देश को साफ पीने का पानी देने के बजट तक पर कैंची चला दी मोदी सरकार ने

देश के गांवों की सबसे बड़ी जरूरत है स्वच्छ और पर्याप्त पेयजल और राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम इस जरूरत को पूरा करने का सबसे अहम कार्यक्रम है। लेकिन मोदी सरकार ने साल 2015-16 में इस कार्यक्रम को जो को झटका दिया उससे यह अब तक नहीं उबर सका है।

फोटोः सोशल मीडिया
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भारत डोगरा

गर्मी का प्रकोप बढ़ने के साथ-साथ देश के बड़े ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल संकट के समाचार मिलने शुरू हो गए हैं। इससे यह भी स्पष्ट होने लगा है कि पेयजल मोर्चे पर मोदी सरकार की विफलता हाल के वर्षों में सुदूर ग्रामीण इलाकों में रहने वालों के लिए कितनी महंगी सिद्ध हुई है।

इस बारे में आम सहमति है कि स्वच्छ और पर्याप्त पेयजल सुनिश्चित होना हमारे गांवों की सबसे बड़ी जरूरत है। इस जरूरत को पूरा करने का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम है- राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम (नैशनल रूरल ड्रिंकिंग वाटर प्रोग्राम)।

इस कार्यक्रम को मोदी सरकार ने साल 2015-16 में जो झटका दिया, उससे यह अभी तक उबर नहीं सका। हालांकि उस समय यह कहा गया था कि राज्य सरकारों को इसके लिए अधिक संसाधन उपलब्ध करवाए जाएंगे, लेकिन एक झटके में केंद्र सरकार के बजट को बहुत कम करना उचित नहीं था और इस कारण इस अति महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम को बड़ा झटका लगा।

राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम पर केंद्र सरकार ने साल 2014-15 में 9242 करोड़ रुपए खर्च किये, लेकिन 2015-16 में यह खर्च 4370 करोड़ रुपए हो गया। यानि एक ही झटके में आधे से भी कम हो गया। उसके बाद अब तक यह साल 2014-15 की अपनी स्थिति पर वापस नहीं आ सका। जबकि जरूरत तो इस आवंटन को बढ़ाने की थी। साल 2018-19 के संशोधित अनुमान को ही देखें तो यह मात्र 5500 करोड़ रुपए था जो कि इससे पिछले साल 2017-18 का वास्तविक खर्च 7038 करोड़ रुपए से बहुत कम रहा।

इसके अतिरिक्त कम आवंटित राशि का भी ठीक से उपयोग नहीं हो पाया। सीएजी की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार बजट के केंद्र सरकार के हिस्से को नोडल या क्रियान्वयन एजेंसियों तक पहुंचने में बहुत देरी हुई। कुछ संसाधन अवरुद्ध हो गए और कुछ इधर-उधर के अन्य खर्च में चले गए। इस तरह यह स्पष्ट है कि केंद्र सरकार के नीतिगत निर्णयों या क्रियान्वयन संबंधी गलतियों का प्रतिकूल असर इस अति महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम पर पड़ा और इस कारण ग्रामीण पेयजल संकट विकट हुआ।

यह सब ऐसे समय हुआ जब शौचालय निर्माण में तेजी आने से पानी के उपयोग की जरूरत बढ़ रही थी। देश के अनेक ग्रामीण क्षेत्रों से ऐसे समाचार मिल रहे हैं कि उपलब्ध जल फ्लोराईड, आर्सनिक और अन्य तरह की प्रदूषकों की अधिकता से प्रभावित हो रहा है। इसके लिए 20000 गांवों या पुरवों के लिए 2017 में राष्ट्रीय जल गुणवत्ता उप-मिशन आरंभ तो किया गया था, लेकिन इस घोषणा के बाद इसकी बहुत कम जानकारी उपलब्ध करवाई गई है।

किसी को नहीं बताया गया कि इस उप-मिशन की क्या प्रगति हुई या इससे क्या सबक मिले। होना तो यह चाहिए था कि इस कार्यक्रम से जरूरी सबक लेते हुए इसका और बेहतर विस्तार अन्य क्षेत्रों में भी किया जाता।

पर्यावरण संरक्षण पर समुचित ध्यान पिछले कुछ वर्षों में नहीं दिया गया और वन-क्षेत्र खनन व उद्योगों के हवाले कर देने में तेजी आई। इस कारण अनेक जल-स्रोतों के विनाश में तेजी आई। ऐसी प्रवृत्तियां हिमालय जैसे पर्यावरण की दृष्टि से अति संवेदनशील क्षेत्रों में भी देखी जा रही हैं। उदाहरण के लिए, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों में हाईवे विस्तार जैसी परियोजनाओं के नाम पर हजारों पेड़ काटे गए, जिन्हें बचाया जा सकता था।

गांवों में पर्याप्त पेयजल उपलब्धि को बहुत उच्च प्राथमिकता मिलनी चाहिए और इसके लिए मूल जल-स्रोतों की रक्षा भी बहुत आवश्यक है।

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