टैक्स में राज्यों का हिस्सा लगातार कम रही है मोदी सरकार, कई राज्यों के सामने आ खड़ा हुआ है वित्तीय संकट

केंद्री की मोदी सरकार ने बीते सालों के दौरान कर राजस्व में राज्यों के हिस्से में लगातार कटौती की है। स्थिति अब ऐसी हो गई है कि कई राज्यों के सामने वित्तीय संकट खड़ा होने लगा है।

फोटो : सोशल मीडिया
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जेम्स विलसन

मोदी सरकार राज्यों के हिस्से पर किस कदर कब्जा जमाने के लिए बेताब है, इसे जानना हो तो 15वें वित्त आयोग के सामने इसने जो प्रस्ताव पेश किए हैं, उस पर गौर करना लाजिमी होगा। नरेंद्र मोदी सरकार चाहती है कि राज्यों को कर राजस्व में मिलने वाला हिस्सा कम हो जाए और अगर आयोग ने यह सुझाव मान लिया तो राज्यों का कर हिस्सा अभी के 42 फीसदी से घटकर 33-34 फीसदी रह जाएगा।

दरअसल, 14वें वित्त आयोग की सिफारिशों को गलत साबित करने के लिए सरकार यह संदेश देने में जुटी है कि इन्हीं सिफारिशों के कारण उस पर बोझ बढ़ गया और इससे केंद्र सरकार के सामने दरिद्रता की स्थिति आ गई। लेकिन तथ्य अलग ही कहानी बताते हैं। 14वें वित्त आयोग की सिफारिशों पर अमल 2015-16 में हुआ और इसके कारण सामूहिक पूल में राज्यों का हिस्सा 32 से बढ़कर 42 फीसदी हो गया। 14वें वित्त आयोग की रिपोर्ट में इस वृद्धि का तर्क अच्छी तरह से समझाया भी गया है और इस संवैधानिक दायित्व को सरकार सहकारी संघवाद में अपने भरोसे और अपनी सहृदयता के तौर पर पेश कर रही है। लेकिन राज्यों की हिस्सेदारी घटाकर केंद्र सरकार का हिस्सा बढ़ाने की मांग क्या उचित है? इससे हानि तो राज्यों की ही होनी है। पिछले पांच सालों के दौरान कर राजस्व के बंटवारे पर गौर करना चाहिए।

टैक्स में राज्यों का हिस्सा लगातार कम रही है मोदी सरकार, कई राज्यों के सामने आ खड़ा हुआ है वित्तीय संकट

2015-16 के केंद्रीय बजट में 14.556 लाख करोड़ की कुल प्राप्ति में 12.580 लाख करोड़ यानी 86.4 फीसदी सामूहिक कोष में रखा गया और इसका 42 फीसदी हिस्सा यानी 5.284 लाख करोड़ रुपए राज्यों के खाते में गए जबकि बाकी केंद्र सरकार के पास। 2019-20 के बजट में 24.612 लाख करोड़ की कुल प्राप्ति हुई जिसमें से 19.26 लाख करोड़ सामूहिक पूल में रखा गया और इसमें से राज्यों के हिस्से में 8.091 लाख करोड़ गया। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि पिछले पांच वर्षों के दौरान जब आम बजट में कुल कर राजस्व में 69 फीसदी का इजाफा हुआ, राज्यों के हिस्से में वृद्धि केवल 53 फीसदी की हुई जबकि समान अवधि में केंद्र सरकार के राजस्व में 78 फीसदी की बढ़ोतरी हुई।

इसका यह भी मतलब है कि 2015- 16 के दौरान 5.283 लाख करोड़ रुपये की राज्यों की हिस्सेदारी उस साल कुल राजस्व प्राप्ति की 36.3 फीसदी थी। लेकिन 2019- 20 के बजट में यह घटकर 32.88 फीसदी रह गई। हाल ही में कॉरपोरेट टैक्स में की गई कटौती के कारण जब सामूहिक पूल की राशि में और कमी आएगी तो कर राजस्व में राज्यों की हिस्सेदारी और घट जाएगी। यह कमी कितनी होगी, इसका सही अंदाजा तभी लग सकेगा जब सरकार इस साल का संशोधित लेखा-जोखा अगले बजट में पेश करेगी।

