह केंद्रीयकृत व्यवस्था बनाई, खुद ही सारे फैसले लेते रहे, वह प्रक्रिया जारी रही तो लगभग सभी क्षेत्रों में दिक्कत होगी। यह रास्ता खतरनाक है क्योंकि निरंकुश शासक ऐसा ही करते रहे हैं। निस्संदेह 2019 का चुनाव मोदी का रहा। लेकिन अगले तीन साल मोदी के लिए बड़ी चुनौतियों के हैं। मोदी इनसे कैसे निबटते हैं, इतिहास इनको इन्हीं सफलताओं-विफलताओं के आधार पर आंकेगा।

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