अब डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए-2 सरकार के समय की स्थिति पर नजर डालें। 2010-11 में कर राजस्व में राज्यों की हिस्सेदारी 27.95 फीसदी थी और 2013-14 में जब यूपीए का कार्यकाल खत्म हुआ तो इस हिस्सेदारी में थोड़ी ही गिरावट रही थी। तब यह 27.58 थी। 13वें वित्त आयोग का अंतिम वर्ष एनडीए शासन का पहला वर्ष था और 2014-15 में राज्यों की हिस्सेदारी और घटकर 27.28 फीसदी रह गई। इस तरह देखें तो राज्यों के राजस्व के 36.3 से घटकर 32.88 फीसदी होने का मतलब है कि 84,173 करोड़ रुपये का केंद्र सरकार के खाते में जाना, जो अन्यथा राज्यों के पास जाता।

अब थोड़ा दक्षिण के तीन राज्यों की स्थिति पर नजर डालें जो केंद्र सरकार के लिए जितने कर का संग्रह करते हैं, उसकी तुलना में वे काफी कम हिस्सा पाते हैं। अगर कुल कर अनुपात के मामले में सामूहिक पूल की हिस्सेदारी 2015-16 के स्तर पर ही बनी रहे तो 2019-20 के दौरान 24.612 लाख करोड़ के कुल कर राजस्व में तमिलनाडु के हिस्से केवल 0.15 फीसदी अधिक यानी 3692 करोड़, केरल के पास 2,215 करोड़ (0.09 फीसदी अधिक) और कर्नाटक के पास 4,184 करोड़ (0.17 फीसदी अधिक) आ पाता।


अब बात तेल में किए गए खेल की। मोदी सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों, खास तौर पर पेट्रोल पर एक्साइज ड्यूटी इस तरह रखी है कि उसके हिस्से तो भारी-भरकम राशि आती रहे, लेकिन राज्यों की हिस्सेदारी घट जाए। पेट्रोल पर उत्पाद शुल्क के मुख्यतः तीन भाग हैं- आधार उत्पाद शुल्क, विशेष अतिरिक्त उत्पाद शुल्क और अतिरिक्त उत्पाद शुल्क(रोड और इन्फ्रास्ट्रक्चर सेस)। इनमें से केवल आधार उत्पाद शुल्क से प्राप्त राशि ही सामूहिक पूल में जाती है और बाकी दो सरचार्ज/सेस की श्रेणी में आते हैं और जिनसे मिली राशि सीधे केंद्र सरकार के पास जाती है। बाद के दो शुल्कों में इजाफा करके मोदी सरकार ने सुनिश्चित किया कि 14वें वित्त आयोग की सिफारिश से कहीं ज्यादा पैसे उसके खाते में आएं और राज्यों के हिस्से की राशि घट जाए।

1 मार्च, 2015 में पेट्रोल पर कुल उत्पाद शुल्क प्रति लीटर 17.46 रुपए था जो अब बढ़कर 19.98 रुपया हो गया है। लेकिन 5.46 रुपए प्रतिलीटर का आधार उत्पाद शुल्क (कुल उत्पाद शुल्क का 31.3 फीसदी) अब घटकर 2.98 रुपये प्रति लीटर हो चुका है जो कुल उत्पाद शुल्क का महज 14.9 फीसदी है। समान अवधि के दौरान डीजल पर आधार उत्पाद शुल्क 4.26 रुपए प्रति लीटर से बढ़कर 4.83 रुपए प्रति लीटर हो गया है जबकि इस दौरान बाकी दो उत्पाद शुल्क 6 रुपए प्रति लीटर सेबढ़कर 11 रुपए प्रति लीटर हो गए हैं और इनका पूरा फायदा केंद्र सरकार उठा रही है। बढ़ते एनपीए, गोता खाती अर्थव्यवस्था और उसे पटरी पर लाने की दुहाई देकर किए जा रहे अनाप-शनाप खर्चे की पृष्ठभूमि में मोदी सरकार जिस तरह का आर्थिक कुप्रबंधन कर रही है, राज्यों की इस हकमारी से प्राप्त राशि भी जल्दी ही कम पड़ जाएगी और तब वह इस तरह के और प्रपंच रचने लगेगी।

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